ग़ज़लगंगा.dg: उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए

उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए

सबकी नज़रों से जुदा हो जाए.
उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए.

चीख उसके निजाम तक पहुंचे
वर्ना गूंगे की सदा हो जाए.

अपनी पहचान साथ रहती है
वक़्त कितना भी बुरा हो जाए.

थक चुके हैं तमाम चारागर
दर्द से कह दो दवा हो जाए.

उसके साए से दूर रहता हूं
क्या पता मुझसे खता हो जाए.

कुछ भला भी जरूर निकलेगा
जितना होना है बुरा हो जाए.

होश उसको कभी नहीं आता
जिसको दौलत का नशा हो जाए.

घर में बच्चा ही कहा जाएगा
चाहे जितना भी बड़ा हो जाए.

-देवेंद्र गौतम

Read more: http://www.gazalganga.in/2014/12/blog-post.html#ixzz3Ll9YpXwSग़ज़लगंगा.dg: उसने चाहा था ख़ुदा हो जाए
Read More...

वीर अब्दुल हमीद जैसों की शहादत को भूल जाने वालों के लिए कोई भला अपनी जान क्यों देगा?

वीरों की शहादत को भूल जाने वालों के लिए कोई भला अपनी जान क्यों देगा?  वीर अब्दुल हमीद शहीद के घर वाले जानते हैं या फिर थोड़े से और लोग कि आज 4th बटालियन, ग्रेनेडियर में तैनात हवालदार अब्दुल हमीद की शहादत दिन है। 1965 युद्ध में पाकिस्तानी सेना का सीना चीर कर उस समय के अपराजेय माने जाने वाले उसके "पैटन टैंकों" को तबाह कर देने वाले 32 वर्षीय वीर अब्दुल हमीद आज ही के दिन खेमकरण सेक्टर, तरन तारण में शहीद हुए थे.
क्या इस देश में कहीं सार्वजनिक रूप से वीर अब्दुल हमीद को याद किया गया? अगर नहीं तो हरेक को चाहिए कि वह बेईमान हाकिम कि शिकायत करने के बजाय अपने चेहरे धूल साफ़ करे. इसी से हालात बदलेंगे.

Read More...

जंगे-आज़ादी के नायक अशफाक उल्ला खान

इंसान को अपनी बेहतरी के लिये खुद ही संघर्ष करना पड़ता है.
हरेक इंसान को जानना चाहिये कि उसके लिये क्या बेहतर है ?
आज़ादी की सालगिरह मुबारक.
देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले अशफाक उल्ला खान जंग-ए-आजादी के महानायक थे।अंग्रेजों ने उन्हें अपने पाले में मिलाने के लिए तरह-तरह की चालें चलीं लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। स्वतंत्रता संग्राम पर कई पुस्तकें लिख चुके इतिहासकार सर्वदानंदन के अनुसार काकोरी कांड के बाद जब अशफाक को गिरफ्तार कर लिया गया तो अंग्रेजों ने उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की और कहाकि यदि हिन्दुस्तान आजाद हो भी गया तो उस पर हिन्दुओं का राज होगा तथा मुसलमानों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफाक ने ब्रितानिया हुकूमत के कारिन्दों से कहा कि फूट डालकर शासन करने की अंग्रेजों की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आजादहोकर रहेगा। अशफाक ने अंग्रेजों से कहा था,तुम लोग हिन्दू-मुसलमानो में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को नहीं दबा सकते।उनके इस जवाब से अंग्रेज दंग रह गये उन्होने कहा भारतमाँ अगर हिँदुओ की माँ है तो हम मुस्लमान भी इसी माँ के लाल है अब हिन्दुस्तान में क्रांति की ज्वाला भड़क चुकी है जो अंग्रेजी साम्राज्य को जलाकर राख कर देगी। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह बिल्कुल नहीं बनूंगा। 22 अक्तूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में जन्मे अशफाक उल्लाखान अपने छह भाई बहनों में सबसे छोटे थे।
अशफाक पर गांधी का काफी प्रभाव था लेकिन जब चौरी चौरा की घटना के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो वह प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल से जा मिले। जो कि अशफाक के बचपन के मित्र थे । बिस्मिल औरचंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की आठ अगस्त1925 को शाहजहांपुर में एक बैठक हुई और हथियारों के लिए रकम जुटाने के उद्देश्य से ट्रेन में ले जाए जाने वाले सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गई। क्रांतिकारी जिस खजाने को हासिल करना चाहते थे, दरअसल वह अंग्रेजों ने भारतीयों से ही लूटा था। 9 अगस्त 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिडी,ठाकुर रोशन सिंह, सचिंद्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल मुकुंद और मन्मथ लाल गुप्त ने लखनऊ के नजदीक काकोरी में ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। इस घटना से ब्रितानिया हुकूमत तिलमिला उठी। क्रांतिकारियों की तलाश में जगह-जगह छापे मारे जाने लगे। एक-एक कर काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए लेकिन चंद्रशेखर आजाद और अशफाक उल्ला खान हाथ नहीं आए। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के रूप में दर्ज हुई।
अशफाक शाहजहांपुर छोड़कर बनारस चले गए और वहां एक इंजीनियरिंग कंपनी में 10 महीने तक काम किया। इसके बाद उन्होंने विदेश जाने की योजना बनाई ताकि क्रांति को जारी रखने के लिएबाहर से मदद करते रहें। इसके लिए वह दिल्ली आकर अपने एक मित्र के संपर्क में आए लेकिन इस मित्र ने अंग्रेजों द्वारा घोषित इनाम के लालच में आकर पुलिस को सूचना दे दी। यार की गद्दारी से अशफाक पकड़े गए। अशफाक को फैजाबाद जेल भेज दिया गया। उनके वकील भाई रियासत उल्ला ने बड़ी मजबूती से अशफाक का मुकदमा लड़ा लेकिन अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाने पर आमादा थे और आखिरकार अंग्रेज जज ने डकैती जैसे मामले में अशफाक को फांसी की सजा सुना दी। 19 दिसंबर 1927 को अशफाक को फांसी दे दी गई जिसे उन्होंने हंसते-हंसते चूम लिया। इसी मामले में राम प्रसाद बिस्मिल को भी 19 दिसंबर 1927 को फांसी पर लटका दिया गया।
Read More...

हुमायूं और कर्मावती के बीच का प्रगाढ़ रिश्ता और राखी का मर्म


भारतीय नारी का एक रूप ‘बहन‘ भी है और भारतीय पर्व और त्यौहारों की सूची में एक त्यौहार का नाम ‘रक्षा बंधन‘ भी है। जहां होली का हुड़दंग और दीवाली पर पटाख़ों का शोर शराबा लोगों के लिए परेशानी का सबब बन जाता है और उनके पीछे की मूल भावना दब जाती है वहीं रक्षा बंधन का त्यौहार आज भी दिलों को सुकून देता है। यह त्यौहार मुझे सदा से ही प्यारा लगता आया है।

यह पर्व भाई-बहन के बीच पवित्र स्नेह का द्योतक भी है। बहन भाई की कलाई पर रेशम की डोरी यानी राखी बांधती है आरती उतार कर भाई के माथे पर टीका लगाती है तथा सुख एवं समृद्धि हेतु नारियल एवं रूमाल भाई को भेंट स्वरूप देती है। भाई भी बहन की रक्षा के संकल्प को दोहराते हुए भेंट स्वरूप कुछ रुपये अथवा वस्तुएं प्रदान करता है।
इतिहास में एक अध्याय कर्मावती व हुमायूं के बीच प्रगाढ़ रिश्ते और राखी की लाज से जुड़ा है। कर्मावती ने हुमायूं को पत्रा भेज कर सहायता मांगी थी। बादशाह हुमायूं ने राखी की लाज निभाते हुए अपनी राजपूत बहन कर्मावती की मदद की थी। अतः रक्षाबंधन हमारे लिए विजय कामना का भी पर्व है।

