'बुनियाद' ब्लॉग पर हमारी पेशकश
यह तब की बात है जब आकाश को भी धरती वालों ने बाँट लिया था। आकाश शून्य है परंतु जब सब बाँटा जा चुका तो शून्य को कैसे बख्श दिया जाता। शून्य आकाश का यह खण्ड काले चोरों के देश के ऊपर पड़ता था। रात घुप्प अंधेरी थी। चमगादड़ों का शासन काल चल रहा था। उनका समूह उड़ता तो उनके बड़े बड़े बाज़ू फड़फड़ाते। तब वे चारों ओर देखते। उन्हें बहुत गर्व होता। वे समझते कि उनके बाज़ूओं का साया फैला तो रात फैल गई। जब तक वे न चाहेंगे, सवेरा न होगा। हर तरफ़ पसरा हुआ अंधेरा देखकर वे विजय भाव से भर उठते। अंधेरा ही उनकी शक्ति थी। स्याह रात में उनकी चीख़ें बड़ी भयानक मालूम होती थीं। किसी झोंपड़ी से सबके भले के लिए दुआ की कोई आवाज़ उठती तो वह भी उनके मकरूह शोर में दब सी जाती थी। धीरे धीरे पौ फटने लगी तो चमगादड़ एक एक करके उस पेड़ पर आकर ख़ुद ही उल्टे लटक गए, जिस पर प्रेत उल्टे लटके रहते थे। इस पेड़ की जड़ें गहरी, तना मोटा और पत्ता बहुत हल्का होता है। इसकी विशाल भुजाओं को देखकर किसी ने इसे परमेश्वर घोषित कर दिया। यह पेड़ वहाँ खड़ा था जहाँ आदमी को पड़ा हुआ लाया जाता है।
यह काले चोरों का देश है। हर तरफ़ से इसे लूटने के लिए इतने टाइप के चोर लुटेरे आए कि मूल निवासी लुट पिटकर कहीं जंगलों में जा चढ़े और नगरों में वही चोर लुटेरे बस गए। चोरों के इस देश में पुलिस भी है। लोग कहते हैं कि पुलिस वाले भी जिनमें से आते हैं, उन्हीं के लिए काम करते हैं और उन्हीं जैसे काम करते हैं। जो उनमें से नहीं थे, उन्हें पुलिस में आने से रोक दिया जाता है। कम ही सही, उनमें कोई फिर भी आ जाता है। वह अकेला ही इन सबको दौड़ा लेता है।
इस रात भी काले चोरों की एक लाल टोली को मासूम लोगों की टोह में देखा तो ऐसे ही किसी सिपाही ने उन्हें ललकारा। उन्होंने दुम दबाकर भागना चाहा तो उन्हें अपनी दुम भी न मिली। उनकी दुम किसी ने काट ली थी या बिना काटे ही जला दी थी। यह याद करने का असवर नहीं था सो उन्होंने कल्पना में ही अपनी दुम दबाई और हक़ीक़त में दौड़ लगा दी। ये भी उसी पेड़ के नीचे आकर रूके। जिसका नाम न लो तो भावनाएं आहत नहीं होतीं। चोरों की भी भावनाएं होती हैं। आखि़र चोरी भी एक कला है। कलाकार बड़े संवेदनशील होते हैं। कुछ अलग ही सही लेकिन इनकी भी संस्कृति होती है। इनका भी समाज होता है। इनका भी विचार होता है।
कुछ साँस आया तो इन चोरों में से जिसका रंग काला नहीं था, वह बोला-‘यह सिपाही अपने आप को हमसे श्रेष्ठ क्यों समझता है?‘
‘इसके संस्कार विदेशी जो ठहरे।‘-उनमें से दूसरे ने जवाब दिया। इसका रंग भी काला नहीं था।
‘हमने हरेक संस्कृति को पचा लिया तो इसकी बिरादरी बच कैसे गई?‘-तीसरे ने आश्चर्य जताया। इसका रंग भी काला नहीं था।
‘इसका हल क्या है?‘-किसी ने पूछा। उसका रंग गेहुंआ था।
‘जो पच जाए, उसे अपना लो और जो बच जाए, उसे बदनाम कर दो।‘-किसी ने कहा। इसका रंग गेहुंआ था और माथा भी चौड़ा था।
