पशु-पक्षियों   की तरह खाने-पीने और प्रजनन की क्रियाएं मनुष्य भी करता है। उनकी तरह   मनुष्य भी अपनी, अपने परिवार की और अपने समूह की देखभाल करता है। इन बातों   में समानता के बावजूद पशु-पक्षियों से जो चीज़ उसे अलग करती है, वह है उसकी   नैतिक चेतना। पशु-पक्षियों में भी भले-बुरे की तमीज़ पाई जाती है लेकिन एक   तो वह मनुष्य के मुक़ाबले बहुत कम है और दूसरे वह उनके अंदर स्वभावगत है   यानि कि अगर वे चाहें तो भी अपने स्वभाव के विपरीत नहीं कर सकते जबकि   मनुष्य में भले-बुरे की तमीज़ भी बहुत बढ़ी हुई होती है और उसे यह ताक़त भी   हासिल है कि वह अपने स्वभाव के विरूद्ध जाकर बुरा काम भी कर सकता है। 
भले-बुरे का ज्ञान और उनमें चुनाव का अधिकार ही मनुष्य की वह विशेषता है जो कि उसे पशु-पक्षियों से अलग और ऊंची हैसियत देती है। 
मनुष्य  सदा से ही समूह में रहता है और समूह सदैव किसी न किसी व्यवस्था के  अधीन  हुआ करता है। हज़ारों साल पर फैले हुए मानव के विशाल इतिहास को सामने  रखकर  देखा जाए और जिन जिन व्यवस्थाओं के अधीन वह आज तक रहा है, उन सबका  अध्ययन  किया जाए तो पता चलता है कि इन सभी सभ्यताओं में एक नियम प्रायः  समान रहा  है कि ‘जो व्यवहार मनुष्य अपने लिए पसंद नहीं करता, उसे वह  व्यवहार दूसरों  के साथ भी नहीं करना चाहिए।‘ 
मनुष्य की नैतिक चेतना में  उतार-चढ़ाव के साथ साथ इस नियम का स्थान कभी  प्रमुख तो कभी गौण होता रहा  है और कभी कभी ऐसा भी हुआ कि शक्ति संपन्न  समुदाय ने इस नियम की अवहेलना  भी की लेकिन तब भी इस नियम का पालन वे अपने  वर्ग में अवश्य करते रहे। इस  नियम की पूर्ण अवहेलना कोई न कर सका है और न  ही कर सकता है। इसकी पूर्ण  अवहेलना का मतलब है पूर्ण अराजकता। जिसका नतीजा  है मुकम्मल तबाही।
आस्तिक  और नास्तिक, पूर्वी और पश्चिमी, सभी लोग इस नियम को स्वीकारते रहे  हैं।  नैतिकता का द्वार यही है। इसमें प्रवेश किए बिना मनुष्य शांति में  प्रवेश  नहीं कर सकता। सभ्यता की स्थिरता और उसकी उन्नति का द्वार भी यही  है।  मनुष्य कहलाने का हक़दार भी वही है जो कि इस नियम को मानता है। जो इस  नियम  को नहीं मानता, वह पशुओं से भी बदतर है और उसके असामाजिक होने में कोई  शक  नहीं है। लोगों ने इसे केवल व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि सामूहिक  रूप  से भी स्वीकार किया है। इसके बावजूद ऐसा बहुत कम हुआ जबकि किसी सभ्यता  ने  इस नियम का पालन किया हो। ज़्यादातर इस नियम का पालन व्यक्तिगत सतह पर  ही  हुआ है और व्यक्तिगत सतह पर भी ऐसे लोग बहुत ही कम हुए हैं जिन्होंने इस   नियम का पालन इसकी संभावनाओं के शिखर तक किया हो लेकिन जिन्होंने किया है   मानवता ने उन्हें सदा ही एक आदर्श का दर्जा दिया है।
ऐसा क्यों हुआ कि एक सिद्धांत को उसके ठीक रूप में जान लेने के बाद भी अक्सर लोग उसका पालन न कर सके ?