हमें कर्मावती और हुमायूं की वह ऐतिहासिक घटना सदैव याद रखनी चाहिए कि पवित्र रिश्ते मजहब के फ़र्क़ के बावजूद भी बनाए जा सकते हैं।पवित्र रिश्तों का सम्मान करना हम सभी का नैतिक कर्तव्य भी है।
आओ और पेड़ों को राखी बांधो और उनके रक्षार्थ सामूहिक प्रयास करो। शायद यह प्रयास वृ़क्षों की अनावश्यक कटाई की रोकथाम में कारगर सिद्ध हो जाए। 
इस त्यौहार के पीछे एक पौराणिक कथा भी बताई जाती है, जो इस प्रकार है : 
उस दिन श्रावणमास शुक्ल की चतुर्थी थी। दूसरे दिन प्रातः इंद्र देवता की पत्नी ने गुरू बृहस्पति की आज्ञा से यज्ञ किया और यज्ञ की समाप्ति पर इंद्र की दाई कलाई पर ‘रक्षा‘-सूत्रा’ बांधा। तत्पश्चात देव-दानव युद्ध में देवताओं को जीत की प्राप्ति हुई। कहा जाता है तभी से श्रावणी की पूर्णिमा को रक्षाबंधन पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।
प्राचीन काल में शिष्य अपने गुरूओं के हाथ में सूत का धागा बांधकर उनसे आशीष प्राप्त करते थे। ब्राह्मण भी हाथ में सूत का धागा बांध कर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। रक्षाबंधन भले ही हिंदुओं का पावन पर्व है किंतु दूसरे धर्म के अनुयायियों ने भी स्वेच्छा से रक्षा बंधन पर्व में अपनी आस्था व्यक्त की है।

समयानुसार सभी पर्व प्रभावित हुए हैं। रक्षाबंधन भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रह पाया। रेशम की डोरी की जगह फैंसी राखियां चलन में आ गई। हमारी अर्थव्यवस्था में रक्षाबंधन पर्व के महत्त्वपूर्ण योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। करोड़ों रूपयों का कारोबार लाखों परिवारों को आजीविका प्रदान कर रहा है।
ज्वैलरी मार्केट में भी रक्षाबंधन के दौरान उछाल आ जाता है। मिठाइयां, ड्रायफ्रुटस्, चाॅकलेटस की भी अच्छी खासी बिक्री होती है। डाक विभाग और कूरियर कारोबारी भी रक्षाबंधन के दौरान विशेष सेवाएं प्रदान करते हैं। रक्षा बंधन के पर्व को कुछ लोगों ने अपनी हरकतों से नुक्सान भी पहुंचाया है। पश्चिमी सभ्यता से रेशम की डोरी भी प्रभावित हुई है। फ्रैण्डशिप डे’ के दिन स्कूल और कालेज के विद्यार्थी एक-दूसरे की कलाइयों में फ्रैण्डशिप बेल्ट बांधते हैं नये दोस्त बनाने के लिए लड़के उन लड़कियों को भी बेल्ट बांधने से नही चूकते जिनसे जान थी और न ही पहचान।
रक्षाबंधन को भी कान्वेंट स्कूलों ने उसी तर्ज पर मनाने की परंपरा स्थापित कर नुक्सान ही पहुंचाया है। माना कि खून के रिश्ते से भी ज्यादा मायने मानवीय रिश्तों में छुपे हैं। मुंहबोली बहन अथवा भाई बनाने का फैशन ही भाई-बहन के पवित्रा रिश्ते को संदेहास्पद बनाता है। बहनों और भाइयों दोनों को रिश्तों की नाजुकता को ध्यान में रखना चाहिए। नई पीढ़ी को शायद यह नहीं पता कि भावनाओं का अनादर एवं विश्वास के साथ घात अशोभनीय है।
फिर यह भी प्रश्न उठता है कि रिश्ते तो और भी हैं, क्या उनमें भी कर्त्तव्य बोध जागृत करने के लिए कोई त्योहार मनाया जाता है? क्या पिता अपने बच्चों की पालना करे, इसके लिए कोई त्योहार है? मां अपने बच्चों को खुशी दे, इसके लिए कोई त्योहार है? फिर भाई, बहन की रक्षा करे, इसी के लिए त्योहार क्यों?
वास्तव में यह त्योहार एक बहुत ही ऊंची भावना के साथ शुरू हुआ था, जो समय के अंतराल में धूमिल हो गया और इस त्योहार का अर्थ संकुचित हो गया। भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम् में विश्वास करती है। इसका अर्थ है कि सारा विश्व ही एक परिवार है। भाई-बहन का नाता ऐसा नाता है जो कहीं भी, कभी भी बनाया जा सकता है।
आप किसी भी नारी को बहन के रूप में निसंकोच संबोधित कर सकते हैं। बहुत छोटी आयु वाली को , हो सकता है , माता न कह सकें , पर बहन तो बच्ची , बूढ़ी हरेक को कह सकते हैं। वसुधैव कुटुंबकम् हमें यही सिखाता है कि संसार की हर नारी को बहन मानकर और हर नर को भाई मानकर निष्पाप नजरों से देखो।
आपकी सगी बहन सब नारियों की प्रतिनिधि है - इस निष्पाप वैश्विक संबंध की याद दिलाने यह त्योहार आता है और इसके लिए निमित्त बनती है सगी बहन , क्योंकि बहन - भाई के नाते में लौकिक बहन का नाता स्वाभाविक रूप से पवित्रता लिए रहता है। बहन जब अपने लौकिक भाई की कलाई पर राखी बांधती है तो यही संकल्प देती है कि भाई , जैसे तुम अपनी इस बहन को पवित्र नजर से देखते हो , दुनिया की सभी नारियों को , कन्याओं को ऐसी ही नजर से निहारना। संसार की सारी नारियां तुझे राखी नहीं बांध सकतीं , पर मैं उन सबकी तरफ से बांध रही हूं। वो सब मुझमें समाई हुई हैं , उन सबका प्रतिनिधि बनकर मैं आपसे निवेदन करती हूं , आपको प्रतिज्ञाबद्ध करती हूं कि आप निष्पाप बनें।