‘क्या आरोप लगाएं और क्या लोग विश्वास करेंगे?‘-पूछने वाले की नाक सवालिया निशान की तरह खड़ी थी।
‘विश्वास न भी करें तो संदेह तो करेंगे न। इतना भी बहुत है।‘-सबसे पीछे वाले ने समर्थन किया। उसका रंग और नाक नक्शा भी इन्हीं जैसा था।
यह निश्चय होते ही उस बूढ़े पेड़ पर लटके हुए प्रेतों के पाप का बोझ थोड़ा और बढ़ गया। सत्य को संदिग्ध बनाने की शुरूआत करने वाले वही थे। ये चोर उन्हीं की कूटनीति पर चल रहे थे। सहसा आकाश में कड़कती हुई बिजली प्रेतों के सूक्ष्म शरीर को छूकर लौट गई तो प्रेतों की चीख़ें निकल गई। जिस प्रकृति को वे जीवन भर पूजते रहे, अब वही उन्हें यातना दे रही थी। हवा के बगूले में धूल का बवंडर उठा तो एक पुराने प्रेत ने अपनी इच्छा शक्ति से उस धूल को अपने प्रेत शरीर के चारों ओर इकठ्ठा कर लिया। अब वह धुंधला सा दिख सकता था। आदमी मर जाता है लेकिन उसकी इच्छा नहीं मरती। मनुष्य की शक्ति उसकी इच्छा में निहित है। अच्छी इच्छा वाला यहाँ नहीं लटकाया जाता।
दूसरे प्रेतों ने भी यही किया तो वे भी धुंधले धुंधले से नज़र आने लगे। विशाल वृक्ष पर ये प्रेत उसके पत्तों से भी कई गुना ज़्यादा थे। वे सब प्रेत नज़र आए तो चोरों की चीख़ें निकल गईं। दुम पहले ही नहीं थी और अब दम भी निकलता सा लग रहा था।
‘तुम कौ..कौ...कौन हो?‘-चौड़े माथे वाले ने हकलाते हुए पूछा।
‘हम तुम्हारे पितर हैं।‘-प्रेत ने कहा।
‘हमारे पितर तो पितृ लोक में हैं। तुम कौन हो?‘-खड़ी नाक वाले ने अपनी नाक जैसा सवाल किया।
‘सब एक ही जगह हैं लेकिन आयाम और आवृत्ति भिन्न होने से लोक का नाम बदल जाता है। शरीर हो तो मृत्युलोक है और शरीर न हो तो वही जगह प्रेत लोक हो जाती है। संबंध के आधार पर नामकरण किया जाए तो पितृ लोक कहलाता है।‘-पुराने प्रेत के निराकरण से लगा कि वह अपने जीवन में दार्शनिक रहा होगा। इतने घोर कष्ट में भी उसकी मुद्रा गंभीर थी।
काले चोरों ने देखा तो उनमें कोई ‘हृदय सम्राट‘ था और कोई उससे भी बड़ा। सभी चेहरों से वे परिचित थे।
‘हम तो समझ रहे थे कि हमारे पितरों की मुक्ति हो गई होगी।‘-सहसा दो चोर एक साथ बोले।
‘बेटा, हमारी मुक्ति तुम्हारे समझने से नहीं हो सकती, हमारे समझने से हो सकती थी।‘-प्राचीन प्रेत बोला।
‘आप क्या नहीं समझे?‘-किसी ने पूछा।
‘यही कि जो जिस को पूजता है, वह उसी को प्राप्त होता है। हम इस पेड़ को पूजते थे। इस पेड़ को प्राप्त हो गए। हमने परमेश्वर को पूजा होता तो हम उसे प्राप्त होते।‘-प्राचीन प्रेत ने कहा।
‘हम तो परमेश्वर का ही नाम लेते हैं जी।‘-एक चोर इत्मीनान से बोला।
‘केवल नाम से काम नहीं होता। उसका कहा माना जाए तभी कल्याण होता है।‘-इस बार प्राचीन प्रेत के साइड में लटका हुआ प्रेत बोला। शायद वह कोई राजनीतिक लीडर रहा होगा।
‘यही बात वह सिपाही कहता है?‘-चोरों में से जाने कौन बोला।
