आतंकवाद में साम्प्रदायिकता के कारण बढ़ रहा है आतंकवाद

आतंकवाद में साम्प्रदायिकता के कारण बढ़ रहा है आतंकवाद

आतंकवाद में साम्प्रदायिकता के कारण बढ़ रहा है आतंकवाद यह बात चाहे आपको अटपटी से लगे लेकिन हमारे भारत में कुछ साम्प्रदायिक राष्ट्रविरोधी ताकतों ने आतंकवाद को  एक धर्म और एक जाती से जोड़ कर दुष्प्रचार किया है ..हमारा देश अगर इस दुष्प्रचार को छोड़ कर अगर इस देश के आतंकवाद से निपटने की कोशिश करता तो शायद आज हमारा भारत आतंकवाद मुक्त होता ..कोई भी अपराध ..कोई भी आतंकवाद प्रायोजित नहीं होता किसी ना किसी गलती या फिर प्रतिकार का नतीजा होता है पुराने कार्यकाल में बीहड़ और जंगलों में डाकुओं की फसल जागीरदारों और राजा महाराजों महाजनों के अत्याचार ने ही उगाई थी आज उसी का दुसरा आधुनिक रूप आतंकवाद हो गया है ..आतंकवाद से निपटने में हमारी स्थति शतुरमुर्ग की तरह रही है जो रेट के ढेर में अपना मुंह छुपा कर सोचता है के उसने दुश्मन से खुद को बचा लिया है बस इसी तरह से नाथूराम गोडसे के आतंकवाद से ही आतंकवाद का धार्मिक वाद पैदा हो गया और किसी भी घटना के लियें पुरे धर्म पूरी जाती पुरे समाज को प्रताड़ित किया जाने लगा सरकार ने कभी भी आतंकवाद के कारणों की खोज कर उनके निवारण का कोई प्रयास नहीं किया कहीं न कहीं आतंकवाद को राजनितिक शाह भी बनी रही ..धर्म के नाम पर आतंकवाद को पनपाया गया आरोप प्रत्यारोप लगाकर आतंकवाद की समस्या से निपटने से बचा गया आज नतीजा यह के देश में किसी के घर बम फटता है तो अगर वोह हिन्दू होता है तो हिन्दू आतंकवाद का नतीजा बताया जाता है अगर वोह मुस्लिम होता है तो मुस्लिम आतंकवाद का नतीजा बताया जाता है नहीं तो सिक्ख आतंकवाद बता दिया जाता है अगर कुछ समझ में नहीं आये तो आई एस आई और पाकिस्तान , दाउद इब्राहिम का हाथ बता दिया जाता है कुल मिलाकर हम आतंकवाद के कारण और निवारण  की जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं हमारे देश में चिन्तक,विचारक , शोधकर्ता हैं जो इस समस्या की जांच पढ्ताल और खोज कर नयी रिपोर्ट दे सकते हैं ..हमारे देश में आज माओवादी ..नक्सली ..कश्मीरी ...लिट्टे और दुसरे आतंकवादियों की घटनाओं को देख कर यह आवश्यक हो गया है के देश में एक आतंकवाद समीक्षा कारण और निवारण मंत्रालय हो इसका प्रथक से मंत्री हो जो सभी प्रकार के आतंकवाद उसके कारण और निवारण के कारणों का पता लगाकर इसे जड़ से खत्म करने के लियें कार्यवाही करे तब कही इस मामले को गंभीरता से सुलझाया जा सकेगा वरना भाजपा कोंग्रेस हिन्दू मुस्लिम सिक्ख लिट्टे विचारधारा में यह आतंकवाद सदियों तक हमारे देश और देश की सुक्ख शान्ति की साँसें बंद कर देगा यह एक गंभीर प्रश्न है यदि आप भी इस विचार को के देश में आतंकवाद शोध..मामलात कारण और निवारण मंत्रालय स्थापित होना चाहिए जो गंभीरता से कार्य करे से सहमत है तो प्लीज़ राष्ट्रहित में इसे आगे बढ़ाएं इस विचार के पक्ष में मतदान कर इसे जाग्रति अभियान के तहत सरकार तक पहुंचा कर इसकी पालना के लियें सरकार को मजबूर करे और इस देश को बढ़ा ले ..अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
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"योगासन" नहीं "वोटासन"

जब से कलम घिसने "सारी" - अब तो कहना होगा "की बोर्ड" घिसने का रोग लगा है, सबेरे बजे उठ जाता हूँ। ठीक उसी समय "पत्नी- कृपा" से वो चैनल खुल जाता है जहाँ रामदेव बाबा योगासन की बात पूरे जोश में बता रहे होते हैं। टी०वी० को "फुल वाल्यूम" के साथ खोला जाता है ताकि वो दूसर कमरे में भी काम करें तो उन्हें सुनने में कोई कठिनाई हो। आदरणीय रामदेव जी के प्रति उनकी असीम भक्ति मेरे परिचतों के बीच भी सर्वविदित है। मुझे भी लाचारी में सुनना ही पड़ता है क्योंकि "आई हैव नो अदर च्वाईश एट आल" वैसे मुझे भी बाबा रामदेव के प्रति कोई विकर्षण तो है नहीं

मेरी पत्नी बहुत पान खाती है और बाबाजी प्रतिदिन "विदाउट फेल" इन बुराईयों से कोसों दूर रहने की ताकीद करते रहते हैं। पत्नीकी "रामदेवीय भक्ति" से प्रभावित होकर बहुत विनम्रता मैंने उनसे पूछने का दुस्साहस किया कि जब बाबा पान, गुटखा आदि खाने से इतने जोर से मना करते हैं और आप इतने श्रद्धाभाव और प्रभावी (शोर करके) ढंग से उन्हें रोज सुनतीं हैं, फिर ये पान क्यों खातीं हैं? मेरे सौभाग्य से उन्हें उस दिन गुस्सा नहीं आया और उनके पास कोई उचित जवाब भी नहीं था अपनी आदत की विवशता के अतिरक्त।

जिस तरह से एक चावल की जाँच से पूरी हाँडी में भात बनने या बनने का पता चल जाता है, ठीक उसी तर्ज पर मैं क्या कोई भी सोचने पर विवश हो जायेगा कि बाबा की सभाओं में उनकी बातों को समर्थन करने वाले क्या ऐसे ही लोग अधिक हैं? जो पान, गुटखा, शराब, खैनी, कोल्ड ड्रींक्स आदि छोड़ने की प्रतिदिन शपथ लेते हैं और योगासन करने के वादे के साथ हाथ उठाकर रामदेव जी के आह्वान का प्रत्यक्षतः समर्थन तो करते हैं पर व्यवहार में नहीं।

फिर याद आती है विगत दिनों भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए उनके द्वारा चलाए गए "भारत स्वाभिमान आन्दोलन" तहत उनके हुंकार की। वही भीड़ और वही समर्थन की जिसके दम पर उन्होंने रामलीला मैदान में अनशन के नाम पर हजारों की भीड़ इकट्ठा कर ली। फिर शासक वर्ग की मिमियाहट, बाद में रात में अचानक उसी शासकीय पक्ष के आक्रामक रूख की भी याद आती है जिसे "मीडिया" के सौजन्य से पूरे देश ने देखा और सुना।

