मोहनदास कर्मचन्द गांधी को कल हिन्दुस्तानियों ने याद किया। वह एक राष्ट्रवादी नेता थे। 30 जनवरी 1948 को उन्हें नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थी। वह भी एक राष्ट्रवादी था। गांधी और गोडसे दोनों ही राष्ट्रवादी थे लेकिन दोनों में अंतर था। गांधी जी को उदारता, शांति और सकारात्मकता के लिए जाना चाहता है जबकि गोडसे को संकीर्णता, आतंक और नकारात्मकता के लिए।
आज हमारे बीच न गांधी जी हैं और न ही गोडसे लेकिन सकारात्मक और नकारात्मक प्रवृत्ति वाले लोग आज भी हमारे बीच हैं और हम ख़ुद भी इनमें से किसी एक टाइप के इंसान हैं। सकारात्मक और नकारात्मक प्रवृत्ति के बीच संघर्ष और रस्साकशी आज भी जारी है। सकारात्मकता विचारधारा के अंतर को उदारता के साथ स्वीकार करती है और भिन्न मत वालों को उनकी मान्यताओं के साथ जीने का हक़ देती है जबकि नकारात्मकता न अंतर को स्वीकार करती है और न ही विरोध को बर्दाश्त करती है। इसी संकीर्णता की अंतिम परिणति हत्या में होती है। सो नाथूराम गोडसे ने मोहनदास कर्मचन्द गांधी को क़त्ल कर दिया। गांधी जी को आज भी दुनिया उनके विचारों के कारण याद करती है। उनके विचार ग़लत हो सकते हैं, तब भी उनसे जीने का हक़ छीन लेना किसी नागरिक के लिए जायज़ नहीं है।
गोडसे को जायज़ ठहराने वाले कुछ लोग भी समाज में पाए जाते हैं लेकिन ये भी उसी की तरह नकारात्मक से भरे हुए लोग हैं। ये बीमार ज़हनियत के लोग हैं। समय आ रहा है जबकि ये भी सबके लिए जीने के हक़ को मान ही लेंगे जैसे कि इन्होंने जातीय पवित्रता और श्रेष्ठता को त्यागकर समानता और समरसता को अपना लिया है। समय अपने तेज़ धारे में बहाए ले जा रहा है और इनके नारे, नेता और नीतियां लगातार बदलती जा रही हैं।
यह सब हम और आप देख ही रहे हैं। फ़िलहाल यह लेख देखिए-
गोडसे को जायज़ ठहराने वाले कुछ लोग भी समाज में पाए जाते हैं लेकिन ये भी उसी की तरह नकारात्मक से भरे हुए लोग हैं। ये बीमार ज़हनियत के लोग हैं। समय आ रहा है जबकि ये भी सबके लिए जीने के हक़ को मान ही लेंगे जैसे कि इन्होंने जातीय पवित्रता और श्रेष्ठता को त्यागकर समानता और समरसता को अपना लिया है। समय अपने तेज़ धारे में बहाए ले जा रहा है और इनके नारे, नेता और नीतियां लगातार बदलती जा रही हैं।
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महात्मा को भूल गई है आज की राजनीति
महात्मा गांधी को लेकर भारतीय समाज और राजनीति ने कई तरह से विमर्श किया है। लेकिन अजीब बात यह है कि भारत की कट्टर सांप्रदायिक राजनीति के दो परस्पर विरोधी ध्रुवों की महात्मा गांधी के बारे में धारणा एक-सी है। दोनों गांधी को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के आखिरी दौर में उन्हें मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन कहा जाने लगा था। पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने तो यहां तक कहा था कि गांधी ने कांग्रेस को हिंदू पुनरोत्थान का औजार बना दिया है। दूसरी तरफ, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के पहले प्रवर्तक वीर सावरकर ने जून 1944 में गांधीजी पर आरोप लगाया कि वह भारत