‘सिपाही सच कहता है। वह सच का सिपाही है।‘-सब प्रेतों ने समवेत स्वर में गवाही दी तो धूल का बवंडर पेड़ के पत्तों से टकराकर अजीब सा शोर करने लगा। प्रेतों को इस गवाही के बाद लगा कि उनके मन से बड़ा बोझ उतर गया।
‘...परंतु वह विदेशी भाषा में कहता है। विदेशी भाषा को कैसे अपनाएं?‘-एक ने कहा।
‘तेरी आत्मा देशी है या विदेशी?‘-प्रेत ने यक्ष की भांति सवाल किया।
‘क्या मतलब?‘-चोर ने हैरत जताई।
‘आत्मा इस देश की माटी पानी से नहीं उपजी तो क्या उसे त्याग दोगे?‘-प्रेत ने पूछा।
‘नहीं, कभी नहीं। आत्मा चाहे देशी न हो परंतु वह हमारी अपनी तो है।‘-चोर ने जवाब दिया।
‘सत्य भी तुम्हारा अपना ही है। वह जिस तीर्थ को मानता है। वह तक तुम्हारा अपना है। यह बात वे भी जानते हैं, जो कुछ नहीं जानते।‘-प्रेत ने पुरानी बात याद दिलाई।
‘सत्य क्या है?‘-
‘जो परिधि से पृथ्वी के केन्द्र तक मान्य है। वही सत्य है। जो सनातन काल से आधुनिक काल तक चला आ रहा है। वही सत्य है। सत्य अजर है। उसमें कुछ बढ़ता नहीं है। सत्य अक्षर है। उसमें से कुछ घटता नहीं है। सत्य एक है। एक सत्य है।‘-प्रेत ने सत्य के लक्षण बताए।
‘...और जो उसके विपरीत विचार है, उसका क्या करें?‘-
‘सत्य को मान लोगे तो उसके विपरीत विचार तुम्हारे लिए नहीं रह जाएंगे। वे बाद की उपज हैं। वे पहले नहीं थे और बाद में भी नहीं रहेंगे।‘-प्रेत ने समस्या का समाधान कर दिया।
‘आपको यह सब ज्ञान किसने दिया?‘-चौड़े माथे वाले ने अपने माथे पर बल डालते हुए कहा।
‘हमारे पितरों ने।‘-प्रेत ने कहा।
‘क्या वे भी तुम्हारे साथ इसी पेड़ पर हैं?‘-यह बेवक़ूफ़ी भरा सवाल उस चोर ने किया, जिसका रंग काला ही था और उसके पूर्वजों के कानों में पिघलाकर कुछ डाला जाता था। यह सब जानकर भी आजकल वह उनके साथ हिला-मिला रहता था, जिन्होंने उसके बाप दादाओं पर सदियों तक भयानक अहसान किये थे। डीएनए की गुणवत्ता सुधरने में समय लगता है। हीन भावना और लालच से जल्दी पीछा नहीं छूटता।
‘नहीं, हमारे पितर यहां नहीं हैं। वे परम पद के अधिकारी थे। वे उच्च लोक को सिधार चुके हैं।‘-प्रेत ने थोड़ा गर्वित भाव से बताया।
‘तुम्हारे कल्याण के लिए हम क्या कर सकते हैं?‘-खड़ी नाक वाले ने अहम सवाल पूछा।
‘हमारी शिक्षा पर चलना छोड़ दो और हमारे पितरों के ज्ञान का अनुसरण करो।‘-प्रेत ने विनती के स्वर में कहा तो सभी प्रेतों ने हां, हां का स्वर उत्पन्न किया।
‘तुम्हारा कल्याण होगा तो हमारा कल्याण स्वयं हो जाएगा। संतान के शुभ कर्म उसके पितरों के खाते में भी लिखे जाते हैं।‘-प्रेत ने अंतिम सूत्र बताया और इसके बाद हवा अपने साथ सारी धूल लेकर एक तरफ़ को निकल गई। वहां अब कोई दिखाई न देता था। काले चोर विचार करने के लिए उसी पेड़ के नीचे बैठ गए। उन्हें सत्य का बोध हो चुका था। उनके सामने अब यह मुश्किल थी कि वे अपने जाति बंधुओं को कैसे बताएं कि आदि मूल सत्य क्या था, जिसका पालन पितरों के पितर करते थे ?