लोगों ने यह भी देखा सुना कि जो बाबा सबेरे में स्वयं "राह कुर्बानियों की न वीरान हो - तुम सजाते ही रहना नये काफिले" जोर जोर से गा रहे थे, वही रात में जान बचाने के लिए एक बिशेष "रक्षा घेरा" बनबा कर मंच से कूदे और लोगों में "कूदासन" की होड़ लग गयी इसी क्रम में उन्हें "स्त्री-वस्त्र" तक भी धारण करना पड़ा देखते ही देखते "राह कुर्बानियों" की एकाएक वीरान हो गयी। खैर----

शासकीय पक्ष के व्यवहार के क्या कहने? दिन में "पुष्प" से स्वागत और रात में "कटार" से वार। वाह क्या सीन था? "क्षणे रूष्टा - क्षणे तुष्टा" क्या कहा जाय इस नाटकीय मोड़ को? शायद पाकिस्तानी तानाशाह भी इतनी जल्दी, वो भी एकदम विपरीत दिशा में, अपना विचार बदलने में शर्म महसूस करेंगे। एकाएक सत्ता पक्ष के लोगों को महाभारत के संजय की तरह "दिव्य दृष्टि" मिली और बाबा रामदेव "आदरणीय" से "महाठग" के रूप में अवतरित हो गए। सत्ता पक्ष ने "दिग्विजयी मुद्रा" में इसकी घोषणा भी शुरू कर दी और यह क्रम अब भी चल ही रहा है। पता नहीं कब तक चलेगा?

चाहे अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव - दोनों ने देश की नब्ज को पहचाना और ज्वलन्त मुद्दे भी उठाये जिसका कुल लब्बोलुआब भ्रष्टाचार ही रहा। पता नहीं "भ्रष्टाचार का मुद्दा" अब कहाँ चला गया? अब तो मुद्दा "सरकार बनाम रामदेव और अन्ना" के अहम् की टकराहट की ओर मुड़ गया है जो देश के स्वस्थ वातावरण के लिए किसी भी हालमें ठीक नहीं। गाँव की पान दुकान से लेकर दिल्ली तक जिसे देखो सब बहस में भिड़े हुए हैं। मजे की बात है कि सब भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं मगर भ्रष्टाचार अंगद के पाँव की तरह अडिग है।

जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत समझदारी है वर्तमान सरकार के वर्तमान रुख को मैं अंग्रेजी हुकूमत की "फोटोकापी" से कम नहीं देख पाता। जब हालात ऐसे हैं तब क्या गाँधीवादी कदम और क्या आध्यामिक योगासन? क्या सरकार पर कोई असर पड़ेगा? "सत्ता सुन्दरी" की आगोश में जकड़े ये मदहोश लोग क्या जानेंगे आम आदमी की पीड़ा और विवशता? वैसे भी वातानुकूलित कमरे में दुख कम दिखाई पड़ते होंगे। तो फिर सवाल उठता है कि क्या यूँ ही चुप रहा जाय? नहीं बिल्कुल नहीं। ये अंग्रेज भी नहीं हैं जो इन्हें मार-पीट के भगाया जा सके। फिर उपाय क्या है?

योगासन की दिशा में बाबा रामदेव के द्वारा किये गए कार्य को देश कभी नहीं भुला सकता। उन्होंने जन जागरणका जो काम किया है वह अतुलनीय है। लेकिन ये सत्ताधारी "गाँधीवाद" और "योग - आध्यात्म" की भाषा कहाँ समझ रहे हैं। ये तो सिर्फ "वोट" की भाषा समझते हैं और अन्ना और रामदेव के पास जबरदस्त जन-समर्थन भी है।

अतः बाबा जी आपने बहुत योगासन सिखाया और आगे भी सिखायें। लेकिन एक सलाह है कि उसके साथ साथ यहाँ की सीधी सादी जनता को "वोटासन" के "रहस्य" और "उपयोगिता"भी उसी तरह से सिखायें जिस तरह से योग सिखा रहे हैं ताकि इन बेलगाम सत्ताधीशों के होश अगले चुनाव तक ठिकाने जाए। वैसे मुझे यह भी मालूम है बाबा - मेरे जैसे कम "घास-पानी" वाले लोगों की बात पर कौन तबज्जो देगा। जय-हिन्द।
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अरे भई साधो......: रुपया बना चिल्लर..चिल्लर बना रुपया

आज कचहरी के पास फटे पुराने नोट बदलने वाले के काउंटर पर पुराने सिक्कों के बीच चवन्नी को भी तांबे और अलुमिनियम के पुराने सिक्कों के बीच पूरे सम्मान के साथ प्रदर्शित देखा. जिज्ञासावश पूछ बैठा कि इसकी कीमत क्या है. उसने बताया दो रुपये. उसमें आजादी के बाद बंद हुए और प्रचलन से बाहर हुए सिक्के थे. मुझे ख़ुशी हुई कि भारतीय बैंक जिस सिक्के को उसकी निर्धारित कीमत पर वापस लेने की अंतिम तिथि को पीछे छोड़ आये हैं निजी क्षेत्र में उसकी आठ गुनी कीमत लग रही है. पुराना एक पैसा, दो पैसा, तीन पैसा. एक आना, दो आना, पांच पैसा. दस पैसा के सिक्के दो रुपये में बिक रहे हैं. यानी सरकार ने जिन्हें चिल्लर की हैसियत से ख़ारिज कर दिया वे रुपये में परिणत हो चुके हैं. दूसरी तरफ एक रुपये का सिक्का जिसे कभी बाज़ार में रुपये की हैसियत प्राप्त थी आज चिल्लर में परिणत हो चुका है.

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क़ुरआन किसी इंसान का कलाम नहीं है बल्कि इंसान के पैदा करने वाले का कलाम है (कुरआन और विज्ञान )

