बेचारे अन्ना बुरे फंस गए। संसदीय प्रक्रिया को वो समझते नहीं और उनकी टीम में जो लोग समझते हैं, उनसे सरकार बात ही नहीं करना चाहती। वैसे तो मेरे पिछले लेख को आप पढें तो मैने साफ कर दिया था कि जिस तरह से ये आंदोलन चलाया जा रहा है, उससे अन्ना को कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। अन्ना रामराज्य की बात कर रहे हैं, वो देश को पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त करने चाहते हैं, लेकिन ये काम जिसे करना है, वो दागदार है। ऐसे में उनसे ज्यादा उम्मीद करनी ही नहीं चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे सिविल सोसायटी में अगर अन्ना को छोड़ दें तो बाकी लोगों का दामन भी साफ है, ये पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता। जहां से आंदोलन शुरु हुआ था, हम वही आज भी वहीं खडे हैं, ये चर्चा पूरी तरह बेमानी है। इसका बिल ड्राप्ट होने में कोई महत्व नहीं है।
बाकी बातें हम बाद में करते रहेंगे, आज बिना भूमिका के मैं ये समझाने की कोशिश करुंगा कि सरकार कैसे मूर्ख बना रही है अन्ना को। अन्ना जी चाहते थे उनके जनलोकपाल बिल को तत्काल संसद में पेश किया जाए, और ना सिर्फ पेश किया जाए, बल्कि उसे पास करके कानून बनाया जाए। इस मामले में सरकार ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि एक बिल इस मामले में पेश किया जा चुका है और वो स्थाई समिति के पास है, लिहाजा दूसरा बिल पेश नहीं किया जा सकता। लेकिन ये बात अन्ना टीम को समझ में नहीं आई, फिर सरकार ने माथापच्ची शुरू की।
कई दौर की बातचीत के बाद तय हुआ कि उनके बिल के कुछ खास बिंदुओं को एक प्रस्ताव के रुप में संसद में रखा जाएगा और इस पर चर्चा की जाएगी। अब पेच फंसा कि संसद में किस नियम के तहत ये चर्चा की जाए। सरकार नियम 193 के तहत चर्चा चाहती थी, जिसमें चर्चा के बाद कोई वोटिंग नहीं होती है, सिर्फ एक प्रस्ताव तैयार होता है। विपक्ष इस पर नियम 184 के तरह चर्चा चाहता था, जिसमें चर्चा के बाद वोटिंग होती है, इसके बाद प्रस्ताव स्थाई समिति को भेजा जा सकता है। इस बात को लेकर सरकार और विपक्ष में ठन गई और कहा गया कि ये चर्चा किसी नियम के तहत नहीं होगी। सरकार के मंत्री एक प्रस्ताव लाएंगे और उसी के आधार पर एक प्रस्ताव काम मजमून अन्ना के पास भेज कर उनसे अनशन खत्म करने का आग्रह किया जाएगा। आपको बता दूं कि ऐसी चर्चा आमतौर पर संसद के नियम 342 के तहत होती है, जिसमें संसद की भावना क्या है, इसकी जानकारी की जाती है।
यहां यह बताना जरूरी है कि जब किसी मसले पर एक बिल संसद में पेश किया जा चुका हो, तो उस पर संसद में किसी तरह की चर्चा नहीं की जा सकती। इससे स्थाई समिति जो एक संवैधानिक संस्था है, उसकी गरिमा गिरती है। गरिमा को छोड भी दें तो ऐसे प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि बिल को अंतिम रूप देने का अधिकार स्थाई समिति को ही है। बहरहाल इस चर्चा से इतना साफ हो गया है कि ज्यादातर लोग जनलोकपाल बिल का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन प्रस्ताव का समर्थन करने का यह मतलब कत्तई नहीं की, ये लोकपाल बिल का भी समर्थन करेंगे। यहां एक लाइन मे लालू का जिक्र करना जरूरी है, जो स्थाई समिति के सदस्य हैं। उनका साफ कहना है कि सभी दल संविधान के तहत काम करने की बात कर रहे हैं, लेकिन संविधान के तहत तो यह चर्चा ही नहीं हो सकती।