पीछा करते करते सिपाही भी पेड़ तक आ पहुंचा था। उन्हें अब सिपाही से बिल्कुल भी डर नहीं लग रहा था। वे जान गए थे कि सिपाही की श्रेष्ठता उस सत्य में निहित है। जिसे वह मानता है। उगते हुए सूरज में उन्होंने पहचान लिया कि यह उनका अपना ही भाई है। बस मान्यता का अंतर था। सो, आज वह भी बाक़ी न था। आज सदियों के बिछुड़े दो भाई गले मिलने वाले थे।
काले चोर, काले तो पहले ही न थे और आज वे चोर भी न रह गए थे। उन्होंने परम पद पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। वे सभी श्रेष्ठ हो चले थे। काले रंग वाला भी उनके अनुसरण के लिए तैयार था। जिस मार्ग पर महाजन चलते हैं, छोटे उसी पर चलने में गर्व का अनुभव करते हैं। यह स्वाभाविक ही है।
इस रात भी काले चोरों की एक लाल टोली को मासूम लोगों की टोह में देखा तो ऐसे ही किसी सिपाही ने उन्हें ललकारा। उन्होंने दुम दबाकर भागना चाहा तो उन्हें अपनी दुम भी न मिली। उनकी दुम किसी ने काट ली थी या बिना काटे ही जला दी थी। यह याद करने का असवर नहीं था सो उन्होंने कल्पना में ही अपनी दुम दबाई और हक़ीक़त में दौड़ लगा दी। ये भी उसी पेड़ के नीचे आकर रूके। जिसका नाम न लो तो भावनाएं आहत नहीं होतीं। चोरों की भी भावनाएं होती हैं। आखि़र चोरी भी एक कला है। कलाकार बड़े संवेदनशील होते हैं। कुछ अलग ही सही लेकिन इनकी भी संस्कृति होती है। इनका भी समाज होता है। इनका भी विचार होता है।
कुछ साँस आया तो इन चोरों में से जिसका रंग काला नहीं था, वह बोला-‘यह सिपाही अपने आप को हमसे श्रेष्ठ क्यों समझता है?‘
‘इसके संस्कार विदेशी जो ठहरे।‘-उनमें से दूसरे ने जवाब दिया। इसका रंग भी काला नहीं था।
‘हमने हरेक संस्कृति को पचा लिया तो इसकी बिरादरी बच कैसे गई?‘-तीसरे ने आश्चर्य जताया। इसका रंग भी काला नहीं था।
‘इसका हल क्या है?‘-किसी ने पूछा। उसका रंग गेहुंआ था।
‘जो पच जाए, उसे अपना लो और जो बच जाए, उसे बदनाम कर दो।‘-किसी ने कहा। इसका रंग गेहुंआ था और माथा भी चौड़ा था।
‘क्या आरोप लगाएं और क्या लोग विश्वास करेंगे?‘-पूछने वाले की नाक सवालिया निशान की तरह खड़ी थी।
‘विश्वास न भी करें तो संदेह तो करेंगे न। इतना भी बहुत है।‘-सबसे पीछे वाले ने समर्थन किया। उसका रंग और नाक नक्शा भी इन्हीं जैसा था।
यह निश्चय होते ही उस बूढ़े पेड़ पर लटके हुए प्रेतों के पाप का बोझ थोड़ा और बढ़ गया। सत्य को संदिग्ध बनाने की शुरूआत करने वाले वही थे। ये चोर उन्हीं की कूटनीति पर चल रहे थे। सहसा आकाश में कड़कती हुई बिजली प्रेतों के सूक्ष्म शरीर को छूकर लौट गई तो प्रेतों की चीख़ें निकल गई। जिस प्रकृति को वे जीवन भर पूजते रहे, अब वही उन्हें यातना दे रही थी। हवा के बगूले में धूल का बवंडर उठा तो एक पुराने प्रेत ने अपनी इच्छा शक्ति से उस धूल को अपने प्रेत शरीर के चारों ओर इकठ्ठा कर लिया। अब वह धुंधला सा दिख सकता था। आदमी मर जाता है लेकिन उसकी इच्छा नहीं मरती। मनुष्य की शक्ति उसकी इच्छा में निहित है। अच्छी इच्छा वाला यहाँ नहीं लटकाया जाता।
दूसरे प्रेतों ने भी यही किया तो वे भी धुंधले धुंधले से नज़र आने लगे। विशाल वृक्ष पर ये प्रेत उसके पत्तों से भी कई गुना ज़्यादा थे। वे सब प्रेत नज़र आए तो चोरों की चीख़ें निकल गईं। दुम पहले ही नहीं थी और अब दम भी निकलता सा लग रहा था।