इस तरह की अनगिनत निशानियां हैं जो बताती हैं कि क़ुरआन किसी इंसान का कलाम नहीं है बल्कि इंसान के पैदा करने वाले का कलाम है। जो लोग साफ़ दिल रखते हैं वे इसे ऐलानिया मानते भी हैं। नीचे एक ऐसी ही घटना का बयान दिया जा रहा है।
त्वचा में दर्द के अभिग्राहकः Receptors
पहले यह समझा जाता था कि अनुभूतियां और दर्द केवल दिमाग़ पर निर्भर होती है। अलबत्ता हाल के शोध से यह जानकारी मिली है कि त्वचा में दर्द को अनुभूत करने वाले ‘‘अभिग्राहक: Receptors होते हैं। अगर ऐसी कोशिकाएं न हों तो मनुष्य दर्द की अनुभूति (महसूस) करने योग्य नहीं रहता । जब कोई ड़ॉ. किसी रोगी में जलने के कारण पड़ने वाले घावों को इलाज के लिये, परखता है तो वह जलने का तापमान मालूम करने के लिये: जले हुए स्थल पर सूई चुभोकर देखता है अगर सुई चुभने से प्रभावित व्यक्ति को दर्द महसूस होता है, तो चिकित्सक या डॉक्टर को इस पर प्रसन्नता होती है। इसका अर्थ यह होता है कि जलने का घाव केवल त्वचा के बाहरी हद तक है और दर्द महसूस करने वाली केशिकाएं जीवित और सुरक्षित हैं। इसके प्रतिकूल अगर प्रभावित व्यक्ति को सुई चुभने पर दर्द अनुभूत नहीं हो तो यह चिंताजनक स्थिति होती है क्योंकि इसका अर्थ यह है कि जलने के कारण बनने वाले घाव: ज़ख़्म की गहराई अधिक है और दर्द महसूस करने वाली कोशिकाएं भी मर चुकी हैं।
‘‘जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इन्कार कर दिया उन्हें निस्संदेह, हम आग में झोंकेंगे और जब उनके शरीर की‘ त्वचा: खाल गल जाएगी तो, उसकी जगह दूसरी त्वचा पैदा कर देंगे ताकि वह खू़ब यातना: अज़ाब का स्वाद चखें अल्लाह बड़ी ‘कु़दरत: प्रभुता‘‘ रखता है और अपने फै़सलों को व्यवहार में लाने का ‘विज्ञान: हिक्मत‘ भली भांति जानता है।(अल-क़ुरआन:सूर: 4 आयत .56 )
थाईलैण्ड में – चियांग माई युनीवर्सिटी के उदर विभागः Department of Anatomy के संचालक प्रोफ़ेसर तीगातात तेजासान ने दर्द कोशिकाओं के संदर्भ में शोध पर बहुत समय खर्च किया पहले तो उन्हे विश्वास ही नहीं हुआ कि पवित्र कु़रआन ने 1400 वर्ष पहले इस वैज्ञानिक यथार्थ का रहस्य उदघाटित कर दिया था। फिर इसके बाद जब उन्होंने उपरोक्त पवित्र आयतों के अनुवाद की बाज़ाब्ता पुष्टि करली तो वह पवित्र क़ुरआन की वैज्ञानिक सम्पूर्णता से बहुत ज़्यादा प्रभावित हुए। तभी यहां सऊदी अरब के रियाज़ नगर में एक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसका विषय था ‘‘पविन्न क़ुरआन और सुन्नत में वैज्ञानिक निशानियां‘‘ प्रोफ़ेसर तेजासान भी उस सम्मेलन में पहुंचे और सऊदी अरब के शहर रियाज़ में आयोजित ‘‘आठवें सऊदी चिकित्सा सम्मेलन‘‘ के अवसर पर उन्होंने भरी सभा में गर्व और समर्पण के साथ सबसे पहले कहा:
‘‘अल्लाह के सिवा कोई माबूद पूजनीय नहीं, और (मुहम्मद स.अ.व.)उसके रसूल हैं।‘‘
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आम आदमी और बाढ़ का सुख

शीर्षक की सार्थकता रखते हुए पहले "आम आदमी" की बात कर लें। "आम" एक स्वादिष्ट, मँहगा और मौसमी फल है, जिसकी आमद बाढ़ की तरह साल में एक ही बार होती है। मजे की बात है कि आम चाहे जितना भी कीमती क्यों हो, अगर वह किसी भी शब्द के साथ जुड़ जाय तो उसका भाव गिरा देता है। मसलन- आम आदमी, आम बात, आम घटना, दरबारे आम, आम चुनाव इत्यादि। अंततः हम सभी "आम आदमी" की भौतिक उपस्थिति और उनको मिलने वाले "पंचबर्षीय सम्मान" से पूर्णतः अवगत हैं।



मैं भी उन कुछ सौभाग्यशाली लोगों में से हूँ जिसका जन्म कोसी प्रभावित क्षेत्र में हुआ है। एक लघुकथा की चर्चा किए बिना बात नहीं बनेगी। बाढ़ के समय आकाश से खाद्य - सामग्री के पैकेट गिराए जाते हैं और प्रभावित आम आदमी और उनके बच्चे उसे लूटकर खूब मजे से खाते हैं, क्योंकि आम दिनों में तो गरीबी के कारण इतना भी मयस्सर नहीं होता। बाढ़ का पानी कुछ ही दिनों में नीचे चला जाता है और आकाश से पैकेट का गिरना बंद। तब एक मासूम बच्चा अपनी माँ से बड़ी मासूमियत से सवाल पूछता है कि - " माँ बाढ़ फिर कब आएगी"? अपने आप में असीम दर्द समेटे यह लघुकथा समाप्त। लेकिन बच्चों का अपना मनोविज्ञान होता है और वह पुनः बाढ़ की अपेक्षा करता है एक सुख की कामना के साथ।



मौसम में "सावन-भादों" का अपना एक अलग महत्व है। दंतकथा के अनुसार अकबर भी बीरबल से सवाल करता है कि - एक साल में कितने महीने होते हैं? तो बीरबल उत्तर देता है - दो, यानि सावन-भादो, क्योंकि पूरे साल इसी दो महीनों की बारिश की वजह से फसलें होतीं हैं। बहुत पहले एक फिल्म आयी थी "सावन-भादों" और उससे उत्पन्न दो फिल्मी कलाकार नवीन निश्छल और रेखा आज भी कमा खा रहे हैं। कभी आपने सुल्तानगंज से देवघर की यात्रा की है? यदि हाँ तो जरूर सुना होगा कि इस एक सौ बीस किलोमीटर की दूरी में बसनेवाले "आम आदमी" मात्र दो महीने अर्थात "सावन- भादो" की कमाई पर ही साल भर गुजारा करते है।



ठीक इसी तरह "कोसी परियोजना" या फिर "बाढ़ नियंत्रण विभाग", "जल-संसाधन विभाग" आदि से जुड़े "सरकारी" लोगों के लिए "सावन-भादों" का अपना महत्व है और उससे उत्पन्न सुख से उनका साल भर बिना "नियमित वेतन" को छुए, बड़े मजे से गुजारा चलता है। यदि बाढ़ जाए तो फिर क्या कहने?



भारत भी अजब "राष्ट्र" है जिसके अन्दर "महाराष्ट्र" जैसा राज्य है। ठीक उसी तरह बिहार राज्य के अन्दर एक ही जगह का नाम "बाढ़" है और "बाढ़" को छोड़कर कई जगहों में हर साल बाढ़ आती है। जहाँ पीने के पानी के लिए लोग हमेशा तरसते हैं, वहाँ के लोग आज "पानी-पानी" हो गए है और "रहिमन पानी राखिये" वाली बात को यदि ध्यान में रखें तो प्रभावित लोगों का आज "पानी" ख़तम हो रहा है।



बाढ़ के साथ कई प्रकार के सुख का आगमन स्वतः होता है। जैसे बाँध को टूटने से बचाने के लिए उपयोग लाये जानेवाले बोल्डर, सीमेंट का भौतिक उपयोग चाहे हो या हो लेकिन खाता-बही इस चतुराई से तैयार किए जाते हैं कि किसी जाँच कमीशन की क्या मजाल जो कोई खोट निकाल दे? रही बात राहत- पुनर्वास के फर्जी रिहर्सल की, वो भी बदस्तूर चलता रहता है। मजे की बात है कि पिछले साल के लाखों बाढ़ प्रभावित लोगों को आज भी राहत पुनर्वास का इन्तजार है।



न्यूज चैनल वालों का भी "सबसे पहले पहुँचने" का एक अलग सुख है। डूबते हुए लोगों से पूछना - आप कैसा महसूस कर रहे हैं? आदि बेतुके और चिरचिराने वाले सवालों का, वीभत्स और अन्दर तक झकझोरने वाले दृश्यों को बार-बार दिखलाने का, राहत पुर्वास के नाम पर नेताओं के बीच नकली "मीडियाई युद्ध" कराने का भी आनंद ये लोग खूब उठाते हैं।