भारतीय नारी का एक रूप ‘बहन‘ भी है और भारतीय पर्व और त्यौहारों की सूची में एक त्यौहार का नाम ‘रक्षा बंधन‘ भी है। जहां होली का हुड़दंग और दीवाली पर पटाख़ों का शोर शराबा लोगों के लिए परेशानी का सबब बन जाता है और उनके पीछे की मूल भावना दब जाती है वहीं रक्षा बंधन का त्यौहार आज भी दिलों को सुकून देता है। यह त्यौहार मुझे सदा से ही प्यारा लगता आया है।
यह पर्व भाई-बहन के बीच पवित्र स्नेह का द्योतक भी है। बहन भाई की कलाई पर रेशम की डोरी यानी राखी बांधती है आरती उतार कर भाई के माथे पर टीका लगाती है तथा सुख एवं समृद्धि हेतु नारियल एवं रूमाल भाई को भेंट स्वरूप देती है। भाई भी बहन की रक्षा के संकल्प को दोहराते हुए भेंट स्वरूप कुछ रुपये अथवा वस्तुएं प्रदान करता है।
इतिहास में एक अध्याय कर्मावती व हुमायूं के बीच प्रगाढ़ रिश्ते और राखी की लाज से जुड़ा है। कर्मावती ने हुमायूं को पत्रा भेज कर सहायता मांगी थी। बादशाह हुमायूं ने राखी की लाज निभाते हुए अपनी राजपूत बहन कर्मावती की मदद की थी। अतः रक्षाबंधन हमारे लिए विजय कामना का भी पर्व है।
हमें कर्मावती और हुमायूं की वह ऐतिहासिक घटना सदैव याद रखनी चाहिए कि पवित्र रिश्ते मजहब के फ़र्क़ के बावजूद भी बनाए जा सकते हैं।पवित्र रिश्तों का सम्मान करना हम सभी का नैतिक कर्तव्य भी है।
आओ और पेड़ों को राखी बांधो और उनके रक्षार्थ सामूहिक प्रयास करो। शायद यह प्रयास वृ़क्षों की अनावश्यक कटाई की रोकथाम में कारगर सिद्ध हो जाए।
इस त्यौहार के पीछे एक पौराणिक कथा भी बताई जाती है, जो इस प्रकार है : 
उस दिन श्रावणमास शुक्ल की चतुर्थी थी। दूसरे दिन प्रातः इंद्र देवता की पत्नी ने गुरू बृहस्पति की आज्ञा से यज्ञ किया और यज्ञ की समाप्ति पर इंद्र की दाई कलाई पर ‘रक्षा‘-सूत्रा’ बांधा। तत्पश्चात देव-दानव युद्ध में देवताओं को जीत की प्राप्ति हुई। कहा जाता है तभी से श्रावणी की पूर्णिमा को रक्षाबंधन पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।
प्राचीन काल में शिष्य अपने गुरूओं के हाथ में सूत का धागा बांधकर उनसे आशीष प्राप्त करते थे। ब्राह्मण भी हाथ में सूत का धागा बांध कर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। रक्षाबंधन भले ही हिंदुओं का पावन पर्व है किंतु दूसरे धर्म के अनुयायियों ने भी स्वेच्छा से रक्षा बंधन पर्व में अपनी आस्था व्यक्त की है।
समयानुसार सभी पर्व प्रभावित हुए हैं। रक्षाबंधन भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रह पाया। रेशम की डोरी की जगह फैंसी राखियां चलन में आ गई। हमारी अर्थव्यवस्था में रक्षाबंधन पर्व के महत्त्वपूर्ण योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। करोड़ों रूपयों का कारोबार लाखों परिवारों को आजीविका प्रदान कर रहा है।
भैया और बहन के पावन रिश्ते को बांधने वाली रेशम की डोर का रंग और ढंग भी बदलते दौर में बदल गया है। अब इस रेशम की डोर पर फैशन का रंग चढ़ गया है। कारोबारी इस प्रेम के पर्व को अपने तरीके से कैश कर रहे हैं। बाजार में सोने और चांदी से जड़ी राखी उतारकर बहनों को आकर्षित किया जा रहा है। इसकी कीमत भी काफी हाई-फाई है। दूसरी तरफ बहनें भी अपने भैया के लिए महंगी राखी खरीदने को तवज्जो दे रही हैं। सोना-चांदी से जडि़त राखी के स्वर्णकारों के पास स्पेशल आर्डर भी आ रहे हैं। बाजार में 20 हजार रुपए कीमत वाली राखी आ गई है। बदलते दौर में स्वर्णकारों को भी भाई बहन के प्यार के पर्व पर चांदी कूटने का मौका मिल गया है। आशा शर्मा, मीना धीमान, पूजा राणा, मंजू कविता, आमना और रेखा धीमान का कहना है कि भाई की कलाई को सजाने के लिए हजारों रुपए भी कम पड़ जाते हैं।
धर्मशाला के वर्मा ज्यूलर शाप के मालिक राजेश वर्मा का कहना है कि इस राखी के पर्व पर सोने चांदी से जडि़त राखियों के अलावा मोती जडि़त राखी के आर्डर भी आ रहे हैं। सोने और चांदी से जडि़त राखी के आर्डर धर्मशाला ही नहीं बल्कि प्रदेश भर में बुक किए जा रहे हैं। सोने का भाव आसमान पर है, बावजूद इसके बहनें अपने भाई की कलाई को सजाने के लिए इसकी परवाह नहीं कर रही हैं।

ब्रह्माकुमारी दादी हृदयमोहिनी कहती हैं कि
हम हर वर्ष रक्षाबंधन का पर्व मनाते हैं। हर बार हमें समझाया जाता है कि बहन, भाई को इसलिए राखी बांधती है कि वह उसकी रक्षा करेगा। लेकिन यदि बहन राखी नहीं बांधेगी, तो क्या भाई उसकी रक्षा नहीं करेगा? हिंदुओं को छोड़कर बाकी किसी संस्कृति -बौद्ध, क्रिश्चियन, मुस्लिम आदि संप्रदायों में राखी नहीं बांधी जाती, परंतु भाइयों द्वारा अपनी लौकिक बहनों की रक्षा तो वहां भी की जाती है। ऐसे कर्त्तव्य बोध के लिए कोई और त्योहार क्यों नहीं मनाया जाता? यदि कोई कहे कि यह त्योहार भाई-बहन के बीच प्रेम बढ़ने का प्रतीक है, तो भी प्रश्न उठता है कि क्या राखी न बांधी जाए तो बहन-भाई का प्रेम समाप्त हो जाएगा?
भाई-बहन को सहोदर-सहोदरी कहा जाता है, यानी एक ही उदर (पेट) से जन्म लेने वाले। जो एक उदर से जन्म लें, एक ही गोद में पलें, उनमें आपस में स्नेह न हो, यह कैसे हो सकता है। सफर के दौरान किसी यात्री के साथ दो-चार घंटे एक ही गाड़ी में सफर करने से भी कई बार इतना स्नेह हो जाता है कि हम उसका पता लेते हैं, पुन: मिलने का वायदा भी कर लेते हैं। तो क्या सहोदर-सहोदरी में स्वाभाविक स्नेह नहीं होगा, जो उन्हें आपस के प्रेम की याद दिलाने के लिए राखी का सहारा लेना पड़े।
मेरी सुरक्षा भी तभी होगी जब आप औरों की बहनों की सुरक्षा करेंगे। यदि आपके किसी कर्म से संसार की कोई भी बहन असुरक्षित हो गई , तो आपकी यह बहन भी किसी के नीच कर्म से असुरक्षित हो सकती है। आपसे कोई अन्य बहन न डरे और अन्य किसी भाई से आपकी इस बहन को कोई डर न हो , यही राखी का मर्म है।
Read More...

'जब मैंने हिन्दी बोली' -एक क़हक़हेदार पोस्ट

महंगाई बढ़ने की खबरें हिन्दी बोलने वालों को भी डरा रही हैं लेकिन फिर भी लोग हिन्दी बोल रहे हैं और बहुत अच्छी बोल रहे हैं. आप भी अपने जीवन में हिन्दी बोलकर अपना और समाज का बहुत भला कर सकते हैं. आज भारी भरकम मुद्दों को उठाती हुई पोस्ट्स के दरम्यान एक क़हक़हेदार पोस्ट पढी तो उसे यहाँ देने की तबियत हुई.
फ़ेसबुक पर एक बहन ने लिखा है कि

