खुदी के हाथ से निकला तो फिर हलाक हुआ.
कफे-गुरूर में हर शख्स जेरे-खाक हुआ.
हरेक तर्ह की आबो-हवा से गुजरा हूं
ये और बात तेरी रहगुजर में खाक हुआ.
वो रातो-रात चमकने लगा सितारों सा
उसे तराशने वाला भी ताबनाक हुआ.
ये कच्चे धागों का बंधन है या तमाशा है
अभी-अभी हुई शादी अभी तलाक हुआ.
मैं उससे अपनी तबाही का सबब पूछुंगा
अगर कभी मुझे मिलने का इत्तिफाक हुआ.
तलब की आखिरी मंजिल अजीब मंजिल है
की इस मुकाम पर जो पहुंचा वो हलाक हुआ.
मुहब्बतें मिलीं मुझको न नफरतें गौतम
अजीब रंग में दामन जुनू का चाक हुआ.
-----देवेंद्र गौतम
http//gazalganga.in
2 comments:
देवेन्द्र गौतम जी की ग़ज़ल वाकई में खूबसूरत है!
खुदी के हाथ से निकला तो फिर हलाक हुआ.
कफे-गुरूर में हर शख्स जेरे-खाक हुआ.
Nice post.
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