‘एक्टिव शैतान‘ की पहचान क्या है ?



सत्य और असत्य का संघर्ष शुरू से ही चला आ रहा है। यह आज भी जारी है। 
इसे पहचानने के लिए हमें यह देखना होगा कि हमारे समाज में कौन सकारात्मक सोच फैला रहा है और कौन नकारात्मक सोच का प्रचार कर रहा है ?
सकारात्मकता एक नया शब्द है। पुराने दौर में इसके अच्छाई और भलाई का शब्द इस्तेमाल होता था। ऐसे ही नकारात्मकता को पाप और बुराई नाम से जाना जाता था। दौर बदल गया है। शब्द बदल गए हैं लेकिन लोगों की प्रवृत्तियां आज भी वही हैं। किसी इंसान को देखकर लोग उसे देवता और फ़रिश्ते की उपाधि देते हैं और किसी इंसान को देखकर राक्षस और शैतान की।
जिसके कर्म दिव्य हैं, जो परोपकार के लिए अपना माल और समय देता है। ऐसे व्यक्ति को देवता या फ़रिश्ता कहा जाता है। ये लोग समाज में आज भी मौजूद हैं। समाज में धर्म और नैतिकता जैसी अच्छाईयां इन्हीं के दम से हैं। भलाई के रास्ते में ये लोग अपनी जान तक दे देते हैं। इनमें से हरेक का इल्मो-अमल (ज्ञान व कर्म) का दर्जा अलग है। जिसका ज्ञान व कर्म जितना शुद्ध व श्रेष्ठ है, उसका दर्जा भी उतना ही ऊँचा है। 
यही लोग वास्तव में इंसान हैं। ये लोग कभी दूसरों का बुरा नहीं कर सकते।
एक वे लोग हैं जो कि अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का कितना भी बुरा कर सकते हैं। उन्हें भलाई की नसीहत दी जाए, उन्हें अमन की बात बताई जाए तो वे उसे अपनी ख़ातिर में नहीं लाते। अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए वे इंसान और इंसान के बीच में नफ़रत फैलाते हैं, दूरियां बढ़ाते हैं, उनमें आक्रामकता बढ़ाते हैं और अंततः उन्हें आपस में लड़वाकर अपने हित को पूरा करते हैं। ये लोग इंसान के रूप में शैतान हैं। ये लोग शैतानी एक्टिविटीज़ में सरगर्म रहने के कारण ‘एक्टिव शैतान‘ कहलाने के हक़दार हैं।
परोपकारी इंसान और एक्टिव शैतान दोनों ही हमारे समाज में कम हैं। ज़्यादातर लोग साधारण हैं। वे अपनी ज़िन्दगी की ज़रूरतों को पूरा करने में लगे रहते हैं। दिव्य और शैतानी प्रवृत्ति दोनों ही उनके अंदर सोई हुई सी रहती हैं। कभी उन्हें परोपकारी लोगों का संग मिल जाता है तो वे दिव्य कर्म करने वाले बन जाते हैं और अगर उन्हें शैतान लोगों की संगत मिल जाए तो वे शैतानी काम करने लगते हैं। ये साधारण लोग अक्सर दोनों तरह के मिले जुले कर्म करते रहते हैं। इसीलिए ये साधारण रह जाते हैं। इनके घर पर कोई भूखा आ जाए तो वे उसे खाना भी खिलाते हैं और शादी-ब्याह का मौक़ा हो तो नशा करके नाच भी लेते हैं। इनके कर्म के पीछे कोई विश्लेषण और निश्चय नहीं होता। जिस समाज में रहते हैं। उसके साधारण लोगों की तरह ही ये रहते हैं।
अच्छे और बुरे लोग इन्हीं लोगों को अच्छा या बुरा बनाने की कोशिशें करते रहते हैं। अच्छे लोगों की वजह से दुनिया क़ायम है लेकिन दरम्यानी लोग की जितनी बड़ी तादाद अच्छी होती चली जाएगी। यह दुनिया उतनी ही ज़्यादा सुंदर और शांत होती चली जाएगी। इसके खि़लाफ़ अगर दरम्यानी लोगों की बड़ी तादाद शैतान के असर में आ गई और वह अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के हितों को नुक्सान पहुंचाने वाली बन गई तो यह दुनिया नर्क बन जाएगी।
इंसान वे हैं जिनमें इंसानियत जाग चुकी है। शैतान वे हैं जो इंसानियत के खि़लाफ़ काम कर रहे हैं और उस पर इतरा भी रहे हैं। बाक़ी लोग दोनों तरह की संभावनाएं लिए हुए हैं लेकिन वे नेकदिल हैं यानि वे दिल से नेकी को पसंद करते हैं।
अगर कोई आदमी बुरा काम कर भी ले तो वह उसे कभी सरेआम क़ुबूल नहीं कर सकता। सन 1984 जिन लोगों ने दिल्ली में हज़ारों सिखों को ज़िन्दा जलाया है। वे भी ऐलानिया क़ुबूल नहीं कर सकते कि यह काम हमने किया है।
वह ऐसा ज़ुल्म रोज़ाना नहीं कर सकते।
...फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ?