में मुस्लिम राज कायम करना चाहते हैं, भले ही यह अफगान राज हो। सावरकर ने लिखा था- क्या खुद गांधी ने अली बंधुओं के साथ मिलकर पठानों द्वारा अफगानिस्तान पर हमले की साजिश नहीं रची थी? दूसरे हिंदू विचारक बालकृष्ण शिवराज मुंजे ने 1938 में लिखा था- जब से महात्मा का उदय हुआ और उनकी तानाशाही कांग्रेस में बढ़ी है, कांग्रेस ने ऐसा रवैया अपना लिया है, जिसे हिंदुओं के हितों की कीमत पर मुस्लिम समर्थक मानसिकता कहा जा सकता है।
इस सांप्रदायिक वैचारिक ढोल को लगातार पीटने से ही वह माहौल बना, जो असल में गांधीजी की हत्या के लिए जिम्मेदार था। यही बात सम्यक ढंग से सरदार पटेल ने एक पत्र में लिखी थी- उनके (आरएसएस) सारे भाषणों में सांप्रदायिक जहर भरा है और इसी जहरीले वातावरण में एक स्थिति ऐसी बनी, जिससे यह भयानक दुर्घटना (गांधीजी की हत्या) हो सकी। 1947 से पहले मुस्लिम सांप्रदायिकता ने देश की एकता को तोड़ने का निंदनीय प्रयास किया था और आजादी के बाद हिंदू सांप्रदायिकता ने भारतीय राष्ट्रीयता के सामने चुनौतियों के पहाड़ खड़े कर दिए। सांप्रदायिकता का यह जहर वहीं रुका नहीं। गांधीजी की मृत्यु 30 जनवरी, 1948 को हुई थी, पर उनकी आत्मा को तो हमने कई बार छलनी किया। भागलपुर, मलियाना, हाशिमपुरा से लेकर 1992 के बाबरी विध्वंस और 2002 के गुजरात दगों तक इसकी सूची बहुत लंबी है। हाल में हुए मुजफ्फरनगर दंगे के वक्त वहां कोई गांधीवादी नेता विस्थापितों के बीच बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाया, मगर महात्मा गांधी ने आजादी मिलने के तुरंत बाद इसके समारोहों में शामिल होने से जरूरी यह समझा कि नोआखली जाकर दंगों की आग को फैलने से रोका जाए।
गांधी के जाने के बाद उनके सत्याग्रह और आंदोलनों का जैसे चरित्र भी बदल गया। जहां चौरीचौरा में हिंसा के बाद उन्होंने अपना आंदोलन स्थगित कर दिया था, वहीं आज के दौर के आंदोलन और सत्याग्रहों की शुरुआत हिंसा व आक्रामक शैली से हो रही है। गांधी हमेशा साधन और मन की पवित्रता की बात करते थे, महात्मा को सच्ची श्रद्धांजलि इस राह को अपनाना ही है।
- के सी त्यागी, राज्यसभा सदस्य
एक बात यह भी क़ाबिले ग़ौर है कि नाथूराम गोडसे अंग्रेज़ी ड्रेस में है जबकि गांधी जी भारतीय संस्कृति का परिचय देने वाले कपड़ों में खड़े हैं। नाथूराम गोडसे और उसके समर्थकों द्वारा अंग्रेज़ी लिबास पहनकर भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता में विश्वास जताना छल-फ़रेब के सिवा कुछ भी नहीं है। यह धोखा वह दूसरों से ज़्यादा ख़ुद को देते आ रहे हैं और ख़ुद से ख़ुद ही धोखा खाते आ रहे हैं।
12 comments:
----जीने का अधिकार ????....तो फिर शासन ...मृत्यु दंड क्यों देता है.....
--- वस्त्र दोनों के ही छद्म वेश हैं अलग अलग कारणों से...
-----गांधी के विचार उचित हैं परन्तु नीतियाँ सफल नहीं हो पायीं ठीक उसी प्रकार जैसे बुद्ध के उपदेश उचित हैं परन्तु वे चल नहीं पाए ..क्योंकि वे एकान्गी हैं जबकि जीवन द्विविधि होता है जिसमें समन्वय करके चलना होता है ..अतः कृष्ण आज भी प्रासंगिक हैं जबकि बुद्ध व गांधी दोनों ही आज अप्रासंगिक होगये हैं|...
