ग़ज़लगंगा.dg: हमने रिश्ता बहाल रखा था

एक सांचे में ढाल रखा था.
हमने सबको संभाल रखा था.

एक सिक्का उछाल रखा था.
और अपना सवाल रखा था.

सबको हैरत में डाल रखा था.
उसने ऐसा कमाल रखा था.

कुछ बलाओं को टाल रखा था.
कुछ बलाओं को पाल रखा था.

हर किसी पर निगाह थी उसकी
उसने सबका ख़याल रखा था.

गीत के बोल ही नदारत थे
सुर सजाये थे, ताल रखा था.

उसके क़दमों में लडखडाहट थी
उसके घर में बवाल रखा था.

उसकी दहलीज़ की रवायत थी
हमने सर पर रुमाल रखा था.

साथ तुम ही निभा नहीं पाए
हमने रिश्ता बहाल रखा था.

-देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: हमने रिश्ता बहाल रखा था:

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सोशल मीडिया नेटवर्किंग का नया चेहरा worldfloat.com Hndi Blogging Guide (39)

सोशल मीडिया के जमाने में वर्ल्डफ्लोट अपनी पुख्ता पहचान बना रही है। इसके जरिए बिना किसी रुकावट के देश-विदेश के लोगों से संपर्क साधा जा सकता है। वर्ल्डफ्लोट के बारे में जानिए यहां।
सोशल मीडिया ने आज यकीनन दुनिया को छोटा कर दिया है। फेसबुक और कई अन्य वेबसाइटों ने लोगों को एक दूसरे के बेहद करीब ला दिया है। युवाओं में खासतौर पर सोशल नेटवर्किंग साइटें बेहद पसंद की जा रही हैं। ऐसे में एक और सोशल नेटवर्किग वेबसाइट हमारे सामने है। वर्ल्डफ्लोट नामक इस सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट की खासियत अपने तरीके की है। बेशक आप यहां अन्य सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों की तरह दूर बैठे लोगों से बात कर सकते हैं, लेकिन इसका तरीका कुछ अलग है। मूलत: इस वेबसाइट के मार्फत आप दुनिया में दूरदराज के किसी भी व्यक्ति के साथ बातचीत की शुरुआत कर सकते हैं। वेबसाइट के होमपेज में चारों दिशाओं यानी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण की ओर डायरेक्ट करते संकेतक हैं, जिनमें से किसी एक पर क्लिक करते ही आप उस दिशा के बड़े शहर (यदि वह शहर वेबसाइट का अंश है तो) के लोगों से संपर्क साध सकते हैं। फेसबुक से जुड़ने वाले यदि अपने मित्रों की सूची बनाते हैं, तो वैसी सुविधा यहां भी है, लेकिन इसके साथ ही वह सामने दिख रहे किसी भी व्यक्ति से बातचीत की शुरुआत कर सकते हैं।
वर्ल्डफ्लोट के संस्थापक पुष्कर महाटा कहते हैं कि इस वेबसाइट के निर्माण का विचार उन्हें दो वर्ष पूर्व आया था, जिसके बाद उन्होंने आईआईटी के कुछ इंजीनियरों को लेकर काम की शुरुआत की थी। इस 6 जून को वर्ल्डफ्लोट शुरू हुई और मात्र तीन माह में इस पर पांच लाख से अधिक लोग रजिस्टर्ड हो चुके हैं। इसके बावजूद, पुष्कर महाटा वर्ल्डफ्लोट के व्यवसायीकरण के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि ऐसा करना बहुत जल्दबाजी होगी। कारण ? वह चाहते हैं कि दुनिया भर में वेबसाइट अपनी पहचान बनाए, जिसके बाद इस पर विज्ञापनों की शुरुआत हो।
वर्ल्डफ्लोट को गूगल क्रोम या सफारी की मदद से सर्फ किया जा सकता है। इसकी एक अन्य खासियत यह है कि यदि नई दिल्ली में बैठा व्यक्ति मुंबई के किसी व्यक्ति से बात करना चाहता है तो इसके लिए जरूरी नहीं कि मुंबई में बैठा व्यक्ति ऑनलाइन ही हो। नई दिल्ली में बैठा व्यक्ति उसे संदेश भेज सकता है, जिस दौरान मुंबई में बैठा व्यक्ति ‘इनेक्टिव स्टेज’ में होगा।
पुष्कर महाटा के अनुसार, वह चाहते हैं ऑनलाइन होने के बाद प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को उसके स्थान विशेष में महसूस कर सके और फिर अपनी पसंद के अनुसार उससे संपर्क साध सके। इसमें एक दूसरे से बिल्कुल अनजान व्यक्ति आपस में बातचीत कर सकेंगे।
महाटा के अनुसार, दुनिया के 1600 से अधिक शहरों को वेबसाइट का हिस्सा बनाकर ‘जियो-टार्गेटेड एडवरटाइजमेंट’ की शुरुआत की जा सकती है। हालांकि इस कार्य में अभी समय लग सकता है। खुद दर्शन और मनोविज्ञान में रुचि रखने वाले पुष्कर महाटा भवन निर्माण का कार्य करते हैं, लेकिन कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में भी दखल रखते हैं। वेबसाइट के संस्थापक के तौर पर केंद्रीय कमान उनके हाथ में रहती है, लेकिन इसके लिए वह अपने इंजीनियर साथियों को श्रेय देना नहीं भूलते।
Source : http://www.livehindustan.com/news/lifestyle/lifestylenews/article1-Social-Media-Networking-50-50-262366.html
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हिंदी और उर्दू का फिजूल विवाद -Jawahar lal Nehru