ऐसा उन्होंने शैतान के प्रभाव से किया। शैतान ने उन्हें ग़ुस्से में देखा तो एक वर्ग विशेष के खि़लाफ़ भड़काया। ग़ुस्से में आदमी की अपनी अक्ल काम करना बंद कर देती है। ऐसे में वह शैतान के असर में आसानी से चला जाता है।
सिखों का क़त्ल तो एक मिसाल है। यहूदियों, ईसाईयों,जैनियों, बौद्धों, दलितों, हिन्दुओं, पारसियों और मुसलमानों में से जिसका भी इतिहास पढ़ेंगे तो आपको सभी जगह ऐसे ज़ुल्मों की भयानक दास्तानें मिल जाएंगी क्योंकि सत्य और असत्य का संघर्ष हर दौर में और हर क़ौम में होता रहा है और हो रहा है।
इसीलिए किसी क़ौम को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि इसके तो सारे ही लोग देवता या फ़रिश्ते हैं या सारे ही राक्षस या शैतान हैं।
हरेक का ज्ञान और कर्म अलग अलग है। हरेक को उसके ज्ञान और कर्म के आधार पर ही पहचानना चाहिए।
जो आदमी किसी पूरी क़ौम को दुष्ट कहता है। वास्तव में वह शैतान के असर में है। हमें जन साधारण को शैतान के बुरे असर बचाना होगा और उन्हें नेकी का सीधा रास्ता दिखाना होगा। यह हमारी ज़िम्मेदारी है, अगर हम वास्तव में इंसान हैं।
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आक्रामकता कम है तो हाल यह है ...satlok ashram



हरियाणा के रोहतक ज़िले के करौंथा गांव में संत कहलाने वाले रामपाल जी का एक सतलोक आश्रम है। रविवार दिनांक 12 मई 2013 को रामपाल जी के समर्थकों पर हमला किया गया। इस संघर्ष में कुल 114 लोग घायल हुए हैं और 3 श्रृद्धालु मारे जा चुके हैं। इन घायलों में 61 पुलिसकर्मी भी शामिल हैं। आर्य प्रतिनिधि सभा विरोध प्रदर्शन का ऐलान पहले ही कर रखा था, जो कि बाद में हमले में बदल गया। इस समय भी उस आश्रम के बाहर आर्य समाज के लोग नारेबाज़ी कर रहे हैं और आश्रम के अंदर रामपाल जी के 10 हज़ार समर्थक मौजूद हैं।
न्यूज़ चैनल्स दिखा रहे हैं कि 2 जेसीबी मशीनें मौक़े पर पुलिस द्वारा मंगवा ली गई हैं ताकि आश्रम को ख़ाली करने के लिए गेट को तोड़ना पड़े तो तोड़ा जा सके। धारा 144 सीआरपीसी लगा दी गई है। इसके बावजूद आर्य समाजी वहीं अड़े खड़े हैं। मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुडडा ने भी दोनों पक्षों से जगह ख़ाली करने की अपील की है।
सन 2006 ई. में भी इस आश्रम को लेकर हिंसक संघर्ष हुआ था। जिसमें एक नौजवान की मौत हुई थी और रामपाल जी और उनके समर्थकों को जेल जाना पड़ा था। इसी के साथ उनके आश्रम को सील कर दिया गया था। कोर्ट के आदेश के बाद सतलोक आश्रम को रामपाल जी को सौंप दिया गया। आर्य समाज की ओर से कोर्ट के इस आदेश का विरोध किया गया और इसी के चलते यह हिंसा हुई। आर्य समाज के लोगों ने पीजीआई के बाहर भी नारेबाज़ी की।
रामपाल जी कबीरपंथी विचारधारा के आदमी हैं। वह कबीर को ईश्वर मानते हैं। उन्होंने सभी धर्म-मतों के गुरूओं को ग़लत बताया और कहा कि मैं सही बात बता रहा हूं।