‘तुम कौ..कौ...कौन हो?‘-चौड़े माथे वाले ने हकलाते हुए पूछा।
‘हम तुम्हारे पितर हैं।‘-प्रेत ने कहा।
‘हमारे पितर तो पितृ लोक में हैं। तुम कौन हो?‘-खड़ी नाक वाले ने अपनी नाक जैसा सवाल किया।
‘सब एक ही जगह हैं लेकिन आयाम और आवृत्ति भिन्न होने से लोक का नाम बदल जाता है। शरीर हो तो मृत्युलोक है और शरीर न हो तो वही जगह प्रेत लोक हो जाती है। संबंध के आधार पर नामकरण किया जाए तो पितृ लोक कहलाता है।‘-पुराने प्रेत के निराकरण से लगा कि वह अपने जीवन में दार्शनिक रहा होगा। इतने घोर कष्ट में भी उसकी मुद्रा गंभीर थी।
काले चोरों ने देखा तो उनमें कोई ‘हृदय सम्राट‘ था और कोई उससे भी बड़ा। सभी चेहरों से वे परिचित थे।
‘हम तो समझ रहे थे कि हमारे पितरों की मुक्ति हो गई होगी।‘-सहसा दो चोर एक साथ बोले।
‘बेटा, हमारी मुक्ति तुम्हारे समझने से नहीं हो सकती, हमारे समझने से हो सकती थी।‘-प्राचीन प्रेत बोला।
‘आप क्या नहीं समझे?‘-किसी ने पूछा।
‘यही कि जो जिस को पूजता है, वह उसी को प्राप्त होता है। हम इस पेड़ को पूजते थे। इस पेड़ को प्राप्त हो गए। हमने परमेश्वर को पूजा होता तो हम उसे प्राप्त होते।‘-प्राचीन प्रेत ने कहा।
‘हम तो परमेश्वर का ही नाम लेते हैं जी।‘-एक चोर इत्मीनान से बोला।
‘केवल नाम से काम नहीं होता। उसका कहा माना जाए तभी कल्याण होता है।‘-इस बार प्राचीन प्रेत के साइड में लटका हुआ प्रेत बोला। शायद वह कोई राजनीतिक लीडर रहा होगा।
‘यही बात वह सिपाही कहता है?‘-चोरों में से जाने कौन बोला।
‘सिपाही सच कहता है। वह सच का सिपाही है।‘-सब प्रेतों ने समवेत स्वर में गवाही दी तो धूल का बवंडर पेड़ के पत्तों से टकराकर अजीब सा शोर करने लगा। प्रेतों को इस गवाही के बाद लगा कि उनके मन से बड़ा बोझ उतर गया।
‘...परंतु वह विदेशी भाषा में कहता है। विदेशी भाषा को कैसे अपनाएं?‘-एक ने कहा।
‘तेरी आत्मा देशी है या विदेशी?‘-प्रेत ने यक्ष की भांति सवाल किया।
‘क्या मतलब?‘-चोर ने हैरत जताई।
‘आत्मा इस देश की माटी पानी से नहीं उपजी तो क्या उसे त्याग दोगे?‘-प्रेत ने पूछा।
‘नहीं, कभी नहीं। आत्मा चाहे देशी न हो परंतु वह हमारी अपनी तो है।‘-चोर ने जवाब दिया।
‘सत्य भी तुम्हारा अपना ही है। वह जिस तीर्थ को मानता है। वह तक तुम्हारा अपना है। यह बात वे भी जानते हैं, जो कुछ नहीं जानते।‘-प्रेत ने पुरानी बात याद दिलाई।
‘सत्य क्या है?‘-
‘जो परिधि से पृथ्वी के केन्द्र तक मान्य है। वही सत्य है। जो सनातन काल से आधुनिक काल तक चला आ रहा है। वही सत्य है। सत्य अजर है। उसमें कुछ बढ़ता नहीं है। सत्य अक्षर है। उसमें से कुछ घटता नहीं है। सत्य एक है। एक सत्य है।‘-प्रेत ने सत्य के लक्षण बताए।
‘...और जो उसके विपरीत विचार है, उसका क्या करें?‘-
‘सत्य को मान लोगे तो उसके विपरीत विचार तुम्हारे लिए नहीं रह जाएंगे। वे बाद की उपज हैं। वे पहले नहीं थे और बाद में भी नहीं रहेंगे।‘-प्रेत ने समस्या का समाधान कर दिया।
‘आपको यह सब ज्ञान किसने दिया?‘-चौड़े माथे वाले ने अपने माथे पर बल डालते हुए कहा।
‘हमारे पितरों ने।‘-प्रेत ने कहा।
‘क्या वे भी तुम्हारे साथ इसी पेड़ पर हैं?‘-यह बेवक़ूफ़ी भरा सवाल उस चोर ने किया, जिसका रंग काला ही था और उसके पूर्वजों के कानों में पिघलाकर कुछ डाला जाता था। यह सब जानकर भी आजकल वह उनके साथ हिला-मिला रहता था, जिन्होंने उसके बाप दादाओं पर सदियों तक भयानक अहसान किये थे। डीएनए की गुणवत्ता सुधरने में समय लगता है। हीन भावना और लालच से जल्दी पीछा नहीं छूटता।