इस  बात पर ग़ौर करते हैं तो यह हक़ीक़त सामने आती है कि मनुष्य के अंदर भविष्य   की चिंता और सुख की इच्छा भी मौजूद है। उसके अंदर डर और लालच जैसे जज़्बात   भी पाए जाते हैं। उसके अंदर ईष्र्या और क्रोध की लहरें भी जब-तब उठती रहती   हैं। उसके अंदर ज्ञान के साथ अज्ञान और विवेक के साथ जल्दबाज़ी भी पाई  जाती  है। वह केवल अपने लाभ-हानि के आधार पर सोचता है और किसी भी हाल में  वह  नुक्सान नहीं उठाना चाहता। यही वजह है कि वह भला काम तभी तक करता है जब  तक  कि उसे उसमें लाभ नज़र आता है लेकिन जब उसे भला काम करने में नुक्सान  नज़र  आता है तो वह भला काम छोड़ बैठता है। मनुष्य बुरे काम से तभी तक बचता  है जब  तक कि उसे बुरे काम से बचने में लाभ नज़र आता है लेकिन जब उसे बुरा  काम करने  में लाभ नज़र आने लगता है तो वह बुरा काम करता है। लाभ का लालच और  नुक्सान  का डर मनुष्य को भले काम करने की प्रेरणा भी देते हैं और यही  जज़्बात उसे  भलाई के काम करने से रोक भी देते हैं। 
भलाई के काम में  नुक्सान और बुराई के काम में लाभ होता देखकर भी जिन लोगों  ने भलाई का  रास्ता नहीं छोड़ा, उन्हें बहुत नुक्सान उठाना पड़ा। अक्सर उन्हें  बेदर्दी  से क़त्ल कर दिया गया, उनके परिवार को तबाह कर दिया गया, उनके  साथियों की  भी बड़ी बेदर्दी से हत्याएं की गईं। उनकी क़ुर्बानियां देखकर  लोगों ने  उन्हें महान और आदर्श तो घोषित कर दिया लेकिन उनके रास्ते पर चलने  की  हिम्मत अक्सर लोग न जुटा सके।
यह एक बड़ी विडंबना है कि मनुष्य जाति  भले-बुरे की तमीज़ भी रखती है और उसका  पालन करके दिखाने वाले आदर्शों की भी  उसके पास कमी नहीं है लेकिन फिर भी  मनुष्य उस रास्ते से हटकर चल रहा है।  दुनिया भर की सभ्यताएं आज जितनी भी  समस्याओं से दो चार हैं, उनके पीछे मूल  कारण यही है।
इसी की वजह से मानव जाति बहुत से टुकड़ों में बंटी और  फिर उसने एक धरती के  बेशुमार टुकड़े कर डाले। उसने धरती ही नहीं बल्कि पानी  भी बांट और फिर आकाश  भी बांट डाला। जब वे ख़ुद बंट गए तो फिर उनमें  संघर्ष भी हुआ और हार-जीत भी  हुई। हार जाने वालों पर ज़ुल्म भी हुए और  जीतने वालों से नफ़रत भी की गई और  फिर ऐसा भी हुआ कि समय के साथ जीतने वाले  कमज़ोर पड़ गए तो दबाकर रखे गए  लोगों ने उन्हें पलट डाला और उन पर उन्होंने  उनसे भी बढ़कर ज़ुल्म किए।  बंटवारे और संघर्ष की इसी रस्साकशी में भयानक  हथियार बनाए गए। उसने अपनी  रोटी का पैसा हथियार बनाने में ख़र्च किया और  आज आलम यह है कि हथियारों की  मद में जो देश जितना ज़्यादा पैसा ख़र्च करता  है, वह उतना ही ज़्यादा  विकसित समझा जाता है। हथियारों पर ख़र्च होने  वाला दुनिया का पैसा लोगों की  रोटी, शिक्षा और चिकित्सा पर ख़र्च होता तो  यह दुनिया आज स्वर्ग सी सुंदर  होती। 
जब यह रक़म अपनी जेब से ख़र्च  करना मुश्किल हो जाता है तो फिर ये विकसित देश  कमज़ोर देशों के प्राकृतिक  संसाधनों का दोहन जबरन करने लगते हैं और अपने  लालच का विरोध करने वालों को  तबाही का डर दिखाते हैं और डर कर समर्पण न  करने वालों को सचमुच ही तबाह  कर डालते हैं। इस तरह हिंसा-प्रतिहिंसा और  संघर्ष की एक बहुचक्रीय  प्रक्रिया जन्म लेती है जो एक लंबे अर्से से चली आ  रही है और यह ख़त्म  होगी भी नहीं जब तक कि मनुष्य जाति सामूहिक रूप से उस  नियम को अपने आचरण  से मान्यता नहीं देगी जिसे वह सदा से जानती है कि दूसरों  से वह व्यवहार  हरगिज़ नहीं करना चाहिए जिसे अपने लिए पसंद नहीं किया जा  सकता।
लेकिन  सवाल यह है कि वह कौन सा तरीक़ा है जो मनुष्य को इस बात के लिए तैयार  कर  सके कि चाहे वह तबाह ही क्यों न हो जाए तब भी उसे बुरा काम और मानव जाति   का बंटवारा और रक्तपात किसी भी हाल में नहीं करना है, उसे इस धरती पर सदा   शांति से ही रहना है, सामूहिक हितों के लिए उसे व्यक्तिगत हितों की   क़ुर्बानी देते हुए ही जीना चाहिए और अगर इस रास्ते में उसे मौत भी आ जाए तो   उसे मौत को स्वीकार लेना चाहिए लेकिन भलाई के रास्ते से नहीं हटना चाहिए।
लोग पूछ सकते हैं कि जब वे मर ही जाएंगे तो फिर इस दुनिया में शांति रहे या नहीं, उसे इससे क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है ?