इसी क्रम में उन्होंने आर्य समाजियों के ग्रन्थों में भी कमियां दिखाईं। जो कि मतवादी आर्य समाजियों से बर्दाश्त नहीं हुआ जबकि ख़ुद आर्य उनके सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों में कबीरदास जी के बारे में उपहासात्मक टिप्पणियां मौजूद हैं। उन्हें रामपाल जी की ग़लतफ़हमी को साहित्य से दूर करना चाहिए था और अगर उनके प्रवचन में कोई ग़ैर क़ानूनी बात दिखाई दे रही थी तो उसके लिए क़ानून का सहारा लेते। उन्होंने ऐसा न करके 3 हिन्दू मार डाले और सैकड़ों हिन्दू ज़ख़्मी कर दिए। फ़ोर्स के ज़ख़्मी लोगों में तो ग़ैर हिन्दू भी हैं।
मरने वाला दूसरे धर्म-मत-संप्रदाय का हो तो भी कोई ख़ुशी की बात नहीं है लेकिन अपने ही लोगों को मार डालना कौन सी धार्मिकता या आध्यात्मिकता है ?
रामपाल जी ने मुसलमानों की भी आलोचना की है, मुसलमानों ने तो उन पर कोई हमला नहीं किया।
रामपाल जी ने चारों शंकराचार्यों की भी आलोचना की है और उनके मानने वाले भी करोड़ों हैं। किसी सनातनी ने भी ऐसी हिंसक घटना नहीं की है।
किसी से मत-विरोध होने का यह मतलब नहीं है कि उस पर जानलेवा हमला कर दिया जाए। यह सब पाकिस्तान में देखा सुना जाता था लेकिन अब भारत में भी यह देखा जा रहा है। 
आर्य समाज भारत में पाकिस्तानी कल्चर फैलाकर उसे पाकिस्तान बनाने पर क्यों तुले हुए हैं ?
हक़ीक़त यह है कि समाज में टकराव और हिंसा फैलाने वाले सच्चे धार्मिक आदमी नहीं होते। ऐसे तत्वों को इनके कामों से पहचाना जाए तो ये शैतान कहलाएंगे। 
भारत में ‘एक्टिव शैतान‘ बहुत कम हैं। ज़्यादातर लोग भोले हैं। उनके भोलेपन का लाभ उठाकर ही ये शैतान उन्हें भड़काते हैं और वे बिना विचारे कहीं भी हमला कर देते हैं।
किसी की ग़लत बात के विरोध का सभ्य तरीक़ा छोड़कर हिंसा करना बिल्कुल ग़लत तरीक़ा है। एक दूसरे की देखा-देखी सब इसी तरीक़े पर चल पड़े तो पड़ोसी देश और भारत में कोई अंतर शेष न रहेगा। देश की भोली भाली जनता को एक दूसरे से लड़ाने वाले शैतान देश के सामने धीरे धीरे बेनक़ाब हो रहे हैं। आर्य समाज के ज़िम्मेदार विद्वान भी हिंसक आर्य समाजियों के कामों को सही नहीं ठहरा सकते। सभी आर्य समाजी भी उग्र सोच के नहीं हो सकते। 
कुछ भटके हुए विचारकों द्वारा पिछले कुछ समय से लगातार अलग अलग मंचों से यह संदेश फैलाया जा रहा है कि हिन्दुओं में आक्रामकता की कमी है। हिन्दुओं में आक्रामकता बढ़ानी चाहिए। यह एक प्योर शैतानी थ्योरी है। हिन्दू मतानुयायियों में आक्रामकता कम है तो हाल यह है । अगर कहीं उनकी आक्रामकता में इज़ाफ़ा हो गया तो अंजाम तबाही के सिवा क्या होगा ?, करौंथा आश्रम के मौजूदा हालात इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। दूसरों के लिए विकसित की गई आक्रामकता केवल दूसरों तक के लिए ही नहीं रह जाती है बल्कि वह अपनों को भी मार डालती है।
हक़ीक़त यह है कि देश और समाज की भलाई के लिए उग्रवादी विचारधारा से बचा जाए और आपसी विरोध के मुददों को सद्भावपूर्ण बातचीत से हल करना चाहिए।
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