कुछ दिन से फिर हिंदी और उर्दू की बहस उठी है, और लोगों के दिलों में यह शक पैदा होता है कि हिंदी वाले उर्दू को दबा रहे हैं और उर्दू वाले हिंदी को। लेकिन अगर जरा भी विचार किया जाए, तो यह बिल्कुल फिजूल मालूम होता है। साहित्य ऐसे नहीं बढ़ा करते। अक्सर साहित्य का अर्थ हम कुछ दूसरा ही लगाते हैं। हम भाषा की छोटी बातों में बहुत फंसे रहते हैं और बुनियादी बातों को भूल जाते हैं। साहित्य किसके लिए  होता है? क्या थोड़े-से ऊपर के पढ़े-लिखे आदमियों के लिए होता है या फिर आम जनता के लिए? जब तक हम इसका जवाब न दें, उस समय तक हमें साहित्य के भविष्य का रास्ता ठीक तौर से नहीं दिखेगा।
और अगर हम इस बात का निश्चय कर लें, तब हमारे और झगड़े हिंदी-उर्दू आदि के भी हल हो जाएं। पहली बात जो हमको याद रखनी है, वह यह है कि आजकल का साहित्य बहुत पिछड़ा हुआ है। किसी भी यूरोप की भाषा से मुकाबला किया जाए, तो हम काफी पिछड़े हुए हैं। जो नई किताबें हमारे यहां निकल रही हैं, वे अव्वल दर्जे की नहीं होतीं। और कोई आदमी आजकल की दुनिया को समझना चाहे, तो उसके लिए आवश्यक हो जाता है कि वह विदेशी भाषाओं की किताबें पढ़े।
नई विचारधाराएं अभी तक हमारे साहित्य में कम ही पहुंची हैं। इतिहास, विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति इत्यादि पर हमारी भाषाओं में माकूल पुस्तकें बहुत कम हैं। जो लोग इन बातों के सीखने के प्यासे हैं, उनको मजबूरन और जगह जाना पड़ेगा। बहुत सारे प्रश्न उठते हैं। लेकिन मैं इस समय चंद बातों की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूं।
1. मेरा पूरा विश्वास है कि हिंदी और उर्दू के मुकाबले से दोनों को ही हानि पहुंचती है। वह एक दूसरे के सहयोग से ही बढ़ सकती हैं। और एक के बढ़ने से दूसरे को भी फायदा पहुंचेगा। इसलिए उनका संबंध मुकाबले का नहीं होना चाहिए, चाहे वे कभी अलग-अलग रास्ते पर ही क्यों न चलें। दूसरे की तरक्की से खुशी होनी चाहिए, क्योंकि उसका नतीजा अपनी तरक्की होगा। यूरोप में जब नए साहित्य (अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन) बढ़े, तब सब साथ बढ़े, एक दूसरे को दबाकर और मुकाबला करके नहीं।
2. इसके माने यह नहीं कि हर एक के प्रेमी अपनी भाषा की उन्नति की कोशिश न करें, लेकिन वह दूसरे की विरोधी कोशिश न हो और मूल सिद्धांत को सामने रखती हो।
3. यह खाली उर्दू-हिंदी के लिए नहीं, बल्कि सब हमारी बड़ी भाषाओं के लिए- बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम- यह बात साफ कर देनी चाहिए कि हम इन सब भाषाओं की तरक्की चाहते हैं और कोई मुकाबला नहीं। हर प्रांत में वहां की भाषा ही प्रथम है। हिंदी या हिन्दुस्तानी राष्ट्रभाषा अवश्य है और होनी चाहिए। लेकिन वह प्रांतीय भाषा के पीछे ही आ सकती है।
4. हिंदी और उर्दू का संबंध बहुत करीब का है और फिर भी कुछ दूर होता जा रहा है। इससे दोनों को हानि होती है। हमें दो बातें समझनी हैं और हालांकि वे दो बातें ऊपरी तौर से कुछ विरोधी मालूम होती हैं, फिर भी उनमें कोई असली विरोध नहीं है। एक तो यह कि हम ऐसी भाषा लिखें और बोलें, जिसमें संस्कृत या अरबी और फारसी के कठिन शब्द कम हों। इसी को आम तौर से हिन्दुस्तानी कहते हैं। कहा जाता है और यह बात सही है कि ऐसी बीच की भाषा लिखने से दोनों तरफ की खराबियां आ जाती हैं। एक दोगली भाषा पैदा