"कटा के अंगुली शहीदों में नाम करते हैं" वाली कहावत यहाँ साक्षात चरितार्थ होती है। "थोडी राहत - थोड़ा दान, महिमा का हो ढ़ेर बखान" - ऐसा दृश्य भी काफी देखने को मिलता है। एक से एक "आम जनता" के तथाकथित "शुभचिंतक" कहाँ से जाते हैं, राजनैतिक रोटी सकने के लिए कि क्या कहूँ? बाढ़ के कारण चाहे लाखों एकड़ की फसलें क्यों बर्बाद हो गईं हों, लेकिन राजनितिक "फसल" लहलहा उठते हैं। राजनीतिज्ञों के "हवाई-सर्वेक्षण" का अपना सुख है। ऊंचाई से देखते हैं कि "आम आदमी कितने पानी" में है? और आकाश से ही तय होता है कि अगले पाँच बरस तक आम आदमी की "भलाई" कौन करेगा।


निष्कर्ष यह कि "आम" और "बाढ़" दोनों राष्ट्रीय धरोहर हैं - एक राष्ट्रीय फल तो एक राष्ट्रीय आपदा जय-हिंद।।
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ब्लॉगिंग के साइड इफ़ेक्ट (नकारात्मक प्रभाव) Hindi Blogging Guide (3)

शिखा कौशिक जी एक रिसर्च स्कॉलर हैं। इसीलिए उनकी नज़र में भी उनके दिल की तरह गहराई बहुत है। वह हरेक चीज़ के उजले पक्ष के साथ उसके काले पहलू पर भी पूरी तवज्जो देती हैं। यही वह तरीक़ा है जिसके ज़रिए इंसान ख़ुद को नुक्सान से बचा सकता है। नए ब्लॉगर्स को नुक्सान से बचाने के लिए ही उन्होंने ‘हिंदी ब्लॉगिंग गाइड‘ के लिए यह लेख लिखा है। इसके ज़रिए उन्होंने संक्षेप में यह बता दिया है कि ब्लॉगिंग को नशे की लत की तरह न अपनाया जाए बल्कि इसे होशमंदी के साथ बरता जाए और भलाई के लिए इसका इस्तेमाल किया जाए।
पेश है शिखा कौशिक जी का लेख :
आज सम्पूर्ण विश्व कंप्यूटरमय होने की दिशा में  प्रयासरत है . बैंकिंग क्षेत्र, तकनीकी संस्थान और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठान कंप्यूटर के मशीनी दिमाग़ से लाभ उठा रहे हैं ; वहीं लाइफ़  लाइन बने इंटरनेट ने दुनिया भर के कम्प्यूटर्स को जोड़कर सम्पूर्ण विश्व को ग्लोबल फ़ैमिली में बदल दिया है . इसी क्रम में 'वर्ड प्रेस' व 'ब्लॉगर' आदि ने इंटरनेट यूज़र्स को जो सुविधाएंदी हैं उन से लाभ उठाते हुए  आज अंग्रेज़ी  व हिंदी सहित अनेक भाषाओं  में करोड़ों ब्लॉग स्थापित किये जा चुके हैं . ये ब्लॉग साहित्य; तकनीक; कला; राजनीति आदि अनेक क्षेत्रों से सम्बंधित सामग्री उपलब्ध कराते  हैं .
'ब्लॉग' को हिंदी भाषी लोग 'चिट्ठा' भी कहते हैं. सरल शब्दों में यह चिट्ठाकार की निजी डायरी का ही ऑनलाइन  रूप है . चिट्ठाकारी ने जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को यह सुअवसर प्रदान किया है कि वह अपनी रचनाओं को स्वयं प्रकाशित कर पाठकों से उनकी प्रतिक्रियाएं तुरंत प्राप्त कर सकें वहीं दूसरी ओर प्रकाशकों की मनमानी को भी ठेंगा दिखा दिया है .आज हर ब्लॉगर स्वयं ही लेखक है और स्वयं ही प्रकाशक भी .ये है ब्लॉगिंग के सिक्के का एक पहलू . अब ज़रा दूसरे पहलू पर भी विचार करते हैं .  इसके नकारात्मक प्रभाव भी हमारी नज़र के सामने रहने चाहिएं .
क्या हैं ये नकारात्मक प्रभाव ?
इन पर निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत विचार किया जा सकता है -

(1) स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव - सबसे पहले ब्लॉगिंग के उन प्रभावों पर विचार करें जो कि स्वास्थ्य पर पड़ते हैं  तो यह तथ्य प्रकट होता है कि ब्लॉगर को ब्लॉगिंग का नशा इस तरह अपनी गिरफ़्त में ले लेता है कि वह अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय पी.सी., लैपटौप और मोबाईल पर ख़र्च करने लगता है .ब्लॉगिंग न कर पाए तो वह थकान  महसूस करता है , अनमना सा और चिड़चिड़ा भी हो जाता है . ज़्यादा ब्लॉगिंग करने के कारण उसे  पीठ दर्द, सिरदर्द और थकान जैसी अनेक शारीरिक समस्याएं परेशान करने लगती हैं . ब्लॉगिंग न करने पर आदमी में बेचैनी व  तनाव बढ़ता है, यहाँ तक कि दिमाग़ी गतिविधियों  और ब्लड प्रेशर तक में परिवर्तन होता देखा गया है . ब्लॉगिंग के चक्कर में व्यक्ति खाने व  सोने जैसे अनिवार्य  कामों की  उपेक्षा करता है . जिसका अंजाम  ख़राब स्वास्थ्य के रूप में उसे भुगतना पड़ता है .

(2) परिवार की अनदेखी -   ब्लॉगिंग करने वाला व्यक्ति परिवार की अनदेखी भी करने लगता है .वह अपना ख़ाली समय बच्चों, पत्नी व अन्य परिजनों  के साथ बिताने में ख़र्च  न करके ब्लॉग-पोस्ट लिखने में लगा देता है .जाहिर है कि इससे परिवार के लोगों के आपसी संबंधों में खिचाव आने लगता है .

(3) आउटडोर  गतिविधियों की अनदेखी - ब्लॉगिंग के आदी लोग ब्लॉग-जगत की दुनिया में इतना मग्न हो जाते हैं कि जरूरी काम निपटाकर तुरंत कंप्यूटर पर ब्लॉग गतिविधियों में रम जाते है .इसके चक्कर में वे अपने आस-पास के लोगों से कट जाते हैं और बाहरी गतिविधियों में रुचि लेना बंद कर देते हैं .एक ओर ब्लॉगिंग जहाँ संसार भर के लोगों के बीच दूरियां काम कर रही है वहीं आदमी को उसके सामाजिक दायरे से काट कर एकाकी और तन्हा भी बना रही है -
फ़ासलों की दुनिया में दूरियां नहीं बाक़ी
आदमी जहां भी है दायरों में है
(4) फ़र्ज़ी और काल्पनिक प्रोफ़ाइल  वाले  ब्लॉग भी ढेरों हैं ब्लॉग-जगत में. जिनसे हर पल यह भय बना रहता है कि आपकी रचनाओं की कॉपी कर कोई अन्य इनके लेखन का श्रेय न ले उड़े .कई बार असली परिचय छिपाकर कुछ ब्लौगर अपनी धार्मिक , राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नफरत फैलाने वाले लेख भी लिखते हैं, जिनसे वे तनाव पैदा करने का कुत्सित प्रयास भी करते हैं .