‘नहीं, हमारे पितर यहां नहीं हैं। वे परम पद के अधिकारी थे। वे उच्च लोक को सिधार चुके हैं।‘-प्रेत ने थोड़ा गर्वित भाव से बताया।
‘तुम्हारे कल्याण के लिए हम क्या कर सकते हैं?‘-खड़ी नाक वाले ने अहम सवाल पूछा।
‘हमारी शिक्षा पर चलना छोड़ दो और हमारे पितरों के ज्ञान का अनुसरण करो।‘-प्रेत ने विनती के स्वर में कहा तो सभी प्रेतों ने हां, हां का स्वर उत्पन्न किया।
‘तुम्हारा कल्याण होगा तो हमारा कल्याण स्वयं हो जाएगा। संतान के शुभ कर्म उसके पितरों के खाते में भी लिखे जाते हैं।‘-प्रेत ने अंतिम सूत्र बताया और इसके बाद हवा अपने साथ सारी धूल लेकर एक तरफ़ को निकल गई। वहां अब कोई दिखाई न देता था। काले चोर विचार करने के लिए उसी पेड़ के नीचे बैठ गए। उन्हें सत्य का बोध हो चुका था। उनके सामने अब यह मुश्किल थी कि वे अपने जाति बंधुओं को कैसे बताएं कि आदि मूल सत्य क्या था, जिसका पालन पितरों के पितर करते थे ?
पीछा करते करते सिपाही भी पेड़ तक आ पहुंचा था। उन्हें अब सिपाही से बिल्कुल भी डर नहीं लग रहा था। वे जान गए थे कि सिपाही की श्रेष्ठता उस सत्य में निहित है। जिसे वह मानता है। उगते हुए सूरज में उन्होंने पहचान लिया कि यह उनका अपना ही भाई है। बस मान्यता का अंतर था। सो, आज वह भी बाक़ी न था। आज सदियों के बिछुड़े दो भाई गले मिलने वाले थे।
काले चोर, काले तो पहले ही न थे और आज वे चोर भी न रह गए थे। उन्होंने परम पद पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। वे सभी श्रेष्ठ हो चले थे। काले रंग वाला भी उनके अनुसरण के लिए तैयार था। जिस मार्ग पर महाजन चलते हैं, छोटे उसी पर चलने में गर्व का अनुभव करते हैं। यह स्वाभाविक ही है।
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कॉमेंट:
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PKS
April 03,2013 at 06:20 PM IST
जमाल साहब सिपाही खुद को सिपाही मानने को तैय्यार नहीं..
जो टॉर्च उन्हें डी गयी थी दूसरों को रास्ता क्या बताते खुद ही उससे प्रकाशित हो रास्ता ढूंढ़ना भूल गये...
उधर काले गेहुएँ लबादे ओढ़े चोरों से व्यवहार करने वाले लोगों के देश में वक्त की धूल और पुरानी सी लालटेन की मद्धिम रोशनी ने उन्हें अपनी मूल और वास्तविक चीज़ों से ज़ुदा कर दिया हज़ारों सालों के समय ने अपने से 1 फुट दूर की चीज़ को ही अपना मानने की मज़बूरी काले लबादे की तरह ओढ़ा दी..
जो सुबह उन चारों को और सिपाही को नसीब हुई यहाँ तो दूर तक उसके निशानात नज़र नहीं आते...
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बहुत बढ़िया कॉमेंट है! (0)
यह कॉमेंट आपत्तिजनक है
PKS
April 02,2013 at 04:17 PM IST
जमाल भई क्या यह आपने ही लिखा है?
मेरा मतलब इसका स्त्रोत?
आपका यह लेख आपको लेखकों की अग्रणी पंक्ति में खड़ा करता है...
मेरी दावत आपको और लिखने की और पुस्तक प्रकाशित करने की.....
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बहुत बढ़िया कॉमेंट है! (0)
यह कॉमेंट आपत्तिजनक है
(PKS को जवाब )- डा. अनवर जमाल
April 02,2013 at 05:09 PM IST
शुक्रिया जनाब.
इसे हमने ही लिखा है.
हालात आपके सामने ही हैं.