मुझे भी आज हिंदी बोलने का शौक हुआ, होटल से निकली और एक ऑटो वाले से पूछा,
"त्री चक्रीय चालक पूरे जयपुर नगर के परिभ्रमण में कितनी मुद्रायें व्यय होंगी"?
ऑटो वाले ने कहा, "अरे हिंदी में बोलो न..."
मैंने कहा, "श्रीमान मै हिंदी में ही वार्तालाप कर रही हूँ ।"
ऑटो वाले ने कहा, "मोदी जी पागल करके ही मानेंगे ।" चलो बैठो कहाँ चलोगी ?
मैंने कहा, "परिसदन चलो ।"
ऑटो वाला फिर चकराया !!
"अब ये परिसदन क्या है.? बगल वाले श्रीमान ने कहा, "अरे सर्किट हाउस जाएगा ।।"
ऑटो वाले ने सर खुजाया बोला,
"बैठिये मैडम ।।"
रास्ते में मैंने पूछा, "इस नगर में कितने छवि गृह हैं.??"
ऑटो वाले ने कहा, "छवि गृह मतलब..??"
मैंने कहा, "चलचित्र मंदिर ।"
उसने कहा, "यहाँ बहुत मंदिर हैं राम मंदिर, हनुमान मंदिर, जग्गनाथ मंदिर, शिव मंदिर ।।"
मैंने कहा, "मै तो चलचित्र मंदिर की बात कर रही हूँ जिसमें
नायक तथा नायिका प्रेमालाप करते हैं ।।"
ऑटो वाला फिर चकराया, "ये चलचित्र मंदिर क्या होता है..??"
यही सोचते सोचते उसने सामने वाली गाडी में टक्कर मार दी ।
ऑटो का अगला चक्का टेढ़ा हो गया ।
मैंने कहा, "त्री चक्रीय चालक तुम्हारा अग्र चक्र तो वक्र हो गया ।।"
ऑटो वाले ने मुझे घूर कर देखा और कहा, "उतरो जल्दी उतरो !!
चलो भागो यहाँ से ।"
तब से यही सोच रही हूँ अब और हिंदी बोलूं या नहीं !!!

June 26,2014 at 06:48 PM IST
12 Followers
Gold: 23.8K
23809 Points
3
3
प्रिय ब्लॉगर भाई डॉ अनवर जमाल जी, वाकई पोस्ट पढ़ते ही हंसी से लोटपोट हो गए. बहुत साल पहले का एक चुट्कुला याद आ गया. एक व्यक्ति ने ऑटो वाले से पूछा, " भाई, केंद्रीय सचिवालय चलोगे?'' ऑटो वाला बोला, "हमने तो इस जगह का नाम ही नहीं सुना!'' उस व्यक्ति ने कहा, "सैंट्रल सेक्रेटियेरेट चलोगे?'' व्यक्ति बोला, "मैं पहले भी तो यही कह रहा था.'' ऑटो वाला बोला, "अब के हिंदी में बोला तो, समझ में आ गया.''
जवाब दें
(leela tewani को जवाब )- डा. अनवर जमाल
June 26,2014 at 06:51 PM IST
जी हाँ, बहन लीला तिवानी जी ! सोचा डरे हुए लोगों को क़हक़हा लगाने का एक मौक़ा मिल जायेगा और उनका तनाव ज़रा सा कम हो जायेगा.
शुक्रिया अपना तजुर्बा शेयर करने के लिये.

जवाब दें
Read More...

कुछ यात्राएँ निराशाजनक भी साबित होती है





दोस्तों, मैंने कल अपनी भतीजी चारू जैन के साथ एक छोटी सी रोहतक,
हरियाणा की यात्रा की. जो उम्मीदों के अनुरूप बहुत ही निराशाजनक रही. दरअसल
मेरी भतीजी एम.बी.बी.एस का कोर्स करना चाहती है. पिछले साल ही बारहवीं पास
कर ली थी और दाखिले से पहले होने वाली परीक्षा में भी पास हो गई थी. लेकिन
उसकी आयु कम होने के कारण दाखिला नहीं मिल पाया था.
पूरी पोस्ट नीचे क्लिक करके पढ़ें.
निर्भीक-आजाद पंछी: कुछ यात्राएँ निराशाजनक भी साबित होती है:
Read More...

क्या गरीब और आम व्यक्ति को इन प्रश्नों का कभी जबाब मिलेगा ?


दोस्तों, मेरी खुली चुनौती है कि-कुछ ऐसे प्रश्न जिनका जबाब किसी राज्य सरकार व मोदी सरकार के साथ ही क्षेत्रीय  पार्षद, विधायक और सांसद से नहीं मिल सकता हैं, क्योंकि यहाँ सब कुछ  गोल-माल या जुगाड़ है.

1. क्या दिल्ली में उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी नगर निगम और दिल्ली पुलिस (क्षेत्रीय थाना) को बिना रिश्वत दिए अपना मकान बनाना संभव है ? यदि हाँ  तो कैसे ?

 

2. यदि किसी गरीब और आम व्यक्ति की अपने क्षेत्रीय पार्षद, विधायक और सांसद से कोई जान-पहचान या अन्य किसी के द्वारा सम्पर्क (जुगाड़ या सिफारिश) नहीं है तो क्या वो व्यक्ति अपना मकान (निर्माण कार्य) नहीं बना सकता है?

 

3. यदि उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी नगर निगम और दिल्ली पुलिस का कहना है  कि ऐसा कुछ (रिश्वत का लेन-देन) नहीं है तो आज उत्तम नगर सहित पूरी दिल्ली में क्षेत्रीय पार्षद, विधायक और सांसद सहित सभी राजनैतिक पार्टियों के जानकार व्यक्तियों और बिल्डरों द्वारा किया जा रहा निर्माण कैसे हो रहा है?

 

4. यदि आप अगर नीचे से लेकर ऊपर तक उनका मुंह मीठा (रिश्वत का लेन-देन) न करवाओ तो क्या आपके मकान को गिरा दिया जाता है या निर्माण कार्य बंद नहीं  करवा दिया जाता है?

 

5. क्या पूरी दिल्ली के क्षेत्रीय पार्षद, विधायक और सांसद के साथ ही दिल्ली नगर निगम का कोई अधिकारी इसका जबाब देगा ?

 

यदि हम सूत्रों की बात माने तो पूरे उत्तम नगर के पिनकोड 110059 (जिस में चार विधानसभा का क्षेत्र आता है) में लगभग 2000 मकानों का अवैध निर्माण हो रहा है. इस तरह से पूरी दिल्ली में एक अनुमान के अनुसार लगभग डेढ़ लाख मकानों का निर्माण हो रहा है. सूत्रों का कहना है कि-अपने मकानों का निर्माण करने के लिए आपकी ऊँची पहुँच होनी चाहिए, नहीं तो आप अपना मकान ही बना सकते हैं. अवैध निर्माण कार्यों को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश केवल कागजों पर सिमटकर रह जाते हैं या किसी गरीब व आम व्यक्ति पर ही लागू होते हैं. जो बेचारा अपना पेट काट-काटकर एक-एक पैसा जोड़कर अपने लिए छत बनाने की कोशिश करता है. अपनी राजनीति चमकाने के लिए राजनैतिक पार्टियों को कुछ कालोनियां अवैध नजर आती है और उनके लिए विकास कार्य अवैध नजर आते हैं. लेकिन जब इनको वहां से वोट लेनी होती है तब उन अवैध कालोनियों में रहने वालों की वोट क्यों नहीं अवैध दिखती हैं ?

दोस्तों, मैं तो अपने क्षेत्र के सांसद, विधायक, चारों पार्षद से पूछ रहा हूँ. देखते हैं क्या कोई जबाब मिलेगा या नहीं ? आप भी पूछे (जब मौत एक दिन आनी है फिर डर कैसा? सौ दिन घुट-घुटकर मरने से तो एक दिन शान से जीना कहीं बेहतर है. मेरा बस यहीं कहना है कि-आप आये हो, एक दिन लौटना भी होगा. फिर क्यों नहीं तुम ऐसा करो कि तुम्हारे अच्छे कर्मों के कारण तुम्हें पूरी दुनिया हमेशा याद रखें. धन-दौलत कमाना कोई बड़ी बात नहीं, पुण्य कर्म कमाना ही बड़ी बात है) और यदि इस पोस्ट का विषय सही लगा हो तो इस पोस्ट को शेयर करें.                                                                                             

(पार्षद-अंजू गुप्ता, मोहन गार्डन, वार्ड नं. 125)

 (पार्षद-नरेश बाल्यान, नवादा, वार्ड नं. 126)

(पार्षद-शिवाली शर्मा, उत्तम नगर, वार्ड नं. 127)

 (पार्षद-देशराज राघव, बिंदापुर, वार्ड नं. 128)




Read More...