(5) वर्चस्व की लड़ाई से ब्लॉग जगत भी अछूता नहीं है .कुछ ब्लॉगर  धन-बल से समस्त ब्लॉग जगत को अपनी निजी  संपत्ति  बनाने में लगे रहते हैं .वे एक पसंदीदा ब्लॉगर-समूह बना लेते हैं और फिर उन्हें सम्मानित करने के लिए भव्य आयोजन करते हैं . सम्पूर्ण ब्लॉग जगत में वे इसका प्रचार प्रसार भी करते हैं .  स्वयं द्वारा सम्मानित ब्लोगर्स को अन्य ब्लोगर्स कि तुलना में श्रेष्ठ घोषित कर देते हैं, जिससे अच्छा लेखन करने वाले ब्लोगर्स हतोत्साहित होते हैं .

(6) महिला ब्लॉगर्स और भी अधिक सजग रहकर ब्लॉग पोस्ट डालनी होती है .कई बार महिला ब्लोगर्स को ज्वलंत मुद्दे उठाने के लिए वास्तविक पहचान छिपाकर ब्लोगिंग करने के लिए मजबूर होना पड़ता है .यहाँ एक महिला ब्लोगर द्वारा अपने प्रोफ़ाइल में उद्धृत ये पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं -
'मैं द्रौपदी हूँ और चीर-हरण से डरती हूँ .'

                             ब्लॉगिंग  के नकारात्मक प्रभावों से डरकर ब्लोगिंग छोड़ देना तो उचित नहीं है और न ही संभव है . ज़रुरत है संयमित ,सजग  व  सटीक ब्लॉगिंग की .वास्तव में यह आज के हरेक रचनाशील व्यक्ति के लिए एक वरदान है . आज ब्लॉगिंग ने हमें यह सुअवसर दिया  है कि हम अपने निजी अनुभवों , स्थानीय और  राष्ट्रीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर निर्भीक होकर विचार प्रस्तुत कर सकें . जहाँ तक मैंने महसूस किया है, महिला ब्लॉगर्स  को प्रोत्साहित ही किया जाता है और यदि कोई अभद्र  टिप्पणियों के द्वारा उन्हें परेशान करता है, तब  मॉडरेशन लागू करने की सुविधा भी मौजूद है. इसके ज़रिये  टिप्पणियों का निरिक्षण  पहले ब्लॉगर स्वयं करता है . बेहूदा  टिप्पणियों को हटाया जा सकता है.
            हरेक ब्लॉगर को यह भी ध्यान रखना चाहिये कि वह ब्लॉगिंग के चक्कर में न तो अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ करे और न ही परिवार की ज़रूरतों को नज़र अंदाज़ करे . समय-सीमा का ध्यान रखते हुए ब्लॉगिंग का शौक़ पूरा करें.
                   जो ब्लॉग  धार्मिक कट्टरता, राजनैतिक विद्वेष और अशालीन सामग्री से युक्त हैं, उन्हें  उपेक्षित कर देना ही मुनासिब हैं. ऐसा करके हम सभी ब्लॉग जगत की गरिमा बनाये रखने में अपना  योगदान दे सकते हैं . आने वाले समय में ब्लॉगिंग  का भविष्य सुनहरा है क्योंकि ब्लॉगर दिल से लिखता है दबाव में नहीं .
                                    जय हिंद 
                                - शिखा कौशिक
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चवन्नी का अवसान : चवनिया मुस्कान

सच तो ये है कि चवन्नी से परिचय बहुत पहले हुआ और "चवनिया मुस्कान" से बहुत बाद में। आज जब याद करता हूँ अपने बचपन को तो याद आती है वो खुशी, जब गाँव का मेला देखने के लिए घर में किसी बड़े के हाथ से एक चवन्नी हथेली पर रख दिया जाता था "ऐश" करने के लिए। सचमुच मन बहुत खुश होता था और चेहरे पर स्वाभाविक चवनिया मुस्कान आ जाती थी। हालाकि बाद में चवनिया मुस्कान का मतलब भी समझा। मैं क्या पूरे समाज ने समझा। मगर उस एक दो चवन्नी का स्वामी बनते ही जो खुशी और "बादशाहत" महसूस होती थी, वो तो आज हजारों पाकर भी नहीं महसूस कर पाता हूँ।

15 अगस्त 1950 से भारत में सिक्कों का चलन शुरू हुआ। उन दिनों "आना" का चलन था आम जीवन में। आना अर्थात छः पैसा और सोलह आने का एक रूपया। फिर बाजार और आम आदमी की सुविधा के लिए 1957 में दशमलव प्रणाली को अपनाया गया यानि रूपये को पैसा में बदल कर। अर्थात एक रूपया बराबर 100 पैसा और 25 पैसा का सिक्का चवन्नी के नाम से मशहूर हो गया।

भले ही 1957 में यह बदलाव हुआ हो लेकिन व्यवहार में बहुत बर्षों बाद तक हमलोग आना और पैसा का मेल कराते रहते थे। यदि 6 पैसे का एक आना और 16 आने का एक रूपया तो उस हिसाब से एक रुपया में तो 16x6 = 96 पैसे ही होना चाहिए। लेकिन उसको पूरा करने के लिए हमलोगों को समझाया जाता था कि हर तीन आने पर एक पैसा अधिक जोड़ देने से आना पूरा होगा। मसलन 3 आना = 3x6+1=19 पैसा। इस हिसाब से चार आना 25 पैसे का, जो चवन्नी के नाम से मशहूर हुआ। फिर इसी क्रम से 7 आने पर एक पैसा और अधिक जोड़कर यानि 7x6+2 = 44 पैसा, इसलिए आठ आना = 50 पैसा, जो अठन्नी के नाम से आज भी मशहूर है और अपने अवसान के इन्तजार में है। उसके बाद 11 आने पर 3 पैसा और 14 आने पर 4 पैसा जोड़कर 1 रुपया = 16x6+4 = 100 पैसे का हिसाब आम जन जीवन में खूब प्रचलित था 1957 के बहुत बर्षों बाद तक भी।

हलाँकि आज के बाद चवन्नी की बात इतिहास की बात होगी लेकिन चवन्नी का अपना एक गौरवमय इतिहास रहा है। समाज में चवन्नी को लेकर कई मुहाबरे बने, कई गीतों में इसके इस्तेमाल हुए। चवन्नी की इतनी कीमत थी कि एक दो चवन्नी मिलते ही खुद का अन्दाज "रईसाना" हो जाता था गाँव के मेलों में। लगता है उन्हीं दिनों मे किसी की कीमती मुस्कान के लिए "चवनिया मुस्कान" मुहाबरा चलन में आया होगा। चवन्नी का उन दिनों इतना मोल था कि "राजा भी चवन्नी ऊछाल कर ही दिल माँगा करते थे"। यह गीत बहुत मशहूर हुआ आम जन जीवन में जो 1977 में बनी फिल्म "खून पसीना" का गीत है।

"मँहगाई डायन" तो बहुत कुछ खाये जात है। मँहगाई बढ़ती गयी और छोटे सिक्के का चलन बन्द होता गया। 1970 में 1,2और 3 पैसे के सिक्के का चलन बन्द हो गया और धीरे धीरे चवन्नी का मोल भी घटता गया। चवन्नी का मोल घटते ही "चवन्नी छाप व्यापारी", "चवन्नी छाप डाक्टर" आदि मुहाबरे चलन में आये जो क्रमशः छोटे छोटे व्यापारी और आर०एम०पी० डाक्टरों के लिए प्रयुक्त होने लगा।

