ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे

सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?


क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.


उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.


मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.


खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.


तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.


-----देवेंद्र गौतम

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अपनी मानसिक विकलांगता हमें खुद ही दूर करनी होगी

भारत गुलाम था आज़ाद हुआ . अच्छी बात है आज़ादी . परतु प्रश्न उठता है कि भारत किसका गुलाम था. कब यह गुलाम रहा. क्या इससे पहले ब्रिटिश शासकों के हम गुलाम थे या उसके पहले मुग़ल शासकों के हम गुलाम थे या उसके पहले जो भी, जिसका शासन रहा हो, उसके गुलाम थे. मैं तो समझता हूँ कि भारत पहली बार नहीं आजाद हुआ है, युगों युगों से ये आजाद था. भारत को गुलाम समझने वाले और आजाद मानने वाले मेरी द्रष्टि में आज भी उसी भ्रम में जी रहे हैं , जैसे आज तक जीते आये हैं. अगर देखा जाए तो भारत तो वही था जो आज है. राजनैतिक द्रष्टिकोण से भारत आज आज़ाद है. जब जब सत्ता बदली, शासक बदले , लोगों के अरमान बदले तब तब उन्होंने भी इसे आज़ादी माना होगा और हर बार जश्न मनाया होगा. भारत भले ही आज़ाद है पर आज भी स्थिति कोई भिन्न नहीं दिखती है, भले ही हम भौगोलिक  और राजनैतिक रूप से आज़ाद हो चुके हों पर मानसिक एवं शारीरिक रूप से आज भी हमारी दशा वैसी है जैसी सैकड़ों साल पहले थी और शायद आगे भी सैकड़ों साल तक रहेगी. हमेशा दासियों एवं दासता में जकड़ी जिसकी मानसिकता रही हो वह आज़ाद कैसे हो सकता है, कहने में गुरेज नहीं है कि भारतीय नागरिक लकवाग्रस्त है. मैं भी भारतीय नागरिक हूँ, कोई अपवाद नहीं हूँ. चाहें वो शारीरिक रूप से हों या मानसिक रूप से हों. हमेशा रेंगते रहना, हमेशा चलने के लिए एक बैसाखी की आवश्यकता , हमेशा दूसरे के कंधे का सहारा लेना, चाहें पैदा होने पर या शारीर कि अंतिम यात्रा पर, चाहें दूसरों का हक़ मारने के लिए , चाहें अपने वर्चस्व  को स्थापित करने के लिए हमेशा दूसरे का कन्धा लिया करते हैं. क्या हम अपाहिज हैं. कभी हम आगे नहीं बढ़ते केवल दूसरे को आगे बढ़ने को कहते हैं और कहते हैं कि हम आपके पीछे हैं. आपका नेतृत्व ही हमें सही दिशा दे सकता है. भिखारी से भिन्न स्थिति नहीं है . वह भी एक सहायक रखता है. आप नाराज होंगे. हम भी नाराज हैं. आप हम से नाराज होंगे, मैं अपने से नाराज हूँ. हर कोई एक दूसरे से नाराज है. मेरी तरह सभी कहते हैं कि कोई कुछ करता नहीं, समाज कहाँ था, समाज कहाँ जा रहा है, कैसे सुधरेगा, कौन सुधारेगा. तमाम प्रश्न , कोई हल नहीं देता, सभी एक दूसरे से पूंछते हैं. मैं भी यही कहता हूँ, खुद कुछ नहीं करता. केवल कागज काले करता हूँ. वाह वाह लूटता हूँ, फिर बैठ जाता हूँ कागज काले करने को. पता नहीं यह वाह असली है या मात्र समाज की औपचारिकता . अरे भाई क्यों एक दूसरे से पूंछते हों, खुद क्यों  नहीं कुछ करते हों.  खुद को बदलो . दूसरे को बदलने में समय नष्ट होगा. क्यों कि आप तो अपने में किसी न किसी तरह परिवर्तन ला सकते हैं पर दूसरा बदले या न बदले उसकी क्या गारंटी, यह तो उस पर ही निर्भर करेगा कि उसे क्या करना है. छोटी सी जिंदगी में समय नष्ट करना कहाँ तक ठीक है.