नरेन्द्र भाई मोदी का प्रधानमंत्री बनना भारत में आए बड़े बदलाव का प्रमाण

कल 26 मई 2014 को नरेन्द्र भाई मोदी साहब ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उन्हें पिछड़ी जाति का सदस्य माना जाता है। उनका व्यक्तित्व और उनकी विचारधारा जो भी हो लेकिन पिछड़ी जाति के व्यक्ति का प्रधानमंत्री बनना और हज़ारों साल से अपना वर्चस्व बनाए रखने वाली जातियों के सदस्यों का उनके अधीन काम करना एक बड़ा बदलाव है। यह बदलाव एक दिन में और किसी एक व्यक्ति के प्रयास से नहीं आया। 
आदरणीय गौतम बुद्ध ने, महावीर जैन ने, चार्वाक ने और बहुत से दूसरे सुधारकों ने सामाजिक न्याय के लिए वर्ण व्यवस्था को उखाड़ने का काम किया। उनके प्रयासों को विफल करने के लिए वर्ण व्यवस्था के रक्षकों ने उन्हें या तो बेअसर कर दिया या फिर उन्हें अपने अधीन ही कर लिया। जैन-बौद्धों के बेअसर होने के बाद जैसे ही वर्ण व्यवस्था ने अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं, तभी मानव की न्याय चेतना में समानता और आध्यात्मिकता के भाव को पुष्ट करने के लिए भारत में मुसलिम सूफ़ियों का आगमन हो गया। वर्ण व्यवस्था के समाानान्तर इसलाम भी हिन्दुंस्तान में अपनी पकड़ बनाता गया। मुसलिम शासकों की ग़ैर ज़िम्मेदारी और उनकी आपसी लड़ाई झगड़ों ने अंग्रेज़ों को भारत में शासन का अवसर दिया। अंग्रेज़ों ने वर्ण व्यवस्था, छूत-छात और ऊंच-नीच जैसी अमानवीय प्रथाओं को रोकने के लिए गंभीर प्रयास किए और इसके लिए उन्होंने हिन्दू समाज में से ही लोगों को खड़ा किया।
वर्ण व्यवस्था के रक्षक भी इन सुधारकों के प्रयास विफल करने के लिए कमर कस कर खड़े हो गए। स्वामी दयानन्द जी और स्वामी विवेकानन्द जी जैसे बहुत से लोगों ने और हिन्दू रजवाड़ों ने शास्त्रीय वर्ण व्यवस्था की रक्षा के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया लेकिन फिर भी वर्ण व्यवस्था ढह ही गई और ऐसी ढह गई कि वर्ण व्यवस्था के रक्षकों के उत्तराधिकारी अब समता और समरसता के लिए ख़ुशी ख़ुशी काम करते देखे जा सकते हैं। उन्हीं के एकजुट समन्वित प्रयासों के नतीजे में कल पिछड़ी जाति के एक व्यक्ति को सत्ता मिली और वेउसे ख़ुशी ख़ुशाी देखते रहने के लिए मजबूर थे.
भारत में आए इस बड़े बदलाव को देखकर हम भी ख़ुश हैं। वर्ण व्यवस्था ढह चुकी है। अब हरेक जाति का व्यक्ति योग्यता का विकास कर सकता है और अपनी योग्यता से वह सत्ता के किसी भी पद पर पहुंचकर समाज को अपनी सेवाएं दे सकता है। नरेन्द्र भाई मोदी साहब के शपथ ग्रहण को भारत के कायान्तरण के रूप में देखा जाना चाहिए। संकीर्ण सांप्रदायिक तत्व भारत के बदलाव को रोक नहीं सकते, फलतः अब वे इसके साथ बहकर ही कुछ लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं। जो लोग जो कुछ लाभ उठाएंगे, वह सब सामने आता ही रहेगा। ये अपनी चाल चल रहे हैं और ज़माना अपनी चाल चल रहा है और हम साक्षी भाव से दोनों को देख रहे हैं। 
Read More...

वालिद साहब की मौत पर सभी भाई बहनों से दुआ की दरख्वास्त है

कुल्लु नफ्सिन ज़ायक़तुल मौत -आल-क़ुर्'आन
हर जान को मौत का ज़ायक़ा चखना है.
हमारे वालिद जनाब मसूद अनवर ख़ान यूसुफ़ ज़ई साहब का इंतेक़ाल (देहावसान) हो गया है जुमा (26 अप्रैल 2014) और शनिवार (27 अप्रैल 2014)की दरमियानी रात मे 7:25 PM पर. उनकी उम्र तक़रीबन 69 साल थी. सब लोगों से दुआ और इसाले सवाब की दरख्वास्त है. उनकी नमाज़े जनाज़ा असगरिया मदरसा (न्यू बिल्डिंग) में मैने अदा करवाई जिसमे तक़रीबन 500 लोगों ने दुआ ए मगफ़िरत की 27 अप्रैल 2014 को 10:15 अम पर. उनकी तद्फीन हमारे ख़ानदानी क़ब्रिस्तान मे 10:30 AM पर हुई. 
इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैहि राजिऊन.
हम सब अल्लाह के हैं और हमें उसी की तरफ लौट जाना है.
उन्होंने एक अच्छे बाप की सारी ज़िम्मेदारियाँ निभाई हैं. हम अल्लाह का शुक्र अदा करते हैं कि उसने हमें इतना अच्छा बाप दिया जिसने हमें शहज़ादों की तरह पाला और अपनी ताक़त की हद तक कभी किसी चीज़ की कमी महसूस न होने दी. इसी के साथ उन्होंने हमें हक़ीक़ी दुनिया में जिद्दोजहद करना भी सिखाया जो कि बेहतर मुस्तक़बिल के लिये एक लाज़िमी चीज़ है.
अल्लाह हमारे वालिद साहब की मगफ़िरत फ़रमाये और उन्हें अपने दीदार से नवाज़े और हमारे नेक आमाल को उनकी राहत का सामान बनाये.
हम अल्लाह से अल्लाह की रिज़ा चाहते है. हमारे वालिद साहब की तालीमो तरबियत जो उन्होंने अपने बेटे बेटियों को दी है, उसका नफ़ा सारी इंसानियत को पहुंचे. सबको मुहब्बत और अम्नो अमान नसीब हो, जिसके लिये हमारे वालिद साहब ज़िंदगी भर मेहनत करते रहे.

आमीन.

Read More...

भारत की ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ परंपरा-हरि मोहन

लिव इन रिलेशनशिप भारतीय समाज में हमेशा चर्चा का विषय रहा है। सामाजिक रूप से इसे आज भी स्वीकार नहीं किया जाता है। स्त्री का शादी के बगैर पुरुष के साथ रहना सामाजिक दृष्टि से पाप समझा जाता है। घर-परिवार और समाज में लिव इन रिलेशनशिप की बात उठाते ही इसे पश्चिमी देशों की नकल कह कर दरकिनार कर दिया जाता है।

समाजिक ढांचा आज भी यहीं मानता है कि जोड़ियां स्वर्ग से बनकर आती हैं। समाज में गहरी जड़ें जमा चुका यह बह्म सत्य शायद ही कभी टूट पाए! लेकिन, आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भारतीय समाज में लिव इन रिलेशनशिप( सहजीवन) से मिलती-जुलती परंपरा काफी पुराने वक्त से चली आ रही है। यह आज भी उसी रूप में समाज में विद्यमान है।