और आज चवन्नी का इतना मोल घट गया "मंहगाई डायन" के कारण कि आज उसका का अतिम संस्कार है। चवन्नी ने मुद्रा विनिमय के साथ साथ समाज से बहुत ही रागात्मक सम्बन्ध बनाये रखा बहुत दिनों तक। भले आज से चौवन्नी का अंत हो जाय लेकिन ये मुहावरे, ये गीत बहुत दिनों तक चौवन्नी जीवित रखेंगे। अतः मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है चवन्नी को चौवानिया मुस्कान के साथ उसके इस शानदार अवसान पर।
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ब्लॉगिंग के फ़ायदे hindi Blogging Guide (2)

शालिनी कौशिक एडवोकेट हिंदी ब्लॉग जगत के लिए एक जाना पहचाना नाम है। 
शालिनी जी ‘हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल‘ की लीगल एडवाइज़र भी हैं। बहुत सी प्रतियोगिताओं में आपने भाग लिया है और सफलता भी पाई है। हरेक सकारात्मक काम में यह शरीक रहती हैं और यही वजह है कि हर जगह इन्हें सम्मान हासिल है और इनकी बात पर ध्यान दिया जाता है।
‘हिंदी ब्लॉगिंग गाइड‘ की तैयारी में भी आपने हर तरह सहयोग दिया है और एक लेख भी इस गाइड के लिए लिखा है। आज वही आपके लिए पेश किया जा रहा है। उम्मीद है कि आप भी उसे मुनासिब ध्यान देंगे।
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ब्लॉगिंग के फ़ायदे
लेखन का शौक ,यदि मैं याद करने की कोशिश करूँ तो बहुत याद करने पर भी कोई  निश्चित  वर्ष या समय मैं इसका नहीं बता सकती हाँ इतना याद अवश्य आता है की कक्षा ६ से ही मैंने अपने विद्यालय में स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर भाषण देने आरम्भ कर दिए थे और ये भाषण मैं स्वयं पुस्तकों की सहायता से तैयार करती थी .मेरे इस कार्य की सराहना होती गयी और मेरा उत्साह बढ़ता गया .
          कक्षा ९ व् १० की गृह्परीक्षा मेरे लिए बहुत उत्साह वर्धक समय था .कक्षा ९ में चन्द्र शेखर आज़ाद से सम्बंधित प्रश्न में मैंने उन पर आधारित खंड काव्य की निम्न पंक्तियाँ उद्धृत की -
           ''मोटर गाड़ी की सीखी थी ड्राईवरी  और पैसे की खातिर मठाधीश के शिष्य बने ,
           इस देश प्रेम ने क्या क्या नहीं बनाया था आज़ाद वीर को वह अति तुच्छ विशिष्ट बने.''
एक और -
पूछा उसने क्या नाम बता ,'आज़ाद'
पिता को क्या कहते? 'स्वाधीन' पिता का नाम 
और बोलो किस घर में हो रहते?
 कहते हैं जेलखाना जिसको वीरो का घर है,
हम उसमें  रहने वाले हैं उद्देश्य मुक्ति का संघर्ष है.
       ये पढ़ कर मेरी शिक्षिका वर्मा मैडम इतनी खुश हुई की उन्होंने मुझे ३३ में से ३२ अंक दिए और सारी कक्षा के सामने मेरी तारीफ भी जम कर की 
    ऐसे ही कक्षा १० में गृह परीक्षा में तुलसीदास जी की जीवनी लिखनी थी और मैंने [जिसके लिए कॉपी भरना बेहद कठिन कार्य था] उन पर १०-१२ पन्ने लिखे जिससे मेरी शिक्षिका सुरेश बाला गुप्ता मैडम जी ने मेरे इस लेखन  की विद्यालय और अपने घर पर खूब प्रशंसा की .
    जैसे कि आप सभी को पता है की प्रशंसा व्यक्ति को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है ऐसे ही मुझे भी किया . बी.ए.में आने पर मैंने राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र में पत्र भेजा और मेरा वह पत्र छप गया . यह मेरे द्वारा लिखा गया पहला पत्र था और पत्र का शीर्षक था , 'दूर दर्शन का हिंदी ज्ञान'.इस तरह अमर उजाला , दैनिक जागरण, हिंदुस्तान आदि में मेरे १००-१५० पत्र छपे होंगे और मेरी लेखन क्षुधा को बढ़ने के लिए यह पर्याप्त था और वह बढ़ती  भी जा रही थी किन्तु कहीं से भी यह समझ नहीं आ रहा था कि यदि  मुझे अपने बड़े आलेख छपवाने हों तो मैं कैसे छपवाऊं ?
एक दिन इसका रास्ता भी मुझे समाचार पत्रों ने दिखाया और वह रास्ता था 'ब्लॉग लेखन'.
इस तरह से मेरे जीवन में ब्लोगिंग का प्रवेश हुआ और इसके जो फायदे मुझे दिखाई दिए वे ये हैं-
१-हमारा मन हमारे आस पास की गतिविधियों, दूर दराज़  की घटनाओं के विषय में बहुत कुछ सोचता है और उसे अभिव्यक्त करने को मचलता है. ब्लॉगिंग हमारी इस अभिव्यक्ति के लिए एक मंच प्रदान करती है .
२-आज की ज़िन्दगी दौड़-भाग भरी है. हम अपने कामों में इतने व्यस्त रहते हैं कि शेष दुनिया से जुड़ने का वक़्त नहीं मिलता. ब्लॉगिंग के ज़रिये हम देश दुनिया के विद्वानों से घर बैठे मिल सकते हैं और अपने आलेखों कविताओं की कमियों को भी उनकी टिप्पणियों  के माध्यम से जान कर दूर कर सकते हैं.
३-आपने खुद महसूस किया होगा कि  जब हम ख़ाली  होते हैं तो कितना समय बेवजह की निंदा में व्यय करते गंवाते हैं जिसका कोई मतलब नहीं होता और ज़्यादातर ऐसा करने के बाद हमें खुद भी अच्छा महसूस नहीं होता किन्तु ब्लॉगिंग ऐसा कार्य है जिसे करने के बाद मन प्रफुल्लित हो उठता है क्योंकि इसमें अधिकांशतया हम जो बातें  करते हैं , जो भावना अभिव्यक्त करते हैं वह विभिन्न  समस्याओं , सर्वहित से जुडी  होती हैं और इससे हमें आत्मसंतुष्टि मिलती है .
4-ब्लॉगिंग में किसी भी मुद्दे पर ब्लोगर की राय द्वारा हमें बहुत ही सहज रूप से यह ज्ञात हो जाता है कि वर्तमान में जनमत का झुकाव किस ओर है.
५-ब्लॉगिंग द्वारा हम समान अभिरुचि वाले ब्लॉगर्स से जुड़ते हैं ओर उनसे अपने विचार साझा करते हैं जबकि ऐसा सुअवसर बहुत सी बार हमें हमारे परिवार व  समाज तक में नहीं मिल पाता .
६-इसके माध्यम से हमारी भाषा भी समृद्ध होती है ओर यदि हम किसी विषय में ग़लत  राय रखते हैं तो वह भी सुधर जाती है.
       और अधिक क्या कहूं ब्लॉगिंग  में मुझे लाभ ही लाभ दिखते हैं, यह मेरा तनाव दूर करती है, मेरा जीवन खुशियों से भर देती है और इसके लिए तो मैं कबीरदास जी के शब्दों में यही कहूँगी- 
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल,
लाली देखन मैं चली मैं भी हो गयी लाल.
                            शालिनी कौशिक एडवोकेट 
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अरे भई साधो......