अगर हम मानसिक रूप से लकवाग्रस्त न होते, रेंगने की आदत न होती , दूसरों के कन्धों का सहारा लेने की प्रवृत्ति न होती , अपना नेतृत्व प्रदान करने की ललक होती, बार बार लगती आग से जलाने और अधिकार पाने में मंद न होते और उस आग को आग ही रखते , ठंडा न होने देते , राख में चिंगारी की तरह दबाने की आदत न होती तो जिस भारत को आज हम आजाद किये हैं वह कई सौ साल पहले ही हमारा आजाद भारत होता. ऐसा नहीं है कि भारतीय निकृष्ट है. हम भारतीय हैं, भारत के रहने वाले हैं, विश्व में हम जैसी कोई मिसाल नहीं है. इस पर मुझे ही क्या हर भारतीय को गर्व है. यह मेरा वतन है. इसके लिए जान भी कुर्बान है. जब जब देश को आवश्यकता पड़ी , प्रत्येक भारतीय ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर भारत माता के मान की रक्षा की और मुझे ही क्या प्रत्येक भारतीय को इस पर गर्व है और वक्त आने पर ऐसा ही करेगा.
भारत भले ही काल, सीमा, भिन्न भिन्न शासकों की वजह से गुलाम रहा हो परन्तु भारतीय संस्कृति , शाश्वत मूल्यों , बौद्धिक , धार्मिक सम्पदा की वजह से पूरे विश्व का शासक रहा है और सदियों तक शासन  करेगा.
हमारी कमजोरी है कि जागते भी हम जल्दी हैं , रक्त में उबाल भी जल्दी आता है पर सो भी जल्दी जाते हैं . साड़ी बातें तो किसी हद तक ठीक मणि जा सकती हैं पर सोने के बाद लम्बी नींद , बहुत लम्बी नींद यह बहुत कष्टकारी है, इसी वजह से निर्णायक स्थिति तक पहुँच कर भी लक्ष्य से हम फिर कोसों दूर रह जाते हैं और फिर तलाश होती किसी गाँधी कि या फिर किसी मसीहा के आने की.
शासक या शासन व्यवस्था बदलने से राज्य के शासकों का भाग्य बदलता है परन्तु उसमें रहने वाले नागरिकों कि दशा उनके स्वयं के कार्यों से बदल सकती है, नहीं तो स्थिति में क्या फर्क पड़ता है क्यूँ कि कोऊ नृप होई हमें का हानी, चेरी छोड़ न होउब रानी,  येही मानसिकता पहले भी अधिकांश लोगों में थी और आज भी है, देशकाल कुछ भी रहा हो. आज भी वही स्थिति है. सत्ता किसी की भी हो, कोई सरकार आये या जाए , स्थिति कदापि नहीं बदलने वाली.  क्योंकि इन्ही खेलों मेलों में कई पीढियां गुजर गई हैं और गुजरती रहेंगी. हमारी मानसिक विकलांगता के कारण.
भारत में अब लोकतान्त्रिक व्यवस्था है. इस लिए अब हमको हमारे बीच से ही अपनी भावनाओं को संघीय ढांचे के अंतर्गत मूर्त रूप देने और भारत के सर्वागीण विकास के लिए जन प्रतिनिधि चुनना होता है. अपनी सोच के अनुसार हम उन पर विश्वास व्यक्त करते हुए वोट देते हैं. वे सेवक बन के आते हैं, जनसेवक कहलाते हैं, शपथ ग्रहण करते ही जन प्रशासक बन जाते हैं . क्षेत्र  के प्रतिनिधि होते हुए भी जन समस्याओं , जन भावनाओं के प्रति आदर में न्यूनता आ जाती है. भाग्य की विडंबना ही है कि जिनका  चयन हम अपनी आकांछाओं की पूर्ति के लिए कर अपने भाग्य की बागडोर सौंपते हैं , उससे उनके विरत होने पर हम उन्हें वापस नहीं बुला सकते. सवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत उन्हें उनके कार्यकाल तक ढ़ोना प्रत्येक की विवशता है. हम मानसिक रूप से कितने स्वस्थ हैं उसका परिचय उन्हें दोबारा चुन कर देते हैं.