होती है, जो किसी को भी पसंद नहीं आती और जिसमें न सौंदर्य होता है, न शक्ति। यह बात सही होते हुए भी बहुत बुनियाद नहीं रखती और मेरा विचार है कि हिंदी और उर्दू के मेल से हम एक बहुत खूबसूरत और बलवान भाषा पैदा करेंगे, जिसमें जवानी की ताकत हो और जो दुनिया की भाषाओं में एक माकूल भाषा हो। हमें याद रखना है कि भाषाएं जबरदस्ती नहीं बनतीं या बढ़तीं। साहित्य फूल की तरह खिलता है और उस पर दबाव डालने से वह मुरझा जाता है। इसलिए अगर हिंदी-उर्दू भी अभी कुछ दिन तक अलग-अलग झुकें, तो हमको उस पर ऐतराज नहीं करना चाहिए।
5. लिपि के बारे में यह विल्कुल निश्चय हो जाना चाहिए कि दोनों लिपियां- देवनागरी और उर्दू- जारी रहें और हर एक को यह अधिकार हासिल हो कि जिसमें चाहे, वह लिखे। अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि एक प्रांत में हिंदी लिपि को दबाते हैं, जैसे सरहदी प्रांत, या दूसरे प्रांत में उर्दू लिपि को मौका नहीं मिलता। हमें एक तरफ की बात नहीं कहनी है, बल्कि यह सिद्धांत रखना है कि हर जगह दोनों ही लिपियों को पूरी आजादी होनी चाहिए।
6. मेरी राय में हर भाषा और हर लिपि को पूरी आजादी होनी चाहिए, अगर उसके बोलने और लिखने वाले काफी हों। मसलन, अगर कलकत्ते में काफी तमिल बोलने वाले रहते हैं, तो उन्हें यह अधिकार होना चाहिए कि उनके स्कूलों में तमिल भाषा में पढ़ाई हो। जाहिर है कि एक प्रांत के राजनीतिक कार्य या अन्य कई काम बहुत सारी भाषाओं में नहीं हो सकते। वह तो प्रांत की ही भाषा में हो सकते हैं। उत्तर भारत और मध्य भारत में जहां हिन्दुस्तानी भाषा जनता की है, वहां एक भाषा और दो लिपियां सब जगह आजादी से चलनी चाहिए। इसके माने यह नहीं है कि हर एक को दो लिपियां सीखनी पड़ेंगी। यह बच्चे पर बहुत बोझा हो जाएगा। कोशिश यह भी होनी चाहिए कि कुछ लोग दोनों लिपियां सीखें।
7. हिंदी और हिन्दुस्तानी शब्दों पर बहुत बहस हुई है और गलतफहमियां भी फैली हैं। यह एक फिजूल की बहस है। अगर इस बहस को बंद करने के लिए हम बोलने की भाषा को हिन्दुस्तानी कहें और लिपि को हिंदी या उर्दू कहें, तो इससे साफ-साफ मालूम हो जाएगा कि हम क्या कह रहे हैं।
8. यह हिन्दुस्तानी भाषा क्या हो? देहली या लखनऊ के रहने वाले कहते हैं कि हमारी बोली आमफहम है। इसी को हिन्दुस्तानी बनाओ। लेकिन बनारस और पटना और मध्य भारत या राजपूताना में जाइए, तो काफी फर्क मिलता है और अगर शहरों को छोड़कर देहातों में हम जाएं, तो और भी फर्क, फिर कौन भाषा हमारी हो? हमारी भाषा ऐसी होनी चाहिए, जो सभ्य हो और जिसे अधिक-से-अधिक जनता समझे। इसको हम बैठकर कुछ कोषों या एक-दूसरे से मुकाबला करके नहीं बना सकते, और न दो-चार साहित्यकार मिलकर ही पैदा कर सकते हैं। इसकी बुनियाद तभी मजबूत पड़ेगी, जब लिखने वाले आम जनता के लिए लिखेंगे और बोलने वाले उनके लिए ही बोलेंगे। तब यह दफ्तरी बहसें कि कितनी उर्दू और कितनी हिंदी, ये सब खत्म हो जाएंगी। जनता फैसला करेगी। हमारे लिए सबसे बुनियादी प्रश्न यही है कि हम आम जनता के लिए अपना साहित्य बनाएं और उनको हमेशा अपने दिमागों के सामने रखकर लिखें।
साभार हिंदुस्तान दिनांक 14 सितंबर 2012
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-262058.html
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Mushayera: हज़ारों साल जी लेते अगर दीदार ना होता