स्कूल की स्पेलिंग क्या होती है? एससीएचओओएल या फिर एसकेयूएल? पहली स्पेलिंग किताबी है और दूसरी इंटरनेट पर प्रचलित यूनिकोड फौंट में ट्रांसलिटरेशन की. इंटरनेट पर किताबी स्पेलिंग नहीं चलती. यह पूरी तरह शब्दों के उच्चारण से उत्पन्न होने वाली ध्वनि पर आधारित होती है. यह पूरी तरह वैज्ञानिक है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य भी. लेकिन कल रांची के जिला शिक्षा पदाधिकारी की मौजूदगी में एडमिशन टेस्ट के दौरान जब एक बच्ची ने पूछे गए शब्दों की स्पेलिंग इंटरनेट की भाषा के आधार पर बताई तो डीईओ साहब पूरी तरह उखड गए. उन्होंने शिक्षकों को बेतरह फटकार लगायी. नप जाने की धमकी डी. बच्ची को भी पढाई पर ध्यान देने को कहा. हांलाकि उसका एडमिशन ले लिया गया. रांची के एक सम्मानित दैनिक अखबार ने इस प्रकरण पर खूब चटखारे ले-लेकर छः कॉलम की एक खबर बनायीं. उसमें एक कार्टून भी डाला.
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आखिर कोन हो तुम मेरे

आखिर कोन हो तुम मेरे

कोन हो 
तुम मेरे 
जो 
बालपन से ही 
बुढापे तक 
मेरे साथ लगे हो 
मेरी आस बने हो 
जब में रोता हूँ 
तुम तडपते हो 
जब में हंसता  हूँ 
तुम ख़ुशी से 
झूम उठते हो 
बस में जब भी 
तुम से 
मुझ से मुझे 
मिलाने को कहता हूँ 
हां तुम , हाँ तुम 
कतरा कर निकल जाते हो 
जब भी एकांत में 
तुम से में 
अपने दिल की बात 
कहना चाहता हूँ 
तुम यूँ ही 
चल हठ कहते हुए 
मुस्कुरा कर 
निकल जाते हो ..
में नहीं समझा 
तुम्हे आज तक 
तुम 
जब होते हो 
तब भी 
जब नहीं होते हो 
तब भी 
मुझे मिलन की आस में 
कभी तडपते हो 
कभी रुलाते हो  
आखिर कोन हो तुम मेरे ................अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
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हिंदी ब्लॉगिंग गाइड का मक़सद Hindi Blogging guide Sereis (1)



हिंदी ब्लॉगिंग गाइड के तक़रीबन सभी लेख हमें प्राप्त हो चुके हैं। अब हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल पर वे सभी लेख इस आशय से पेश किए जाएंगे कि नए हिंदी ब्लॉगर तो उनके ज़रिए से कुछ हासिल कर लें और पुराने हिंदी ब्लॉगर्स कुछ ऐसे सुझाव दें कि उन्हें और ज़्यादा उपयोगी बनाया जा सके।
हिंदी ब्लॉगिंग गाइड की रचना मक़सद यह है कि जो हिंदी पाठक अभी तक ब्लॉगिंग से अनजान हैं, उन्हें ब्लॉगिंग के बारे में मुकम्मल जानकारी दी जाए।
इस तरह नए लोग ब्लॉगिंग से जुडेंगे और जिस काम से लगातार नए लोग जुड़ते रहें, उसका विकास ख़ुद ब ख़ुद होता चला जाता है।
आज लगभग 40 हज़ार हिंदी ब्लॉग मौजूद हैं। जो लोग हिंदी जानते हैं और नेट यूज़ करते हैं, उनकी तादाद करोड़ों में है। इन करोड़ों लोगों को हिंदी ब्लॉगिंग से जोड़ना ही हमारा मक़सद है।
कुछ देशों में इंटरनेट को बिजली और पानी की तरह नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों की सूची में शामिल कर लिया गया है और देर-सवेर अपने देश में भी यही होकर रहेगा।
हिंदी एक उन्नत भाषा है। हिंदी भाषियों का एक वर्ग भी काफ़ी उन्नत है। तरह तरह की प्रतिभाएं हिंदी बोलने वालों में मौजूद हैं। ये सभी प्रतिभाएं ब्लॉगिंग से जुड़ेंगी तो सभी एक दूसरे की योग्यताओं से लाभ उठाएंगे और इस तरह सभी की क़ाबिलियत में कई गुना इज़ाफ़ा होगा।
इस गाइड का मक़सद यह भी है कि जो पुराने ब्लॉगर हैं, उन्हें नए ब्लॉगर की मदद के लिए तैयार किया जा सके। अक्सर ब्लॉगर कुछ परेशानियों से घबराकर ब्लॉगिंग छोड़ बैठते हैं। अगर उन्हें समय पर मदद मिल जाती तो वे हमारे दरम्यान बने रह सकते थे। इस गाइड को तैयार करने वाले सभी ब्लॉगर अपने तजर्बे की बुनियाद पर नए ब्लॉगर्स की मदद भी करेंगे।
हरेक हिंदी ब्लॉगर इस टीम में शामिल होने के लिए आमंत्रित है।
इस तरह हिंदी ब्लॉगिंग गाइड अपने पूरे अर्थों में सचमुच एक गाइड ही है। यह किताब भी मदद करेगी और इसके लेखकों की टीम भी। इस गाइड का मक़सद हिंदी की सेवा और हिंदी पाठकों की मदद करना है।
यह भी देखने में आया है कि नए लोग ब्लॉगिंग के बारे में जानना चाहते हैं और पुराने ब्लॉगर उन्हें सिखाना भी चाहते हैं लेकिन उन्हें सिखाने के लिए वे समय कहां से लाएं ?
ऐसे में यह ब्लॉगिंग गाइड पुराने ब्लॉगर्स की भी मदद करेगी। नए जानने वालों को वे इस गाइड का पता दे सकते हैं।
इसके सभी लेख आज से हिंदी पाठकों को समर्पित किए जा रहे हैं। लेखमाला पूरी होने के बाद कोई भी व्यक्ति / संस्था / पत्र / पत्रिका या ब्लॉग संपादक की अनुमति लेकर बिना किसी काट-छांट के इसे प्रकाशित कर सकता है।
किसी से आर्थिक सहयोग अपेक्षित नहीं है और कोई देता है तो इन्कार भी नहीं है।
इस गाइड का एक संक्षिप्त रूप जल्दी ही प्रकाशित किया जा रहा है। जिसे इंटरनेट की शिक्षा देने वाले संस्थानों को देश के हर कोने में निःशुल्क उपलब्ध कराया जाएगा। इसके लिए ज़रूर सीनियर हिंदी ब्लॉगर्स से सहयोग अपेक्षित है।
‘हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल‘ के सभी सदस्यों से अनुरोध है कि जब हिंदी ब्लॉगिंग गाइड की श्रृंखला का कोई लेख इस मंच पर पेश किया जाए तो वे उसके 8 घंटे बाद ही कोई लेख प्रकाशित करें ताकि उस लेख को मुनासिब तवज्जो मिल सके और लेखक मंडल का मक़सद पूरा हो सके।
यह एक महान परियोजना है। हिंदी ब्लॉग जगत के लिए यह एक यादगार तोहफ़ा है। यह वाक़ई एक ख़ुशी की बात है। किसी एक के लिए नहीं बल्कि हम सबके लिए यह एक ख़ुशी की बात है। इस कोशिश को ज़्यादा से ज़्यादा बांटना है ताकि यह और ज़्यादा बढ़े। इसके लिए इस फ़ोरम का लिंक अपने ब्लॉग पर लगायें। यह भी आपके द्वारा एक सहयोग होगा।
...तो पेश है दुनिया की पहली ‘हिंदी ब्लॉगिंग गाइड‘ आपके लिए ऑनलाइन पहली पहली बार।
आपके सुझाव और आपकी सलाह सादर आमंत्रित है। 
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आयोजन