तब क्यों न वह अपने जीवन की परवाह और रक्षा करे, चाहे इसके लिए उसे सामूहिक हितों को ही क्यों न क़ुर्बान करना पड़े ?
आज सामूहिक हितों पर इसीलिए चोट की जा रही है और नतीजा यह है कि सभी बर्बाद हो रहे हैं। डर और आशंका से कोई दिल आज ख़ाली नहीं है।
इन्हीं  डर और आशंकाओं के चलते निजी हित के लिए जीने वाले लोगों ने अपने से  मिलते  जुलते लोगों के साथ मिलकर गुटबंदी कर ली है और फिर अपना अपराध बोध कम   करने के लिए साक्ष्य, तर्क और प्रमाण भी जमा कर लिए हैं। इस तरह बहुत से   दर्शन भी वुजूद में आ चुके हैं। जिसे जहां लाभ मिल रहा है वह उसी गुट के   दर्शन का क़ायल हो रहा है। कहीं पूंजीवाद है तो कहीं जनवाद है। कहीं   नास्तिकवाद है तो कहीं अध्यात्मवाद। हरेक वाद बहुत से नए विवाद को जन्म दे   रहा है। नए नए दर्शन लेकर लोग मसीहाई का स्वांग रच रहे हैं। कोई राजनीतिक   रूप से मुक्ति का झूठा दावा करके निजी हित साध रहा है और कोई आत्मा की   मुक्ति के उपाय बता रहा है। मुक्ति की जितनी कोशिशें की जा रही हैं, पाश और   बंधन उतने ही ज़्यादा बढ़ते जा रहे हैं। इनसे मुक्ति की कोशिश में  प्रबुद्ध  वर्ग वर्जनाएं और मर्यादा तक को तोड़कर देख रहा है कि शायद इन्हें  तोड़कर ही  कुछ सुकून मिल जाए। 
ज्यों ज्यों दवा की जा रही है मर्ज़  बढ़ता ही जा रहा है। विश्वास करके छले  जाने के बाद अब विश्वास करने का  रिवाज भी कम होता जा रहा है। मनुष्य जाति  अपने स्वाभाविक गुणों से  धीरे-धीरे रिक्त होती जा रही है। लोग विश्वास न  करके भी बर्बाद हो रहे हैं  और जो विश्वास कर रहे हैं वे भी छले जा रहे हैं,  ठगे जा रहे हैं। जिन  लोगों को वे अपना नेता और मार्गदर्शक चुनते हैं वही  उन्हें धोखा दे रहे  हैं, इस देश में भी और उस देश में भी।
ज़्यादातर लोग तो ऐसे हैं कि  वे अपने जज़्बात के क़ब्ज़े में हैं। जो मन में  आया कर डाला। जायज़-नाजायज़ और  मर्यादा का ख़याल ही ख़त्म कर लिया और कुछ  लोगों ने इनसे नुक्सान होता  हुआ देखा तो इन जज़्बात की जड़ ही काट दी। न  विवाह किया, न बच्चे पैदा किए  और न ही समाज के दुख में दुखी और उसकी ख़ुशी  में ख़ुश हुए और समझा कि  उन्होंने मनुष्य के स्वाभाविक गुणों को नष्ट करके  कोई बहुत बड़ा काम कर  दिया। उन्हें अपना आदर्श समझने वाले भी उनके रास्ते पर  चले और इस तरह समाज  में दो अतियां वुजूद में आ गईं जबकि बेहतर था कि  जज़्बात को सिरे से ही  कुचल डालने के बजाय उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश  की जाती। लाभ के लिए  उनसे काम लिया जाता और नुक्सान की जगह उन्हें क़ाबू  किया जाता।दो अतियों के  बीच का यही मध्यमार्ग वास्तव में ऐसा है जिसका पालन  सभी से संभव है। 
जो   सबके लिए कल्याणकारी हो, उसकी स्थापना की कोशिश ही मनुष्य के लिए   व्यवहारिक है। एक-दो या चंद आदमी कुछ भी कर सकते हैं, उनका मार्ग बस उनके   के लिए ही है। सारी दुनिया की सभ्यता के लिए वही मार्ग है जो दुनिया को   तोड़ने के बजाय सारी दुनिया को जोड़ने की बात करे। जो जज़्बात में बहने के   बजाय या उन्हें मिटाने के बजाय उन्हें क़ाबू करना सिखाए। जिस पर हरेक   देश-काल और इलाक़े के मर्द-औरत हरेक आयु में चल सकें, बचपन में भी, जवानी   में भी और बुढ़ापे में भी। ऐसे मार्ग पर चलने वाला आदमी ही ऐसी व्यवस्था दे   सकता है जो कि सभ्यता की समस्याओं का सच्चा समाधान हो। 
मानव  जाति के इतिहास में ऐसे बहुत से आदमी समय समय पर हुए हैं और हरेक  इलाक़े  में हुए हैं। उनमें से कुछ का इतिहास भी कम या ज़्यादा आज हमारे पास   सुरक्षित है, जिसके द्वारा हम जानते हैं कि तमाम विपरीत हालात के बावजूद   उन्होंने अपनी नैतिक चेतना से हटकर कभी कोई काम नहीं किया। जो आदमी उनके   प्रभाव में आया उसने भी नुक्सान उठाना गवारा किया लेकिन भलाई की राह से   हटना गवारा न किया। उन्होंने लोगों को अपने डर, लालच, ग़ुस्से और जलन को   क़ाबू करने का क्या उपाय बताया ?