लिव इन रिलेशनशिप से मिलने-जुलने वाली यह परंपरा राजस्थान में आज भी कायम है। इस प्रथा का नाम है ‘नाता प्रथा’। राजस्थान की इस इस प्रथा के मुताबिक, कोई शादीशुदा पुरुष या महिला अगर किसी दूसरे पुरुष और महिला के साथ  अपनी इच्छा से रहना चाहती है तो वो अपने पति या पत्नी से तलाक लेकर रह सकती है। इसके लिए उन्हें एक निश्चित राशि चुकानी पड़ती है।

इस प्रथा में महिला और पुरुष के बच्चों और दूसरे मुद्दों का निपटारा पंचायत करती है। उन्हीं के निर्णय के हिसाब से तय किया जाता है कि बच्चे किसके साथ रहेंगे। ये इसलिए किया जाता है कि ताकि बाद में महिला या पुरुष के बिच किसी चीज़ को लेकर मतभेद न हो। वो अपनी जिंदगी अपनी पंसद के व्यक्ति या स्त्री के साथ आराम से काट सके।

राजस्थान में इस प्रथा का चलन ब्राह्मण, राजपूत और जैन को छोड़कर बाकी की जातियों में देखा जा सकता है। गुर्जरों में यह परंपरा यहां खासकर लोकप्रिय है। इस प्रथा से यहां के पुरुष और महिलाओं को तलाक के कानूनी झंझटों से छुटकारा तो मिलता ही है साथ  ही में अपनी पसंद का जीवन साथी के साथ रहने का हक भी मिल जाता है।

हालांकि, बदलते वक्त के साथ इस प्रथा में भी कई विसंगतियां आई हैं। इसका स्वरूप भी बदला है। कई बार तो इस प्रथा की आड़ में महिलाओं को दलालों के हाथों बेचने का घिनौना खेल भी खेला जाता है।

कलर्स चैनल के बहुचर्चित सीरियल ‘बालिका वधू’ में भी इस प्रथा को दिखाया गया है। इस नाटक में आनंदी की सहेली फूली का विवाह इसी नाती प्रथा के तहत उसके देवर के साथ होता है। इस नाटक में दिखाया गया है कि कैसे यह नाता प्रथा जो उजड़ चुके लोगों को फिर से सामाजिक रूप में जीवन जीने का अवसर प्रदान करती है।

अगर किसी स्त्री या पुरुष को किसी दूसरे स्त्री या पुरुष से प्यार है तो नाता प्रथा उसके लिए बेहतर विकल्प है। घर वाले अगर किसी लड़की की जबर्दस्ती कहीं और शादी करवा भी देते हैं तो वो लड़की नाता प्रथा का यूज अपने प्रेमी के साथ रहने के लिए कर सकती है।

इसके लिए उसे निश्चित रकम चुकानी पड़ती है। शादी के बाद भी अगर कोई स्त्री किसी दूसरे पुरुष से प्यार करने लगती है और उसके साथ रहना चाहती है तो वो नाता प्रथा के तहत उसके साथ अपनी इच्छा से रह सकती है।
साभार : http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/How-to-choose-candidate-for-the-PM-of-India/entry/%E0%A4%AD-%E0%A4%B0%E0%A4%A4-%E0%A4%95-live-in-relationship-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A4%B01
Read More...

श्री रामचन्द्र जी के साथ यह अन्याय क्यों?-Dr. Anwer Jamal

चाय के ठेले पर विकास पुरूष

के बाद अब एक अहम सवाल
श्री रामचन्द्र जी के साथ यह अन्याय क्यों?
सांप्रदायिक तत्व धर्म के झंडे लेकर चलते हैं लेकिन मक़सद अपने पूरे करते हैं जो कि धर्म के खि़लाफ़ होते हैं। इसीलिए ये धार्मिक सत्पुरूषों को पीछे धकेलते रहते हैं।
राम मंदिर का मुददा गर्माने और भुनाने वाालों ने प्रधानमंत्री पद के लिए रामचन्द्र जी के वंश में से किसी का नाम आगे क्यों नहीं बढ़ाया?
क्या इन सांप्रदायिक तत्वों को श्री रामचन्द्र जी की सन्तान में कोई योग्य व्यक्ति ही नज़र नहीं आया या फिर उन्हें गुमनामी के अंधेरे में धकेलने वाले यही तत्व हैं?
रामकथा के अनुसार सारी धरती मनु को दी गई थाी और इसी उत्तराधिकार क्रम में यह श्री रामचन्द्र जी को मिली थी लेकिन आज उनके उत्तराधिकारी वंशजों के नाम दुनिया वाले तो क्या स्वयं भारत में उनके श्रद्धालु भी नहीं पहचानते।
श्री रामचन्द्र जी के साथ यह अन्याय क्यों?
यही बात मुसलमानों को भी समझ लेनी चाहिए कि उनके लीडर किसी दीनदार आलिम को अपना रहबर क्यों नहीं मान लेते?
इसके पीछे भी यही कारण है कि ये लीडर दीन के मक़सद को नहीं जो कि अमन और भाईचारा है बल्कि अपने लालच को पूरा करने में जुटे हुए हैं।
चुनाव का मौक़ा इन मौक़ापरस्तों को पहचानने का महापर्व होता है। जनता इन्हें अच्छी तरह पहचान रही है।
Read More...

क्या असर लाएंगी ‘यूज़ एंड थ्रो’ के शिकार बुज़ुर्गों की तेज़ाबी बद-दुआएं?