गाँधी के जीवन दर्शन को समझना इतना सरल नहीं है, वे आदर्शवादी थे, साधन और लक्ष्य दोनों की पवित्रता का ध्यान रखने वाले..सुंदर आलेख !
NOT AGREE WITH GUPT JI .BUDDH &GANDHI ARE MORE RELEVANT NOW .WHAT YOUR PLANS ABOUT BLOGGING GUIDE ?
WHAT YOUR PLANS ABOUT BLOGGING GUIDE ?
---- इस का क्या अर्थ व सन्दर्भ ...समझ में नहीं आया...
---- गांधी व बुद्ध का दर्शन एकांगी है...सिर्फ अहिंसा ...जो वास्तविक भारतीय सनातन दर्शन व जीवन व्यवहार का सिर्फ एक अंग है ....
----वास्तविक दर्शन सम्पूर्ण भाव में तो कृष्ण-नीति ही है....जिसमें भारतीय एवं वैश्विक दर्शन का प्रत्येक अंग समाहित है ...
आज कौन बुद्ध व गांधी को पूछ रहा है ? जो दर्शन भारत में प्रादुर्भूत हुआ वहीं उसका नाम निशाँ नहीं रहा .... और कृष्ण वैश्विक हैं, आज भी ...भगवान हैं ..
----गांधी जी का जीवन दर्शन को समझने हेतु कुछ है ही नहीं ...सिर्फ आदर्शवाद जीवन नहीं होता न वह दर्शन होता है ....
---- भला धनाढ्य नेहरू जी से प्रत्येक प्रकार की सहायता लेने वाले, बिरला भवन व आनंद भवन में ठहरने वाले, कार में चलने वाले एवं अंतिम समय पर देश के बंटवारे को स्वीकार करने वाले गांधी साधन से आदर्श कैसे हो गए....
--यदि गांधी प्रासंगिक हैं तो इसी आलेख में यह क्यों लिखा गया कि..
'महात्मा को भूल गई है आज की राजनीति'
---- सारा आलेख एक विशेष दृष्टिकोण से लिखा गया है ...जिसमें कुछ भी सत्य नहीं है...
SORRY THERE IS A MISUNDERSTANDING .I HAVE ASKED THIS QUESTION TO ANWAR JAMAL JI .
@ आदरणीय गुप्ता जी ! आप गीता पढने वाले गाँधी को ही नहीं समझ पाये तो गीता के कृष्ण को समझना आपके लिये कैसे संभव हो पायेगा ?
...और अगर आपने कृष्ण नीति को समझ लिया है और उसे प्रसंगिक भी मानते हैं तो आप उसे देश में चला कर सबका भला कर दें. गाँधी जी ने आपको रोका तो है नहीं और आज तक आपने गाँधी से ज़्यादा करके नहीं दिखाया .
डींग हाँकना और कमियां निकालना बंद कीजिये और समाज को समाधान दीजिये ताकि आपकी बात सत्य प्रमाणित हो.
इस पोस्ट पर यहाँ भी नकारात्मक मानसिकता वाले कमेन्ट कर रहे हैं . आप यहाँ भी अपने विचार दें-
http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/BUNIYAD/entry/godse-gandhi
शुक्रिया.
@@ मोहतरमा शिखा जी ! हिन्दी ब्लॉगिंग गाईड को आपने और कई भाई बहनों ने मिलकर लिखा है. उसके बारे में जो भी करना है आप सबको मिलकर तय करना है . हम साथ रहेंगे जैसे कि हमेशा साथ रहते हैं.
'आप इसके लिये अच्छा सुझाव दीजिये जिससे सबका भला हो.
मालिक आपका भला करे,
आमीन!
कहा गया है "अति सर्वत्र वर्जयेत्"। सत्य,अहिंसा, उदारता के साथ भी यह बात लागू होती है। हर अति के बाद उसका अंत होना ही था चाहे गाँधी जी हों या नाथूराम गोडसे। आज भी कट्टरता में कुछ लोग बहुत आगे हैं। उनका यह मानना कि मेरी बात का जो विरोध करे उसकी हत्या कर दो। उनका भी अंत होगा।
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