उन्होंने वह कौन सा लाभ बताया जिसे  पाने के लिए आदमी दुनिया का हरेक  नुक्सान उठाने के लिए ख़ुशी ख़ुशी तैयार  हो जाता है। यह जानना आज बहुत  ज़रूरी है। 
ऐसा नहीं है कि इन महान  हस्तियों के बारे में लोग नहीं जानते या इनका नाम  नहीं लेते लेकिन बस नाम  भर ही लेते हैं या उनके जैसे कुछ काम करते भी हैं  तो बस केवल कुछ ही काम  करते हैं और बहुत कुछ छोड़ देते हैं। ये लोग आज उनके  प्रतिनिधि के तौर पर  जाने जाते हैं लेकिन इन लोगों की हालत भी यही है कि इन  महापुरूषों की जिस  बात को मानकर लाभ मिलता उसे तो वे मान लेते हैं और जिस  बात को मानकर  नुक्सान होता है उसे छोड़ बैठते हैं। दरअसल ये चाहे उनके जैसे  कुछ काम कर  रहे हों लेकिन चल रहे हैं ये भी डर और लालच के उसी उसूल पर जिस  पर कि उन  महापुरूषों को न मानने वाले चल रहे हैं। ऐसे लोग समाज में न मानने  वालों  से ज़्यादा समस्याएं पैदा कर रहे हैं।
इन महापुरूषों का वास्तविक  प्रतिनिधि केवल वह है जो कि हर हाल में उनके  मार्ग पर चलता है। उनकी मंशा  से भी केवल वही आदमी सही तौर पर वाक़िफ़ है। ऐसे  आदमियों का वुजूद हमारे बीच  आज भी है, जिससे पता चलता है कि उम्मीद की  किरण अभी बाक़ी है। बुराई का  दौर रूख़सत हो सकता है और भलाई का दौर आ सकता  है। आज इंसान भले ही जानवर  से बदतर हालत में जी रहा हो लेकिन वह अपने  अधिकार से काम ले तो फिर से  इंसान बन सकता है। एक ऐसा इंसान जो कि बुराई से  हर हाल में बचता है और  भलाई की राह चलता है।
सामूहिक रूप से यह हालत समाज में जब भी आए लेकिन व्यक्तिगत रूप से आदमी जब चाहे यह हालत पा सकता है। 
समूह जो चाहे वह करे लेकिन व्यक्ति को सदैव वही करना चाहिए जो कि हक़ीक़त में सच और सही है, जो कि वास्तव में उसके जीवन का मर्म है क्योंकि मानव का यही धर्म है। इसी मार्ग पर चलकर इंसान ख़ुद को भटकने बचा सकता है, केवल इसी तरीक़े से वह अपनी ख़ुदी को रौशन कर सकता है और ऐसे ही लोगों को देखकर इंसान सदा से सद्-प्रेरणा पाते आए हैं। 
समय समय पर महापुरूष आए और ‘अपना कर्म‘ करके चले गए। अब महापुरूषों की इस पावन भूमि पर आप हैं। सद्-प्रेरणा लेना-देना और सत्कर्म करना अब आपकी ज़िम्मेदारी है। देखिए कि आप क्या कर रहे हैं ?
इसी आत्मावलोकन से हरेक समस्या का अंत आप कर सकते हैं तुरंत।
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इंसान का असल इम्तेहान यही है कि वह अपने ज्ञान और अपनी ताक़त का इस्तेमाल क्या करता  है ?















 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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