चुनाव की लहर है या यों कहें कि ज़हर की लहर है। हर तरफ़ किसी न किसी नेता का गुणगान किया जा रहा है। इतना भी चलता तो ग़नीमत था। उससे ज़्यादा बुरा यह है कि विरोधी प्रत्याशियों को गालियां दी जा रही हैं, उन्हें पाकिस्तानी एजेन्ट तक बताया जा रहा है। अगर वाक़ई भारत में कोई पाकिस्तानी एजेन्ट चुनाव लड़ रहा होता तो क्या हमारी इन्टेलीजेन्स और चुनाव आयोग उसके खि़लाफ़ कोई कार्रवाई क्यों न करता?
इसका मतलब यह है कि यह एक झूठ है, जिसे नेता पद की गरिमा से गिरकर बोला गया है। झूठ और धोखा किसी धर्म और संस्कृति का अंग नहीं है लेकिन फिर भी चुनाव के दौरान झूठ और धोखेबाज़ी की घटनाएं उफ़ान पर आ जाती हैं। भारत जैसे धार्मिक देश में झूठ और धोखेबाज़ी की ऊंची लहर को देखना उनके लिए कष्टदायक है, जिन्हें देश से प्यार है और जो मानवता को एक और नेक देखना चाहते हैं।
नफ़रत और जातिवादी भावनाएं भड़काकर ख़ून ख़राबा कराने वाले देश के ग़ददारों को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उनकी वजह से देशवासियों का कितना जानोमाल तबाह हुआ। पूंजीपति और सामन्तवादी इनके पुराने आक़ा हैं। ये अपनी छिनी हुई शक्ति को फिर से केवल अपने हाथों में सीमित कर लेना चाहते हैं। अपनी ख़ुदग़र्ज़ी को इन्होंने संस्कृति और राष्ट्रवाद के आवरण से ढक दिया है।
इनका सीधा सा गणित है कि देश का भला चाहने वालों को जाति-धर्म के नाम पर बांट दो। फिर अगड़ों के साथ पिछड़ो को जोड़कर आगे बढ़ो और अपने ही जैसे सत्तालोभियों और दल-बदलुओं से सौदेबाज़ी करके राज्य और केन्द्र की सत्ता क़ब्ज़ा लो। इसके बाद सत्ता की मलाई को समुद्र मंथन में निकले अमृत की तरह अपने आक़ाओं को इकतरफ़ा ही सौंप दो। ब्याजख़ोर पूंजीपति की पूंजी और क़र्ज़ में दबे ग़रीब की ग़रीबी को और बढ़ा दो। तोंद वाले व्यापारियों की हवस के लिए पिचके गाल वाले ग़रीबों का आत्महत्या करना इनके लिए चिंता का विषय नहीं है।
हज़ारों लाखों मासूमों का ख़ून नेता कहलाने वाले इन मुजरिमों के ज़िम्मे है लेकिन हर तरफ़ जनता इनकी जय जयकार कर रही है।
ख़ून ख़राबे के दाग़ी मुल्ज़िमान को चुनावी सभाओं में जनता से सम्मान पाते देखकर यक़ीन हो जाता है कि भारत की जनता आज भी बच्चों जैसी भोली है।
चुनाव के दौरान एक होड़ सी मच जाती है कि भोली जनता को कौन सा नेता कितना ज़्यादा भड़काता है?
कहीं कहीं ये नेता ख़ुद ही भडक जाते हैं, जब इनके प्यादे रहे नेता इनका टिकट रूपी पत्ता ही साफ़ कर देते हैं। अब भुगतो, तुमने ही इन्हें सिखाया है कि राजनीति में केवल अपना फ़ायदा देखो, दूसरों की भावनाएं नहीं। इस चुनाव में अनुभवी बुड्ढ़े अपनी आहत भावनाएं लिए लंगड़ा लंगड़ा कर चलते देखे जा सकते हैं। अपमानित होकर अब ये अपने सम्मान के लिए लड़ते हुए देखे जा सकते हैं। ये पहले जिस दल को जिताने के लिए लड़ते थे अब उसे हराने के लिए खड़े हैं।
जनता के साथ छल करने वाले हरेक नेता को मरने से पहले अपमानित होना ही पड़ेगा। यह प्रकृति का नियम है।
हमें किसी व्यक्ति या पार्टी से सरोकार नहीं है लेकिन आदर और शालीनता के साथ भी अपने विरोधी की आलोचना की जा सकती है। दुनिया के सभ्य देशों में चुनाव में ऐसा ही होता है। भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए बल्कि यहां दूसरे देशों से बढ़कर सभ्यता के दर्शन होने चाहिएं। इसके लिए जनता को संयम से काम लेना चाहिए।
जाति, धर्म और क्षेत्र की भावनाएं भड़काने वाले सांप्रदायिक तत्व देशवासियों का भला नहीं करते। यह एक हक़ीक़त है। जनता को इन्हें अपना नेता कभी नहीं चुनना चाहिए, चाहे ये किसी भी धर्म, जाति और प्रांत के हों।
ये भड़काऊ नेता जहां पैदा होते हैं, वहां इन्होंने अपनी कमाई के पैसे से कोई जनता की भलाई का कोई काम नहीं किया होता है। इसीलिए ये दूसरे अजनबी इलाक़ों से खड़े होकर चुनाव लड़ते हैं। पूंजीपति माफ़िया इनके लिए अपना धन ख़र्च करते हैं। जिसे बाद में वे सूद समेत वुसूल करते रहते हैं। सत्ता इस दल की बने या उस दल की, इनके माल में अरबों खरबों रूपये का इज़ाफ़ा होना ही है और पिसना ग़रीब जनता को है। इसलिए वोट देते समय निजी फ़ायदे और जाति-धर्म को न देखकर चुनाव में खड़े उम्मीदवार के कैरेक्टर को ज़रूर देख लें कि उस कोई दाग़ तो नहीं लगा है।
जनता ही आपस में एक दूसरे के काम आती आई है और आती रहेगी। देश की जनता को आपसी एकता को चुनाव के नाज़ुक दौर में बचाकर रखने की ज़रूरत आम दिनों से कहीं ज़्यादा है। पहर भर की लहर है, उसके बाद ये भी ऐसे ही ‘यूज़ एंड थ्रो’ के शिकार हो जाएंगे जैसे कि आज उनके बुज़ुर्ग हो रहे हैं। अपने बड़ों की बद-दुआएं लेकर ये कभी फल नहीं सकते और उनके बड़े उन्हें बद-दुआओं के सिवा कुछ और दे नहीं सकते। वे भी वही बांट रहे हैं जो कि उन्हें मिला है।

Read More...

सामाजिक रुढिवाद की देन है हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष-Jagadishwar Chaturvedi