वैसे सरकार और सिविल सोसायटी दोनों ही जानते हैं कि इस चर्चा का कोई मतलब नहीं है। स्थाई समिति में इससे जु़डे चार बिल और हैं, इसलिए समिति को सभी बिलों को चर्चा के लिए सामने रखना होगा। इसके अलावा स्थाई समिति में आम आदमी भी अपना सुझाव दे सकता है। यहां सभी सुझावों पर गुण दोष के आधार पर फैसला होता है। ऐसे में सदन में की ये चर्चा सिर्फ समय की बर्बादी भर है, इसका कोई मायने नहीं है।
इससे जुडे कुछ और मसलों पर के बारे में आपको बताना चाहता हूं। दरअसल सरकार में शामिल कुछ लोग सरकार के खिलाफ काम कर रहे हैं। इसकी वजह भी आपको मालूम होनी चाहिए। आपको पता है कि सोनिया गांधी गंभीर रुप से बीमार हैं और अमेरिका में इलाज करा रही हैं। जानकार कहते हैं कि तीन चार महीने वो पार्टी के काम में सक्रिय नहीं रह सकती। अपनी अनुपस्थिति में पार्टी का कामकाज चलाने के लिए उन्होंने एक चार सदस्यीय कमेटी बनाई। इसमे राहुल गांधी, जनार्दन द्विवेदी, अहमद पटेल और ए के एंटोनी को शामिल किया है। इस टीम को लेकर सरकार और पार्टी में शामिल तमाम नेता पार्टी से सख्त नाराज हैं।
अन्ना ने जब आंदोलन की धमकी दी तो पहले ही बातचीत करके मसले का कुछ हल निकाला जा सकता था। लेकिन सोनिया की बनाई टीम को लोग उसकी औकात बताना चाहते थे, लिहाजा किसी ने कोई पहल ही नहीं की। जो कोई आगे आया भी तो वो बाबा रामदेव के तर्ज पर अन्ना से भी निपटने का सुझाव देते रहे। वो ऐसे सुझाव देते रहे, जिससे सरकार की किरकिरी हो। इसी के तहत पहले अन्ना को गिरफ्तार कराया गया, सरकार की किरकिरी हुई, फिर अन्ना को छोडने का फरमान सुनाया गया तो सरकार की किरकिरी हुई, अन्ना ने जेल से बाहर आने से इनकार कर दिया, फिर सरकार की किरकिरी हुई। अनशन के लिए जगह देने में जिस तरह का ड्राम सरकार की ओर से किया गया, उससे भी सरकार की किरकिरी हुई। अब सरकार ने संसद में इस मामले में पूरे दिन चर्चा की, लेकिन बिना किसी नियम के हुई इस चर्चा से वो किसे बेवकूफ बना रहे हैं। ये समझ से परे है। सरकार में तो आपस में मतभेद और संवादहीनता रही है है, टीम अन्ना सही तरह से आंदोलन चलाने में नाकाम रही है।
बेचारे अन्ना की अंग्रेजी जानते नहीं और हिंदी कम समझते हैं। टीम अन्ना के सदस्य उन्हें जिस तरह से बात समझाते हैं, वो उन्हें समझ में ही नहीं आती। कई बार देखा गया है कि मंत्रियों से बात कुछ हुई और रामलीला मैदान तक पहुंचते पहुंचते बात कुछ और हो जाती है। हालत ये हुई कि सरकार को अन्ना के नुमाइंदों से किनारा करना पडा और एक ऐसे मंत्री को अन्ना से बात करने की जिम्मेदारी दी गई जो महाराष्ट्र से आते हैं। जिससे अन्ना से सीधे मराठी में बात करके उन्हें समझाया जा सके और उनके चंगू मंगू को दूर किया जा सके। बहरहाल सरकार को ये काम पहले करना चाहिए था, जो उसने बाद में किया। वैसे भी अन्ना की टीम से दो महत्वपूर्ण सदस्य खासे नाराज हैं और वो यहां से जा चुके हैं।
