मुन्डकोप निषद में शिष्य का प्रश्न है--"कस्मिन्नु विग्याते भगवो, सर्वमिदं विग्यातं भवति ।" और आचार्य उत्तर देते हैं--’प्राण वै’...। वह क्या है जिसे जानने से सब कुछ ग्यात हो जाता है? उत्तर है-प्राण । प्राण अर्थात,स्वयं,सेल्फ़,या आत्म; जोइच्छा-शक्ति (विल-पावर) एवम जीवनी-शक्ति (वाइटेलिटी) प्रदान करता है। यही आत्मा व शरीर का समन्वय कर्ता है। योग,दर्शन,ध्यान,मोक्ष,आत्मा-परमात्मा व प्रक्रति-पुरुष का मिलन, इसी प्रा्ण के ग्यान ,आत्म -ग्यान (सेल्फ़-रीअलाइज़ेसन ) पर आधारित है।समस्त प्रकार के देहिक व मानसिक रोग इसी प्राण के विचलित होने ,आत्म-अग्यानता से-कि हमें क्या करना ,सोचना,व खाना चाहिये और क्या नहीं;पर आधारित हैं ।
रोग उत्पत्ति और विस्तार प्रक्रिया ( पेथो-फ़िज़िओलोजी)--अथर्व वेद का मन्त्र,५/११३/१-कहता है--
"त्रिते देवा अम्रजतै तदेनस्त्रित एतन्मनुष्येषु मम्रजे।ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्राह्मणा नाशयतु ॥"
मनसा, वाचा, कर्मणा,किये गये पापों (अनुचित कार्यों) को देव(इन्द्रियां), त्रित (मन,बुद्धि,अहंकार--अंतःकरण)
में रखतीं है। ये त्रित इन्हें मनुष्यों की काया में (बोडी-शरीर) आरोपित करते है( मन से शारीरिक रोग उत्पत्ति--साइकोसोमेटिक ) । विद्वान लोग ( विशेषग्य) मन्त्रों (उचित परामर्श व रोग नाशक उपायों) से तुम्हारी पीढा दूर करें। गर्भोपनिषद के अनुसार--"व्याकुल मनसो अन्धा,खंज़ा,कुब्जा वामना भवति च ।"---मानसिक रूप से व्याकुल,पीडित मां की संतान अन्धी,कुबडी,अर्ध-विकसित एवम गर्भपात भी हो सकता है। अथर्व वेद ५/११३/३ के अनुसार---
रोग उत्पत्ति और विस्तार प्रक्रिया ( पेथो-फ़िज़िओलोजी)--अथर्व वेद का मन्त्र,५/११३/१-कहता है--
"त्रिते देवा अम्रजतै तदेनस्त्रित एतन्मनुष्येषु मम्रजे।ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्राह्मणा नाशयतु ॥"
मनसा, वाचा, कर्मणा,किये गये पापों (अनुचित कार्यों) को देव(इन्द्रियां), त्रित (मन,बुद्धि,अहंकार--अंतःकरण)
में रखतीं है। ये त्रित इन्हें मनुष्यों की काया में (बोडी-शरीर) आरोपित करते है( मन से शारीरिक रोग उत्पत्ति--साइकोसोमेटिक ) । विद्वान लोग ( विशेषग्य) मन्त्रों (उचित परामर्श व रोग नाशक उपायों) से तुम्हारी पीढा दूर करें। गर्भोपनिषद के अनुसार--"व्याकुल मनसो अन्धा,खंज़ा,कुब्जा वामना भवति च ।"---मानसिक रूप से व्याकुल,पीडित मां की संतान अन्धी,कुबडी,अर्ध-विकसित एवम गर्भपात भी हो सकता है। अथर्व वेद ५/११३/३ के अनुसार---
"द्वादशधा निहितं त्रितस्य पाप भ्रष्टं मनुष्येन सहि।ततो यदि त्वा ग्राहिरानशें तां ते देवा ब्राह्मणा नाशय्न्तु॥"......अर्थात...
