इंदौर की अर्चना जी का शुक्रिया जिन्होंने इस पोस्ट को बेहतरीन अंदाज़ मैं पढ़ा.. आप सब भी सुने.
इमाम हुसैन की शहादत को नमन करते हुए हमारी ओर से श्रद्धांजलि…इस लेख़ के ज़रिये मैंने एक कोशिश की है यह बताने की के धर्म कोई भी हो जब यह राजशाही , बादशाहों, नेताओं का ग़ुलाम बन जाता है तोज़ुल्म और नफरत फैलाता है और जब यह अपनी असल शक्ल मैं रहता है तो, पैग़ाम ए मुहब्बत "अमन का पैग़ाम " बन जाता है. …..एस0 एम0 मासूम
एक दिन बाद माह ए मुहर्रम का चाँद आसमान पे दिखने लगेगा. मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है. लेकिन इसका स्वागत मुसलमान नम आँखों से करते हैं, खुशिया नहीं मनाते , क्योंकि इसी दिन हज़रत मुहम्मद (स.ए.व) के नवासे इमाम हुसैन (ए.स) को एक दहशतगर्द गिरोह ने ,कर्बला मैं उनके परिवार के साथ घेर के 10 मुहर्रम 61 हिजरी को भूखा प्यासा शहीद कर दिया.
अक्सर लोगों ने मुझसे यह सवाल किया की भाई आप कौन से मुसलमान हैं जो "अमन का पैग़ाम" ले के आये? ना आप जालिमों का साथ देते हैं, ना ही बेगुनाहों की जान लेने वाले दहशतगर्दों का साथ देते है. और हमेशा इंसानियत की बातें किया करते हैं. भाई मैं मुसलमानों के उस गिरोह से ताल्लुक रखता हूँ, जो बादशाहों के बनाए इस्लाम की जगह कुरान के बताए इस्लाम पे चलता है. और इमाम हुसैन (ए.स) , जिसने १४०० साल पहले ज़ुल्म और आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ उठाई थी, हमारे लीडर हैं. अधिकतर मुसलमान इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम) को मानते हैं और उनके बताए रास्ते पे अमन और शांति फैलाते हुए, सबको साथ ले के चलते हैं.
एक बात यहाँ कहता चलूँ की राजशाही और तानाशाही का नाम धर्म नहीं है. और आज जो चेहरा सभी धर्मो का दिखाई देता है, वो नकली मुल्लाओं,पंडितों और निरंकुश शासकों के बीच नापाक गठजोड़ का नतीजा है. ऐसा ही चेहरा इस्लाम का उस समय यजीद की बादशाहत मैं होने लगा था ,और उस से आज़ादी दिलवाई इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम) ने अपनी क़ुरबानी कर्बला मैं दे के.
10 मुहर्रम 61 हिजरी की जंग ए कर्बला मैं इमाम हुसैन की क़ुरबानी को केवल इस्लाम को मानने वाले ही नहीं सारा विश्व आज तक नहीं भुला सका है. हर साल १० मुहर्रम को मुसलमान इमाम हुसैन (अ.स) की क़ुरबानी को याद करते हैं.
इमाम हुसैन (अ.स) ने क़ुरबानी दे के उस इस्लाम को बचाया जिसका पैग़ाम मुहब्बत ,और शांति थी .सवाल यह पैदा होता है की इस्लाम किस से बचाया? इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम) ने सच्चा इस्लाम बचाया ,उस दौर के ज़ालिम बादशाह यजीद से जिसने ज़ुल्म और आतंकवाद का इस्लाम फैला रखा था जिसको को बेनकाब करके सही इस्लाम पेश किया इमाम हुसैन(अ.स) ने.
यह १४०० साल पहले की बात थी लेकिन आज भी वही सूरत ए हॉल दिखाई देती है. एक गिरोह , जिहाद, फतवा और इन्केलाब के नाम पे ज़ुल्म को इस्लाम बताने पे लगा हुआ है. यह आतंकवाद को पसंद करते हैं, बेगुनाह की जान का चले जाना इसके लिए कोई माने नहीं लगता. आज भी यही इमाम हुसैन (अ.स) को मानने वाले ,अमन और प्रेम का सदेश दिया करते हैं.
कर्बला का युद्ध सदगुणों के सम्मुख अवगुणों और भले लोगों से अत्याचारियों का युद्ध था. कर्बला की घटना में यज़ीद की सिर से पैर तक शस्त्रों से लैस ३० हज़ार की सेना ने इमाम हुसैन (अ) और उनके 72 वफ़ादार साथियों को घेर लिया और अन्तत: सबको तीन दिन भूखा और प्यासा शहीद कर दिया.
हर वर्ष इस मुहर्रम के शुरू होते ही मुसलमान काले कपडे पहन के, इमाम हुसैन (ए.स) की क़ुरबानी के वाकए(मजलिसों /शोक सभाओं) को सुनते हैं और सब को बताते हैं कैसे इमाम हुसैन (ए.स) पे ज़ुल्म हुआ, कैसे उनके ६ महीने के बच्चे को भी प्यासा शहीद कर दिया? और ग़म मैं आंसू बहाते हैं. मुहर्रम का महीना शुरू होते ही यह सिलसिला शुरू हो जाता है.