बहरहाल अब अन्ना को एक प्रस्ताव थमाने की तैयारी है और हो सकता है वो अपना अनशन भी समाप्त कर दें। लेकिन मित्रों अन्ना को तीन दिन त उनकी टीम ने सिर्फ अपनी "फेस सेविंग" के लिए भूखा रखा। अन्ना को उस दिन ग्रेसफुल तरीके से अपना अनशन खत्म कर देना चाहिए था, जिस दिन संसद ने उनसे अपील की थी। लेकिन जिस संसद से उन्हें अपने बिल की उम्मीद है, उसकी गरिमा को अन्ना ने तार तार कर दिया।
आज मैं पूछना चाहता हूं अन्ना के नुमाइंदों से उस दिन और आज में अनशन तोडने मे क्या फर्क है। क्या कुछ नया हासिल कर लिया आपने। बिना किसी नियम के हुई इस चर्चा के बाद ये मसला भी स्थाई समिति में ही जाएगा। वहीं से इस बिल को ड्राफ्ट किया जाएगा। अगर बिल को स्थाई समिति से ही ड्राफ्ट होना था, तो ये बात तो प्रधानमंत्री बहुत पहले ही कह चुके थे , आप खुद उनसे मिल कर अपना बिल सौंप चुके थे। फिर इतने दिन अनशन से क्या हासिल हुआ। लेकिन हां आपकी टीम ने बहुत कुछ हासिल किया है, इन्हें कोई नहीं जानता था, अब इन लोगों की इतनी पहचान हो गई है कि वो चुनाव लड़ सकते हैं। अन्ना जी प्लीज अबकी बार आंदोलन शुरु कीजिए, तो पहले जान लीजिए कि हम किसलिए आंदोलन कर रहे हैं, और कहां तक बात माने जाने पर समझौता कर सकते हैं। ये दिल्ली है अन्ना जी और दिल्ली अभी भी आमआदमी से बहुत दूर है।
बाकी बातें हम बाद में करते रहेंगे, आज बिना भूमिका के मैं ये समझाने की कोशिश करुंगा कि सरकार कैसे मूर्ख बना रही है अन्ना को। अन्ना जी चाहते थे उनके जनलोकपाल बिल को तत्काल संसद में पेश किया जाए, और ना सिर्फ पेश किया जाए, बल्कि उसे पास करके कानून बनाया जाए। इस मामले में सरकार ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि एक बिल इस मामले में पेश किया जा चुका है और वो स्थाई समिति के पास है, लिहाजा दूसरा बिल पेश नहीं किया जा सकता। लेकिन ये बात अन्ना टीम को समझ में नहीं आई, फिर सरकार ने माथापच्ची शुरू की।
कई दौर की बातचीत के बाद तय हुआ कि उनके बिल के कुछ खास बिंदुओं को एक प्रस्ताव के रुप में संसद में रखा जाएगा और इस पर चर्चा की जाएगी। अब पेच फंसा कि संसद में किस नियम के तहत ये चर्चा की जाए। सरकार नियम 193 के तहत चर्चा चाहती थी, जिसमें चर्चा के बाद कोई वोटिंग नहीं होती है, सिर्फ एक प्रस्ताव तैयार होता है। विपक्ष इस पर नियम 184 के तरह चर्चा चाहता था, जिसमें चर्चा के बाद वोटिंग होती है, इसके बाद प्रस्ताव स्थाई समिति को भेजा जा सकता है। इस बात को लेकर सरकार और विपक्ष में ठन गई और कहा गया कि ये चर्चा किसी नियम के तहत नहीं होगी। सरकार के मंत्री एक प्रस्ताव लाएंगे और उसी के आधार पर एक प्रस्ताव काम मजमून अन्ना के पास भेज कर उनसे अनशन खत्म करने का आग्रह किया जाएगा। आपको बता दूं कि ऐसी चर्चा आमतौर पर संसद के नियम 342 के तहत होती है, जिसमें संसद की भावना क्या है, इसकी जानकारी की जाती है।