'सरस्वती सुमन' के लघु कथा विशेषांक का विमोचन और ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी

अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर में सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाचेतनाके तत्वाधान में स्वर्गीय सरस्वती सिंह की 11 वीं पुण्यतिथि पर 26 जून, 2011 को मेगापोड नेस्ट रिसार्ट में आयोजित एक कार्यक्रम में देहरादून से प्रकाशित 'सरस्वती सुमन' पत्रिका के लघुकथा विशेषांक का विमोचन किया गया. इस अवसर पर ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी का आयोजन भी किया गया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में श्री एस. एस. चौधरी, प्रधान वन सचिव, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, अध्यक्षता देहरादून से पधारे डा. आनंद सुमन 'सिंह', प्रधान संपादक-सरस्वती सुमन एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर एवं डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर उपस्थित रहे.

कार्यक्रम का आरंभ पुण्य तिथि पर स्वर्गीय सरस्वती सिंह के स्मरण और तत्पश्चात उनकी स्मृति में जारी पत्रिका 'सरस्वती सुमन' के लघुकथा विशेषांक के विमोचन से हुआ. इस विशेषांक का अतिथि संपादन चर्चित साहित्यकार और द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवा श्री कृष्ण कुमार यादव द्वारा किया गया है. अपने संबोधन में मुख्य अतिथि एवं द्वीप समूह के प्रधान वन सचिव श्री एस.एस. चौधरी ने कहा कि सामाजिक मूल्यों में लगातार गिरावट के कारण चिंताजनक स्थिति पैदा हो गई है ऐसे में साहित्यकारों को अपनी लेखनी के माध्यम से जन जागरण अभियान शुरू करना चाहिए उन्होंने कहा कि आज के समय में लघु कथाओं का विशेष महत्व है क्योंकि इस विधा में कम से कम शब्दों के माध्यम से एक बड़े घटनाक्रम को समझने में मदद मिलती है। उन्होंने कहा कि देश-विदेश के 126 लघुकथाकारों की लघुकथाओं और 10 सारगर्भित आलेखों को समेटे सरस्वती सुमन के इस अंक का सुदूर अंडमान से संपादन आपने आप में एक गौरवमयी उपलब्धि मानी जानी चाहिए.

युवा साहित्यकार एवं निदेशक डाक सेवा श्री कृष्ण कुमार यादव ने बदलते दौर में लघुकथाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावाद के इस दौर में साहित्य को संवेदना के उच्च स्तर को जीवन्त रखते हुए समकालीन समाज के विभिन्न अंतर्विरोधों को अपने आप में समेटकर देखना चाहिए एवं साहित्यकार के सत्य और समाज के सत्य को मानवीय संवेदना की गहराई से भी जोड़ने का प्रयास करना चाहिये। श्री यादव ने समाज के साथ-साथ साहित्य पर भी संकट की चर्चा की और कहा कि संवेदनात्मक सहजता अनुभवीय आत्मीयता की बजाय साहित्य जटिल उपमानों और रूपकों में उलझा जा रहा है, ऐसे में इस ओर सभी को विचार करने की जरुरत है


संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर ने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में समग्रता के स्थान पर सीमित सोच के कारण उन विषयों पर लेखन होने लगा है जिनका सामाजिक उत्थान और जन कल्याण से कोई सरोकार नहीं है केंद्रीय कृषि अनुसन्धान संस्थान के निदेशक डा. आर. सी. श्रीवास्तव ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आज बड़े पैमाने पर लेखन हो रहा है लेकिन रचनाकारों के सामने प्रकाशन और पुस्तकों के वितरण की समस्या आज भी मौजूद है उन्होंने समाज में नैतिकता और मूल्यों के संर्वधन में साहित्य के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय ने अंडमान के सन्दर्भ में भाषाओँ और साहित्य की चर्चा करते हुए कहा कि यहाँ हिंदी का एक दूसरा ही रूप उभर कर सामने आया है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साहित्य का एक विज्ञान है और यही उसे दृढ़ता भी देता है.

अंडमान से प्रकाशित एकमात्र साहित्यिक पत्रिका 'द्वीप लहरी' के संपादक डा. व्यास मणि त्रिपाठी ने ने साहित्य में उभरते दलित विमर्श, नारी विमर्श, विकलांग विमर्श को केन्द्रीय विमर्श से जोड़कर चर्चा की और बदलते दौर में इसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया. उन्होंने साहित्य पर हावी होते बाजारवाद की भी चर्चा की और कहा कि कला साहित्य को बढ़ावा देने के लिए लोगों को आगे आना होगा। पूर्व प्राचार्य डा. संत प्रसाद राय ने कहा कि कहा कि समाज और साहित्य एक सिक्के के दो पहलू हैं और इनमें से यदि किसी एक पर भी संकट आता है, तो दूसरा उससे अछूता नहीं रह सकता।

कार्यक्रम के अंत में अपने अध्यक्षीय संबोधन में ‘‘सरस्वती सुमन’’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक डाॅ0 आनंद सुमन सिंह ने पत्रिका के लघु कथा विशेषांक के सुन्दर संपादन के लिए श्री कृष्ण कुमार यादव को बधाई देते हुए कहा कि कभी 'काला-पानी' कहे जानी वाली यह धरती क्रन्तिकारी साहित्य को अपने में समेटे हुए है, ऐसे में 'सरस्वती सुमन' पत्रिका भविष्य में अंडमान-निकोबार पर एक विशेषांक केन्द्रित कर उसमें एक आहुति देने का प्रयास करेगी. उन्होंने कहा कि सुदूर विगत समय में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम घटनाएं घटी हैं और साहित्य इनसे अछूता नहीं रह सकता है। अपने देश में जिस तरह से लोगों में पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अनुराग बढ़ रहा है, वह चिन्ताजनक है एवं इस स्तर पर साहित्य को प्रभावी भूमिका का निर्वहन करना होगा। उन्होंने रचनाकरों से अपील की कि वे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर स्वास्थ्य समाज के निर्माण में अपनी रचनात्मक भूमिका निभाएं। इस अवसर पर डा. सिंह ने द्वीप समूह में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए और स्व. सरस्वती सिंह की स्मृति में पुस्तकालय खोलने हेतु अपनी ओर से हर संभव सहयोग देने का आश्वासन दिया।

कार्यक्रम के आरंभ में संस्था के संस्थापक महासचिव दुर्ग विजय सिंह दीप ने अतिथियों और उपस्थिति का स्वागत करते हुए आज के दौर में हो रहे सामाजिक अवमूल्यन पर चिंता व्यक्त की कार्यक्रम का संचालन संस्था के उपाध्यक्ष अशोक कुमार सिंह ने किया और संस्था की निगरानी समिति के सदस्य आई.. खान ने धन्यवाद ज्ञापन किया। इस अवसर पर विभिन्न द्वीपों से आये तमाम साहित्यकार, पत्रकार बुद्धिजीवी उपस्थित थे.
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