मुहर्रम के आलम, ताज़िया के जुलूस सभी ने देखे होंगे लेकिन यह कम लोग समझ पाते हैं की यह क्या है.
जब यजीद की फ़ौज ने १० मुहर्रम को इमाम हुसैन (ए.स) को, उनके दोस्तों और परिवार के साथ शहीद कर दिया तो उनको कैदी बना केकर्बला से शाम (सिरिया) १६०० क म पैदल ,ले के गए.
यह अलम और ताज़िया का जुलूस उस ग़म को याद करने के लिए निकाला जाता है.इमाम हुसैन की बहन हज़रत ज़ैनब (स) और इमाम हुसैन (अ) के सुपुत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) को अन्य महिलाओं और बच्चों के साथ क़ैदी बनाया गया.
ऐसे समय में शत्रु स्वंय को विजयी समझ रहा था किंतु समय बीतने के इतिहास से सिद्ध हो गया कि ऐसा नहीं था.आज उस ज़ालिम बादशाह यजीद का नाम लेने वाला कोई नहीं. लेकिन आज हुसैन (ए.स) को याद कर के , उनपे आंसू बहाने वालों की तादात बहुत है. यह वही मुसलमान हैं जो आज भी इमाम हुसैन (ए.स) की तरह अमन पसंद हैं.
इमाम हुसैन ने एक सुंदर वास्तविकता का चित्रण किया और वह यह है कि जब भी अत्याचार व अपराध व बुराईयां मानव के समाजिक जीवन पर व्याप्त हो जाएं और अच्छाइयां और भलाइयां उपेक्षित होने लगें तो उठ खड़े होकर संघर्ष करना चाहिए और समाज में जीवन के नये प्राण फूंकने की कोशिश करनी चाहिए. यही काम आज भी "अमन का पैग़ाम" करने की कोशिश कर रहा है.
१० मुहर्रम के इस दिन को जब इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम) का क़त्ल हुआ था आशूर भी कहा जाता है. आशूर की घटना और कर्बला का आंदोलन सदैव ही विश्व के स्वतंत्रता प्रेमियों के ध्यान का केन्द्र रहा है.
मुझे फख्र इस बात का होता है की मै उस देश का निवासी हूँ जिसकी खाहिश मेरे बादशाह इमाम हुसैन (ए.स) ने की थी. मुझे इस बात पर और भी फख्र होता है की हमारे दुसरे मज़हब के भाई भी इमाम हुसैन (अस) को वैसे ही पहचानते हैं जैसा की पहचानने का हक़ है. हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का कहना था की "मैंने हुसैन से सीखा है अत्याचार पर विजय कैसे प्राप्त होती है. मेरा विश्वास है कि इस्लाम अपने विश्वासियों ( अनुयायों ) द्वारा तलवार के उपयोग पर निर्भर नहीं करता है बल्कि उनकी प्रगति हुसैन के बलिदान का परिणाम है".
मुहर्रम का चाँद देखते ही , ना सिर्फ मुसलमानों के दिल और आँखें ग़म ऐ हुसैन से छलक उठती हैं , बल्कि हिन्दुओं की बड़ी बड़ी शख्सियतें भी बारगाहे हुस्सैनी में ख़ेराज ए अक़ीदत पेश किये बग़ैर नहीं रहतीं.
इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम ) ने कहा ऐ नाना, मैंने अल्लाह के दीन को आप से किये गए वादे के अनुसार कर्बला के मैदान में अपने तमाम बच्चों, साथियों और अंसारों की क़ुर्बानी देकर बचा लिया! नाना, मेरे ६ महीने के असग़र को तीन दिन की प्यास के बाद तीन फल का तीर मिला !
मेरा बेटा अकबर, जो आप का हमशक्ल था, उसके सीने में ऐसा नैज़ा मारा गया की उसका फल उसके कलेजे में ही टूट गया ! मेरी बच्ची सकीना को तमाचे मार-मार कर इस तरह से उसके कानो से बालियाँ खींची गयी के उसके कान के लौ कट गए ! नाना मैंने दिखा दिया दुनिया को अपनी क़ुरबानी देके की वो इस्लाम जो आपने दिया था ज़ुल्म और दहशतगर्दों का इस्लाम नहीं बल्कि अमन शांति और सब्र का इस्लाम है.
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अवश्य पढ़ें हुसैन और भारत विश्वनाथ प्रसाद माथुर * लखनवी मुहर्रम , १३८३ हिजरी
दुआ करो के हमेशा मुहब्बतें बरसें,
मुहब्बतें हैं इबादत की कीमती गठरी
न कोई ज़ुल्म न ज़ालिम हमारे बीच रहे,
ज़मीं पे अम्न का रुतबा हो,खुश हो हर बशरी.
इमाम हुसैन की शहादत को नमन करते हुए हमारी ओर से भी श्रद्धांजलि.
साभार
Source : http://aqyouth.blogspot.in/2010/12/blog-post_06.html