त्रि त के पाप (अनुचित कर्म) बारह स्थानों ( १० इन्द्रियों,चिन्तन व स्वभाव-संस्कार-जेनेटिक करेक्टर) में आरोपित होता है, वही मनुष्य की काया में आरोपित होजाते हैं; इसप्रकार शारीरिक-रोग से -->मानसिक रोगसे---> शारीरिक रोग व अस्वस्थता का एक वर्तुल (साइकोसोमेटिक विसिअस सर्किल) स्थापित होजाता है।
निदान---
१. रोक-थाम(प्रीवेन्शन)--प्राण व मन के संयम (सेल्फ़ कन्ट्रोल) ही इन रोगों की रोक थाम का मुख्य बिन्दु हैं। रिग्वेद में प्राण के उत्थान पर ही जोर दिया गया है। प्राणायाम,हठ योग, योग, ध्यान, धारणा, समाधि, कुन्डलिनी जागरण,पूजा,अर्चना, भक्ति,परमार्थ, षट चक्र-जागरण,आत्मा-परमात्मा,प्रक्रति-पुरुष,ग्यान,दर्शन,मोक्ष की अवधारणा एवम आजकल प्रचलित भज़न,अज़ान,चर्च में स्वीकारोक्ति, गीत-संगीत आदि इसी के रूप हैं। अब आधुनिक विग्यान भी इन उपचारों पर कार्य कर रहा है।रिग्वेद १०/५७/६ में कथन है---
--"वयं सोम व्रते तव मनस्तनूष विभ्रतः। प्रज़ावंत सचेमहि ॥"-- हे सोम देव! हम आपके व्रतों(प्राक्रतिक अनुशासनों) व कर्मों (प्राक्रतिक नियमों) में संलग्न रहकर,शरीर को इस भ्रमणशील मन से संलग्न रखते हैं। आज भी चन्द्रमा (मून, लेटिन -ल्यूना) के मन व शरीर पर प्रभाव के कारण मानसिक रोगियों को ’ल्यूनेटिक’ कहा जाता है।--रिग्वेद के मंत्र-१०/५७/४ में कहा है--"आतु एतु मनःपुनःक्रत्वे दक्षाय जीवसे।ज्योक च सूर्यद्द्शे॥"
....अर्थात-श्रेष्ठ , सकर्म व दक्षता पूर्ण जीवन जीने के लिये हम श्रेष्ठ मन का आवाहन करते हैं।
२- उपचार--रिग्वेद-१०/५७/११ कहता है-"यत्ते परावतो मनो तत्त आ वर्तयामसीहक्षयामजीवसे॥"-आपका जो मन अति दूर चला गया है( शरीर के वश में नहीं है) उसे हम वापस लौटाते है। एवम रिग्वेद-१०/५७/१२ क कथन है-
"यत्ते भूतं च भवयंच मनो पराविता तत्त आ......।" , भूत काल की भूलों,आत्म-ग्लानि,भविष्य की अति चिन्ता आदि से जो आपका मन अनुशासन से भटक गया है, हम वापस बुलाते हैं । हिप्नोसिस,फ़ेथ हीलिन्ग,सजेशन-चिकित्सा,योग,संगीत-चिकित्सा आदि जो आधुनिक चिकित्सा के भाग बनते जारहे हैं, उस काल में भी प्रयोग होती थे।
३. औषधीय-उपचार--मानसिक रोग मुख्यतया दो वर्गों में जाना जाता था---(अ) मष्तिष्क जन्य रोग(ब्रेन --डिसीज़) -यथा,अपस्मार(एपीलेप्सी),व अन्य सभी दौरे(फ़िट्स) आदि--इसका उपचार था,यज़ुर्वेद के श्लोकानुसार--"अपस्मार विनाशः स्यादपामार्गस्य तण्डुलैः ॥"--अपामार्ग (चिडचिडा) के बीजों का हवन से अपस्मार का नाश होता है। ---(ब) उन्माद रोग ( मेनिया)--सभी प्रकार के मानसिक रोग( साइको-सोमेटिक)--
-अवसाद(डिप्प्रेसन),तनाव(टेन्शन),एल्जीमर्श( बुढापा का उन्माद),विभ्रम(साइज़ोफ़्रीनिया) आदि।इसके लिये यज़ुर्वेद का श्लोक है--"क्षौर समिद्धोमादुन्मादोदि विनश्यति ॥"-क्षौर व्रक्ष की समिधा के हवन से उन्माद रोग नष्ट होते है।
क्योंकि मानसिक रोगी औषधियों का सेवन नहीं कर पाते ,अतः हवन रूप में सूक्ष्म-भाव औषधि( होम्योपेथिक डोज़ की भांति) दी जाती थी। आज कल आधुनिक चिकित्सा में भी दवाओं के प्रयोग न हो पाने की स्थिति में (जो बहुधा होता है) विद्युत-झटके दिये जाते हैं।
त्रि त के पाप (अनुचित कर्म) बारह स्थानों ( १० इन्द्रियों,चिन्तन व स्वभाव-संस्कार-जेनेटिक करेक्टर) में आरोपित होता है, वही मनुष्य की काया में आरोपित होजाते हैं; इसप्रकार शारीरिक-रोग से -->मानसिक रोगसे---> शारीरिक रोग व अस्वस्थता का एक वर्तुल (साइकोसोमेटिक विसिअस सर्किल) स्थापित होजाता है।