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हुनर कहीं भी सीखें केंद्र देगा प्रमाण-पत्र -मदन जैड़ा

फैजान मोटरगाड़ियों का मिस्त्री है। मगर, यह हुनर उसने किसी ट्रेनिंग स्कूल में नहीं सीखा, बल्कि एक मैकेनिक के यहां काम करते हुए यह सब सीख लिया। ऐसे ही कई लोगों के पास हुनर तो है, पर किसी इंस्टीटय़ूट का सर्टिफिकेट नहीं। सरकार अब ऐसे ही लोगों की पहचान कर उन्हें हुनर का प्रमाण-पत्र देगी। इससे वे न केवल प्रशिक्षित कामगारों की तर्ज पर मेहनताना ले सकेंगे, बल्कि उनके लिए करियर की नई राहें भी खुल जाएंगी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नेशनल वोकेशन एजुकेशन क्वालिफिकेशन फ्रेमवर्क योजना के तहत ये प्रमाणपत्र जारी करने का फैसला किया है। जल्द ही सेक्टर स्किल डेवलपमेंट काउंसिल बनेगी, जो यह काम करेगी। इससे पांच वर्षो में करीब तीन करोड़ कामगारों को फायदा होगा। मंत्रालय के एक उच्च अधिकारी के अनुसार, ऐसे कामगारों को दो श्रेणियों के प्रमाण पत्र दिए जाएंगे। एक रिकग्नाइजेशन ऑफ प्रियर लर्निग (आरपीएल)-1 व दूसरा आरपीएल-2 होगा। आरपीएल-1 उन कार्मिकों को दिया जाएगा, जो तकनीकी या व्यावसायिक कार्य जानने के साथ-साथ थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना भी जानते हैं। आरपीएल-2 तकनीकी काम की अपेक्षाकृत बेहतर समझ रखने वालों को दिया जाएगा। इसके लिए उन्हें एसएससी के समक्ष एक कौशल टेस्ट देना होगा।
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ग़ज़लगंगा.dg: चांद निकला भी नहीं था और सूरज ढल गया.

एक लम्हा जिंदगी का आते-आते टल गया.
चांद निकला भी नहीं था और सूरज ढल गया.

अब हवा चंदन की खुश्बू की तलब करती रहे
जिसको जलना था यहां पर सादगी से जल गया.

click to Read more: http://www.gazalganga.in/2012/09/blog-post_7.html#ixzz261tqwl6U

ग़ज़लगंगा.dg: चांद निकला भी नहीं था और सूरज ढल गया.:

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खबरगंगा: खुश रहो न !

कई दिनों की बारिश के बाद बादल एकदम चुप से थे..न गरजना न बरसना ... ठंडी हवाएं जरुर रह-रह कर सहला जाती थी...धूली, निखरी प्रकृति की सुन्दरता अपने चरम पर थी ....मुझे पटना जाना था ...ट्रेन में खिड़की वाली सीट मिली (मेरा सौभाग्य )...हमारा सफ़र शुरू हुआ .... दूर तक पसरे हरे-भरे खेत, पेड़ो की  कतारें, बाग़-बगीचे दिखने लगे....मैं  बिलकुल 'खो' सी गयी थी ...कि एक जगह ट्रेन 'शंट' कर दी गयी...माहौल में ऊब और बेचैनी घुलने लगी.. बचने के लिए इधर-उधर देखना शुरू किया कि 'निगाहे' पटरी के पार झाड़ियों में कुछ खोजती औरत पर गयी.....इकहरा बदन ..सांवली रंगत...वह बेहद परेशान दिख रही थी ...पास ही बैठा उसका छोटा सा बच्चा रोये जा रहा था, पर वह, अपनी ही धुन में थी ...मुझे कुछ अजीब सा लगा इसलिए  उन्हें ध्यान से देखने लगी..अचानक उसके हाथ में एक सूखी टहनी नज़र आयी...अब उसके चेहरे पर राहत थी...धीरे-धीरे उसने कई लकड़ियों को इकट्ठा किया ...उसका गठ्ठर बनाया..बच्चे को उठाया और चली गयी...
खबरगंगा: खुश रहो न !:

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गर्मियों की छुट्टियां

अनवर भाई आपकी गर्मियों की छुट्टियों की दास्तान पढ़ कर हमें आपकी किस्मत से रश्क हो रहा है...ऐसे बचपन का सपना तो हर बच्चा देखता है लेकिन उसके सच होने का नसीब आप जैसे किसी किसी को ही होता है...बहुत दिलचस्प वाकये बयां किये हैं आपने...मजा आ गया. - नीरज गोस्वामी

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