इस्लामिक दर्शन और धर्म की परंपराओं के बारे में घृणा के माहौल को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है मुसलमानों और इस्लाम धर्म के प्रति अलगाव को दूर किया जाए। मुसलमानों को दोस्त बनाया जाए। उनके साथ रोटी-बेटी के संबंध स्थापित किए जाएं। उन्हें अछूत न समझा जाए। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को निर्मित करने लिए जमीनी स्तर पर विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों के बीच में सांस्कृतिक -सामाजिक आदान-प्रदान पर जोर दिया जाए। अन्तर्धार्मिक समारोहों के आयोजन किए जाएं। मुसलमानों और हिन्दुओं में व्याप्त सामाजिक अलगाव को दूर करने के लिए आपसी मेलजोल,प्रेम-मुहब्बत पर जोर दिया जाए। इससे समाज का सांस्कृतिक खोखलापन दूर होगा,रूढ़िवाद टूटेगा और सामाजिक परायापन घटेगा।
भारत में करोड़ों मुसलमान रहते हैं लेकिन गैर मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम कि मुसलमान कैसे रहते हैं,कैसे खाते हैं, उनकी क्या मान्यताएं, रीति-रिवाज हैं। अधिकांश लोगों को मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना मालूम है कि दूसरे वे धर्म के मानने वाले हैं । उन्हें जानने से हमें क्या लाभ है। इस मानसिकता ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सामाजिक अंतराल को बढ़ाया है। इस अंतराल ने संशय,घृणा और बेगानेपन को पुख्ता किया है।
मुसलमानों के बारे में एक मिथ है कि उनका खान-पान और हमारा खान-पान अलग है, उनका धर्म और हमारा धर्म अलग है। वे मांस खाते हैं, गौ मांस खाते हैं। इसलिए वे हमारे दोस्त नहीं हो सकते। मजेदार बात यह है कि ये सारी दिमागी गड़बड़ियां कारपोरेट संस्कृति उद्योग के प्रचार के गर्भ से पैदा हुई हैं।
सच यह है कि मांस अनेक हिन्दू भी खाते हैं,गाय का मांस सारा यूरोप खाता है। मैकडोनाल्ड और ऐसी दूसरी विश्वव्यापी खाद्य कंपनियां हमारे शहरों में वे ही लोग लेकर आए हैं जो यहां पर बड़े पैमाने पर मुसलमानों से मेलजोल का विरोध करते हैं। मीडिया के प्रचार की खूबी है कि उसने मैकडोनाल्ड का मांस बेचना, उसकी दुकान में मांस खाना, यहां तक कि गौमांस खाना तो पवित्र बना दिया है, लेकिन मुसलमान यदि ऐसा करता है तो वह पापी है,शैतान है ,हिन्दू धर्म विरोधी है।
आश्चर्य की बात है जिन्हें पराएपन के कारण मुसलमानों से परहेज है उन्हें पराए देश की बनी वस्तुओं, खाद्य पदार्थों , पश्चिमी रहन-सहन,वेशभूषा, जीवनशैली आदि से कोई परहेज नहीं है। यानी जो मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फैलाते हैं वे पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अंधभक्तों की तरह प्रचार करते रहते हैं। उस समय उन्हें अपना देश,अपनी संस्कृति,देशी दुकानदार,देशी माल,देशी खानपान आदि कुछ भी नजर नहीं आता। अनेक अवसरों पर यह भी देखा गया है कि मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाने वाले पढ़े लिखे लोग ऐसी बेतुकी बातें करते हैं जिन्हें सुनकर आश्चर्य होता है। वे कहते हैं मुसलमान कट्टर होता है। रूढ़िवादी होता है। भारत की परंपरा और संस्कृति में मुसलमान कभी घुलमिल नहीं पाए,वे विदेशी हैं।
मुसलमानों में कट्टरपंथी लोग यह प्रचार करते हैं कि मुसलमान तो भारत के विजेता रहे हैं।वे मुहम्मद बिन कासिम,मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी की संतान हैं। उनकी संस्कृति का स्रोत ईरान और अरब में है। उसका भारत की संस्कृति और सभ्यता के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन सच यह नहीं है।
सच यह है कि 15वीं शताब्दी से लेकर आज तक भारत के सांस्कृतिक -राजनीतिक-आर्थिक निर्माण में मुसलमानों की सक्रिय भूमिका रही है। पन्द्रहवीं से लेकर 18वीं शताब्दी तक उत्तरभारत की प्रत्येक भाषा में मुसलमानों ने शानदार साहित्य रचा है। भारत में तुर्क,पठान अरब आदि जातीयताओं से आने शासकों को अपनी मातृभाषा की भारत में जरूरत ही नहीं पड़ी,वे भारत में जहां पर भी गए उन्होंने वहां की भाषा सीखी और स्थानीय संस्कृति को अपनाया। स्थानीय भाषा में साहित्य रचा। अपनी संस्कृति और सभ्यता को छोड़कर यहीं के होकर रह गए। लेकिन जो यहां के रहने वाले थे और जिन्होंने अपना धर्म बदल लिया था उनको अपनी भाषा बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जो बाहर से आए थे वे स्थानीय भाषा और संस्कृति का हिस्सा बनकर रह गए।
हिन्दी आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है मुसलमानों के रचे साहित्य की एक विशेषता धार्मिक कट्टरता की आलोचना, हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता,हिन्दू देवताओं की महिमा का वर्णन है। दूसरी विशेषता यहाँ की लोक संस्कृति,उत्सवों-त्यौहारों आदि का वर्णन है। तीसरी विशेषता सूफी-मत का प्रभाव और वेदान्त से उनकी विचारधारा का सामीप्य है।
उल्लेखनीय है दिल्ली सल्तनत की भाषा फारसी थी लेकिन मुसलमान कवियों की भाषाएँ भारत की प्रादेशिक भाषाएँ थीं। अकबर से लेकर औरंगजेब तक कट्टरपंथी मुल्लाओं ने सूफियों का जमकर विरोध किया। औरंगजेब के जमाने में उनका यह प्रयास सफल रहा और साहित्य और जीवन से सूफी गायब होने लगे। फारसीयत का जोर बढ़ा। 
भारत में ऐसी ताकतें हैं जो मुसलमानों को गुलाम बनाकर रखने ,उन्हें दोयमदर्जे का नागरिक बनाकर रखने में हिन्दू धर्म का गौरव समझती हैं। ऐसे संगठन भी हैं जो मुसलमानों के प्रति अहर्निश घृणा फैलाते रहते हैं। इन संगठनों के सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव का ही दुष्परिणाम है कि आज मुसलमान भारत में अपने को उपेक्षित,पराया और असुरक्षित महसूस करते हैं।
जिस तरह हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन सक्रिय हैं वैसे ही मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन भी सक्रिय हैं। ये एक ही किस्म की विचारधारा यानी साम्प्रदायिकता के दो रंग हैं।
हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को नष्ट करने के लिए जो रास्ता सुझाया है वह क़ाबिले ग़ौर । उन्होंने लिखा-‘‘ भारतवर्ष में जो सबसे बड़ी दुर्बलता है ,वह शिक्षा की है। हिन्दुओं और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों के उत्कर्ष का पूर्ण रीति से ज्ञान कराया जाय। परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों शरीक हों,दोनों एक-दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें। फिर जिस तरह भाषा में मुसलमानों के चिह्न रह गए हैं और उन्हें अपना कहते हुए अब किसी हिन्दू को संकोच नहीं होता, उसी तरह मुसलमानों को भी आगे चलकर एक ही ज्ञान से प्रसूत समझकर अपने ही शरीर का एक अंग कहते हुए हिन्दुओं को संकोच न होगा। इसके बिना,दृढ़ बंधुत्व के बिना ,दोनों की गुलामी के पाश नहीं कट सकते,खासकर ऐसे समय ,जबकि फूट डालना शासन का प्रधान सूत्र है।’’ 
भारत में मुसलमान विरोध का सामाजिक और वैचारिक आधार है जातिप्रथा,वर्णाश्रम व्यवस्था। इसी के गर्भ से खोखली भारतीयता का जन्म हुआ है जिसे अनेक हिन्दुत्ववादी संगठन प्रचारित करते रहते हैं। जातिप्रथा के बने रहने के कारण धार्मिक रूढ़ियां और धार्मिक विद्वेष भी बना हुआ है।
भारत में धार्मिक विद्वेष का आधार है सामाजिक रूढ़ियाँ। इसके कारण हिन्दू और मुसलमानों दोनों में ही सामाजिक रूढ़ियों को किसी न किसी शक्ल में बनाए रखने पर कट्टरपंथी लोग जोर दे रहे हैं। इसके कारण हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष बढ़ा है। सामाजिक एकता और भाईचारा टूटा है। हिन्दू-मुसलमान एक हों इसके लिए जरूरी है धार्मिक -सामाजिक रूढ़ियों का दोनों ही समुदाय अपने स्तर पर यहां विरोध करें।
हिन्दू-मुस्लिम समस्या हमारी पराधीनता की समस्या है। अंग्रेजी शासन इसे हमें विरासत में दे गया है। इस प्रसंग में निराला ने बड़ी मार्के की बात कही है। निराला का मानना है हिन्दू मुसलमानों के हाथ का छुआ पानी पिएं,पहले यह प्राथमिक साधारण व्यवहार जारी करना चाहिए। इसके बाद एकीकरण के दूसरे प्रश्न हल होंगे।
निराला के शब्दों में हिन्दू-मुसलमानों में एकता पैदा करने के लिए इन समुदायों को ‘‘वर्तमान वैज्ञानिकों की तरह विचारों की ऊँची भूमि’’ पर ले जाने की जरूरत है। इससे ही वे सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त होंगे। 

Jagadishwar Chaturvedi

: साभार फ़ेसबुक


Read More...

Read Qur'an in Hindi

Read Qur'an in Hindi
Translation

Followers

Wievers

join india

गर्मियों की छुट्टियां

अनवर भाई आपकी गर्मियों की छुट्टियों की दास्तान पढ़ कर हमें आपकी किस्मत से रश्क हो रहा है...ऐसे बचपन का सपना तो हर बच्चा देखता है लेकिन उसके सच होने का नसीब आप जैसे किसी किसी को ही होता है...बहुत दिलचस्प वाकये बयां किये हैं आपने...मजा आ गया. - नीरज गोस्वामी

Check Page Rank of your blog

This page rank checking tool is powered by Page Rank Checker service

Promote Your Blog

Hindu Rituals and Practices

Technical Help

  • - कहीं भी अपनी भाषा में टंकण (Typing) करें - Google Input Toolsप्रयोगकर्ता को मात्र अंग्रेजी वर्णों में लिखना है जिसप्रकार से वह शब्द बोला जाता है और गूगल इन...
    11 years ago

हिन्दी लिखने के लिए

Transliteration by Microsoft

Host

Host
Prerna Argal, Host : Bloggers' Meet Weekly, प्रत्येक सोमवार
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Popular Posts Weekly

Popular Posts

हिंदी ब्लॉगिंग गाइड Hindi Blogging Guide

हिंदी ब्लॉगिंग गाइड Hindi Blogging Guide
नए ब्लॉगर मैदान में आएंगे तो हिंदी ब्लॉगिंग को एक नई ऊर्जा मिलेगी।
Powered by Blogger.
 
Copyright (c) 2010 प्यारी माँ. All rights reserved.