निदान---
१. रोक-थाम(प्रीवेन्शन)--प्राण व मन के संयम (सेल्फ़ कन्ट्रोल) ही इन रोगों की रोक थाम का मुख्य बिन्दु हैं। रिग्वेद में प्राण के उत्थान पर ही जोर दिया गया है। प्राणायाम,हठ योग, योग, ध्यान, धारणा, समाधि, कुन्डलिनी जागरण,पूजा,अर्चना, भक्ति,परमार्थ, षट चक्र-जागरण,आत्मा-परमात्मा,प्रक्रति-पुरुष,ग्यान,दर्शन,मोक्ष की अवधारणा एवम आजकल प्रचलित भज़न,अज़ान,चर्च में स्वीकारोक्ति, गीत-संगीत आदि इसी के रूप हैं। अब आधुनिक विग्यान भी इन उपचारों पर कार्य कर रहा है।रिग्वेद १०/५७/६ में कथन है---
--"वयं सोम व्रते तव मनस्तनूष विभ्रतः। प्रज़ावंत सचेमहि ॥"-- हे सोम देव! हम आपके व्रतों(प्राक्रतिक अनुशासनों) व कर्मों (प्राक्रतिक नियमों) में संलग्न रहकर,शरीर को इस भ्रमणशील मन से संलग्न रखते हैं। आज भी चन्द्रमा (मून, लेटिन -ल्यूना) के मन व शरीर पर प्रभाव के कारण मानसिक रोगियों को ’ल्यूनेटिक’ कहा जाता है।--रिग्वेद के मंत्र-१०/५७/४ में कहा है--"आतु एतु मनःपुनःक्रत्वे दक्षाय जीवसे।ज्योक च सूर्यद्द्शे॥"
....अर्थात-श्रेष्ठ , सकर्म व दक्षता पूर्ण जीवन जीने के लिये हम श्रेष्ठ मन का आवाहन करते हैं।
२- उपचार--रिग्वेद-१०/५७/११ कहता है-"यत्ते परावतो मनो तत्त आ वर्तयामसीहक्षयामजीवसे॥"-आपका जो मन अति दूर चला गया है( शरीर के वश में नहीं है) उसे हम वापस लौटाते है। एवम रिग्वेद-१०/५७/१२ क कथन है-
"यत्ते भूतं च भवयंच मनो पराविता तत्त आ......।" , भूत काल की भूलों,आत्म-ग्लानि,भविष्य की अति चिन्ता आदि से जो आपका मन अनुशासन से भटक गया है, हम वापस बुलाते हैं । हिप्नोसिस,फ़ेथ हीलिन्ग,सजेशन-चिकित्सा,योग,संगीत-चिकित्सा आदि जो आधुनिक चिकित्सा के भाग बनते जारहे हैं, उस काल में भी प्रयोग होती थे।
३. औषधीय-उपचार--मानसिक रोग मुख्यतया दो वर्गों में जाना जाता था---(अ) मष्तिष्क जन्य रोग(ब्रेन --डिसीज़) -यथा,अपस्मार(एपीलेप्सी),व अन्य सभी दौरे(फ़िट्स) आदि--इसका उपचार था,यज़ुर्वेद के श्लोकानुसार--"अपस्मार विनाशः स्यादपामार्गस्य तण्डुलैः ॥"--अपामार्ग (चिडचिडा) के बीजों का हवन से अपस्मार का नाश होता है। ---(ब) उन्माद रोग ( मेनिया)--सभी प्रकार के मानसिक रोग( साइको-सोमेटिक)--
-अवसाद(डिप्प्रेसन),तनाव(टेन्शन),एल्जीमर्श( बुढापा का उन्माद),विभ्रम(साइज़ोफ़्रीनिया) आदि।इसके लिये यज़ुर्वेद का श्लोक है--"क्षौर समिद्धोमादुन्मादोदि विनश्यति ॥"-क्षौर व्रक्ष की समिधा के हवन से उन्माद रोग नष्ट होते है।
क्योंकि मानसिक रोगी औषधियों का सेवन नहीं कर पाते ,अतः हवन रूप में सूक्ष्म-भाव औषधि( होम्योपेथिक डोज़ की भांति) दी जाती थी। आज कल आधुनिक चिकित्सा में भी दवाओं के प्रयोग न हो पाने की स्थिति में (जो बहुधा होता है) विद्युत-झटके दिये जाते हैं।
4 comments:
अब आप यह भी कह डालिए कि जैसे आजकल पश्चिमी चिकित्सक सैक्स रोगियों को ब्लू फ़िल्में दिखाते हैं और ऐसे ही पुराने हिन्दू वैद्य अजन्ता और एलोरा की गुफाओं की अश्लील मूर्तियाँ दिखाकर अपने मरीज़ों का इलाज किया करते थे।
ओं पूषा भगं सविता मे ददातु रूद्रः कल्पयतु ललामगुम ।
ओं विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु ।
आसिंचतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते ..