यहां यह बताना जरूरी है कि जब किसी मसले पर एक बिल संसद में पेश किया जा चुका हो, तो उस पर संसद में किसी तरह की चर्चा नहीं की जा सकती। इससे स्थाई समिति जो एक संवैधानिक संस्था है, उसकी गरिमा गिरती है। गरिमा को छोड भी दें तो ऐसे प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि बिल को अंतिम रूप देने का अधिकार स्थाई समिति को ही है। बहरहाल इस चर्चा से इतना साफ हो गया है कि ज्यादातर लोग जनलोकपाल बिल का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन प्रस्ताव का समर्थन करने का यह मतलब कत्तई नहीं की, ये लोकपाल बिल का भी समर्थन करेंगे। यहां एक लाइन मे लालू का जिक्र करना जरूरी है, जो स्थाई समिति के सदस्य हैं। उनका साफ कहना है कि सभी दल संविधान के तहत काम करने की बात कर रहे हैं, लेकिन संविधान के तहत तो यह चर्चा ही नहीं हो सकती।
वैसे सरकार और सिविल सोसायटी दोनों ही जानते हैं कि इस चर्चा का कोई मतलब नहीं है। स्थाई समिति में इससे जु़डे चार बिल और हैं, इसलिए समिति को सभी बिलों को चर्चा के लिए सामने रखना होगा। इसके अलावा स्थाई समिति में आम आदमी भी अपना सुझाव दे सकता है। यहां सभी सुझावों पर गुण दोष के आधार पर फैसला होता है। ऐसे में सदन में की ये चर्चा सिर्फ समय की बर्बादी भर है, इसका कोई मायने नहीं है।
इससे जुडे कुछ और मसलों पर के बारे में आपको बताना चाहता हूं। दरअसल सरकार में शामिल कुछ लोग सरकार के खिलाफ काम कर रहे हैं। इसकी वजह भी आपको मालूम होनी चाहिए। आपको पता है कि सोनिया गांधी गंभीर रुप से बीमार हैं और अमेरिका में इलाज करा रही हैं। जानकार कहते हैं कि तीन चार महीने वो पार्टी के काम में सक्रिय नहीं रह सकती। अपनी अनुपस्थिति में पार्टी का कामकाज चलाने के लिए उन्होंने एक चार सदस्यीय कमेटी बनाई। इसमे राहुल गांधी, जनार्दन द्विवेदी, अहमद पटेल और ए के एंटोनी को शामिल किया है। इस टीम को लेकर सरकार और पार्टी में शामिल तमाम नेता पार्टी से सख्त नाराज हैं।
अन्ना ने जब आंदोलन की धमकी दी तो पहले ही बातचीत करके मसले का कुछ हल निकाला जा सकता था। लेकिन सोनिया की बनाई टीम को लोग उसकी औकात बताना चाहते थे, लिहाजा किसी ने कोई पहल ही नहीं की। जो कोई आगे आया भी तो वो बाबा रामदेव के तर्ज पर अन्ना से भी निपटने का सुझाव देते रहे। वो ऐसे सुझाव देते रहे, जिससे सरकार की किरकिरी हो। इसी के तहत पहले अन्ना को गिरफ्तार कराया गया, सरकार की किरकिरी हुई, फिर अन्ना को छोडने का फरमान सुनाया गया तो सरकार की किरकिरी हुई, अन्ना ने जेल से बाहर आने से इनकार कर दिया, फिर सरकार की किरकिरी हुई। अनशन के लिए जगह देने में जिस तरह का ड्राम सरकार की ओर से किया गया, उससे भी सरकार की किरकिरी हुई। अब सरकार ने संसद में इस मामले में पूरे दिन चर्चा की, लेकिन बिना किसी नियम के हुई इस चर्चा से वो किसे बेवकूफ बना रहे हैं। ये समझ से परे है। सरकार में तो आपस में मतभेद और संवादहीनता रही है है, टीम अन्ना सही तरह से आंदोलन चलाने में नाकाम रही है।