ऋग्वेद 10-184-1
बिल्कुल सही सोच रहे हैं जमाल साहब ...यही बात है...
---पर आपके द्वारा दिये हुए श्लोक का आप क्या अर्थ समझ रहे हें..क्रपया बतायें...क्योंकि यह श्लोक यहां सन्दर्भीय नहीं है....
@ जनाब डा. श्याम गुप्ता जी ! अगर आप उसे ग़ौर से देखते तो आप जान लेते कि यह श्लोक नहीं है बल्कि वेदमंत्र है और आप यह भी देख लेते कि उसमें एक लिंक भी पोशीदा है। आप जैसे ही उस पर क्लिक करते तो उसका अर्थ ही नहीं बल्कि उसकी पूरी पृष्ठभूमि भी आपके सामने होती।
अनवर जमाल साहब....आप जाने कहां चन्डूखाने से ये ग्यान लेकर आते हैं---आपके बहुत सारे भ्रम दूर होजाने चाहिये...
१-- वेदों का कोई भी मन्त्र ’ॐ’ से प्रारम्भ नहीं होता, वेदों में ओम का कहीं जिक्र ही नहीं है, ये आपके दिये हुए मन्त्र अशुद्ध , झूठे व मन्घडंत हैं--मूल मन्त्र..रिग्वेद १०/१८४ एवं अथर्व ६/८१ में यह है--
"विष्णुर्योनि कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु ।
आ सिन्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भ दधातु मे ॥"
२---वैसे भी भग एक आदित्य है(मित्र, अर्यमा,वरुण, दक्ष, अंश..आदि प्रक्रिति के अनुशासक) ..स्त्री योनि नहीं..आपके अर्थ के अनुसार गर्भ धारण करने वाली स्त्री-पुरुष मुझे स्त्री-योनि(भग) दो-- क्यों कहेगा वह तो वहां है ही...भग वैदिक साहित्य में भर्ग= तेज के लिये प्रयोग होता है...
३--इस आपके मन्त्र में स्त्री शब्द कहीं है भी? ....इसका मूल अर्थ है...पूषा, व सविता देव मुझमें तेज उत्पन्न करें( करते हैं--जब यह मन्त्र श्रिष्टि स्रजन के सन्दर्भ में कहा जाता है ),रुद्र मूल सौन्दर्यमय रचना की परिकल्पना प्रस्तुत करें,विष्णु, सर्वशक्तिमान परमात्मा-योनि ( गर्भाशय-या धरती) को समर्थ करें , त्वष्टा( विश्वकर्मा) गर्भ ( या श्रिटि-तत्व) के आकारों को बनायें तथा प्रजापति-धाता,गर्भ को सब प्रकार से सींचे..जान डाले सम्पन्न बनायें ।-इसमें कहीं भी अश्लीलता का नाम नहीं है..
४--इसी लिन्क में जो मन्त्र--"न सेशे रम्यतेन्तरा..." है उसका भी अनर्थमूलक अर्थ है, वह नहीं जो आप बता रहे हैं...अपितु अर्थ है--"इन्द्राणी- इन्द्र(विश्व-शक्ति--रासायनिक संघटक शक्ति) की मूल कार्यकारी, प्रतिपादक, अन्तर्शक्ति है, जो रोमश: अर्थात विभिन्न प्रकार के ग्यान से आव्रत्त रहती है, उस अन्तर्शक्ति के बिना इन्द्र कुछ नही कर सकता...
--आशा है अब तो आप वेदों आदि के बारे में ये व्यर्थ की भ्रमात्मक बातें पढना, लिखना छोडकर किसी अच्छे कार्य में मन लगायेंगे....
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