बेचारे अन्ना की अंग्रेजी जानते नहीं और हिंदी कम समझते हैं। टीम अन्ना के सदस्य उन्हें जिस तरह से बात समझाते हैं, वो उन्हें समझ में ही नहीं आती। कई बार देखा गया है कि मंत्रियों से बात कुछ हुई और रामलीला मैदान तक पहुंचते पहुंचते बात कुछ और हो जाती है। हालत ये हुई कि सरकार को अन्ना के नुमाइंदों से किनारा करना पडा और एक ऐसे मंत्री को अन्ना से बात करने की जिम्मेदारी दी गई जो महाराष्ट्र से आते हैं। जिससे अन्ना से सीधे मराठी में बात करके उन्हें समझाया जा सके और उनके चंगू मंगू को दूर किया जा सके। बहरहाल सरकार को ये काम पहले करना चाहिए था, जो उसने बाद में किया। वैसे भी अन्ना की टीम से दो महत्वपूर्ण सदस्य खासे नाराज हैं और वो यहां से जा चुके हैं।
बहरहाल अब अन्ना को एक प्रस्ताव थमाने की तैयारी है और हो सकता है वो अपना अनशन भी समाप्त कर दें। लेकिन मित्रों अन्ना को तीन दिन त उनकी टीम ने सिर्फ अपनी "फेस सेविंग" के लिए भूखा रखा। अन्ना को उस दिन ग्रेसफुल तरीके से अपना अनशन खत्म कर देना चाहिए था, जिस दिन संसद ने उनसे अपील की थी। लेकिन जिस संसद से उन्हें अपने बिल की उम्मीद है, उसकी गरिमा को अन्ना ने तार तार कर दिया।
आज मैं पूछना चाहता हूं अन्ना के नुमाइंदों से उस दिन और आज में अनशन तोडने मे क्या फर्क है। क्या कुछ नया हासिल कर लिया आपने। बिना किसी नियम के हुई इस चर्चा के बाद ये मसला भी स्थाई समिति में ही जाएगा। वहीं से इस बिल को ड्राफ्ट किया जाएगा। अगर बिल को स्थाई समिति से ही ड्राफ्ट होना था, तो ये बात तो प्रधानमंत्री बहुत पहले ही कह चुके थे , आप खुद उनसे मिल कर अपना बिल सौंप चुके थे। फिर इतने दिन अनशन से क्या हासिल हुआ। लेकिन हां आपकी टीम ने बहुत कुछ हासिल किया है, इन्हें कोई नहीं जानता था, अब इन लोगों की इतनी पहचान हो गई है कि वो चुनाव लड़ सकते हैं। अन्ना जी प्लीज अबकी बार आंदोलन शुरु कीजिए, तो पहले जान लीजिए कि हम किसलिए आंदोलन कर रहे हैं, और कहां तक बात माने जाने पर समझौता कर सकते हैं। ये दिल्ली है अन्ना जी और दिल्ली अभी भी आमआदमी से बहुत दूर है।
5 comments:
बहुत फर्ख है महेंद्र जी ...आप नहीं समझ पायेंगे...
उम्र का फर्क है, इसलिए जाहिर है कि आपको ज्यादा पता होगा।
डा. श्याम जी, अभी मैने अपने मोबाइल पर आपका एक कमेंट पढा है। मैं हैरान हूं आपकी भाषा से। आप मेरे लेख बिल्कुल ना पढे, लेकिन ये जरूर कहूंगा कि भाषा की मर्यादा का ख्याल जरूर रखिएगा।
बहुत बढ़िया।
जन आन्दोतन की विजय पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
आपके कथन से पुर्णतः सहमत. जो भी बातें आप कहीं है वह गौर करने लायक है.
सरकार ने प्रस्ताव पर वोटिंग न कराकर टीम अन्ना के साथ एक बार फिर छल किया.
संभवतः कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियां नहीं चाहती थीं कि वोटिंग के द्वारा उसे अपना स्टैंड स्पष्ट करना पड़े. वे इस मामले पर भ्रम बनाए रखना चाहती हैं ताकि बाद में अपना रुख बदल सकें
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