इसमें दोष हमारा इतना ज्यादा नहीं है. हम अगर सच्चे ह्रदय से सोचें क्या हम भी  तो उन जैसे नहीं हैं. जब समाज का स्वरूप इतना विकृत हो चूका है और दिन प्रतिदिन जारी है , तो कहाँ से लायेंगे ऐसे व्यक्ति को जो वास्तव में समाज के प्रति चिंतित हो , कुछ कर गुजरने की स्थिति में हो, मकडजाल में न फंस कर उसे काटे. सत्ता पा के कौन नहीं बौराता, इसका नशा ही कुछ अलग है. नशा तो नशा ही  होता है, चांहे जिस चीज का हो. नशेडी खुद तो गर्त में जाता ही है साथ में अपने परिवार को भी गर्त में भेज देता है. ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है. यह भी हमारी मानसिक विकलांगता को दर्शाता है.
मानसिक विकलांगता का ताजा उदाहरण है अभी देश भर में हुए एक जनभावनाओं की आकांक्षा के अनुरूप लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जन आन्दोलन. तमाम चर्चे हुए . अंतिम चरण के आन्दोलन में प्रत्येक व्यक्ति इस प्रकार जुटा कि इस बार लक्ष्य की प्राप्ति जरूर होगी. महाभारत के युद्ध की भांति रणक्षेत्र सज गया. दोंप पक्ष तैयार . कलमकार, पत्रकार, चित्रकार, कैमरामैन , संवाददाता, बुद्धिजीवी वर्ग, आलोचक, समालोचक, देशी लोग, विदेशी लोग, सभी परिणाम के प्रति आतुर. लेखनी माँज ली गई, कागज का स्टाक जमा कर लिया गया, जीभ भी माँज ली गई. संपादक तैयार, कालम रिक्त रखने की हिदायत , शासन चुस्त,  प्रशासन चुस्त. फिर चला अनवरत युद्ध . ज्ञान, विज्ञानं , कानून के कसीदे पढ़े गए. कौन श्रेष्ठ है जनता या जन सेवक की परिभाषा लिखी जाने लगी. चाय , पान, आफिसों की टेबुल पर बैठ कर चर्चा जारी रही. बिस्तर में रजाई ओढ़ कर टी वी पर भारत के भविष्य पर चर्चा का आनंद लिया जाता रहा. जो होना था सभी जानते थे, फिर भी कुछ अप्रत्याशित हो जाए तो,  चमत्कार हो जाए. क्योंकि हम चमत्कार में ज्यादा विश्वास रखते हैं, कर्म में नहीं. चलनी में दूहते हैं कर्म नहीं टटोलते . सो वही हुआ . चूँकि इस बार अपनी पीड़ा को दूर करने के कर्म नहीं करना चाह्ते थे , जिग्यासा में अधिक विश्वास रखा. सो परिणाम तो वैसे भी वही होना था , पर शायद बदल सकते. खैर गुब्बारे की हवा निकल गई. हवा ज्यादा भी नहीं थी. ज्यादा समय नहीं लगा. और एक बार फिर हम सो गए. दे दिया परिचय की हम वास्तव में विकलांग हैं. अपने रहनुमाओं की हकीकत रहनुमा भी जानते हैं और हम भी जानते हैं. वे अपना किरदार निभा रहे हैं और हम अपना किरदार. दोष किसी का भी नहीं. आधे अधूरे मन से किया गया कार्य कभी लक्ष्य को वेध नहीं सकता.
जो हुआ सो हुआ . अपना अपना भाग्य, अपनी अपनी करनी. हम हर हाल में जी लेते हैं . हम भारतीय हैं न. अब तक तो जीते आये हैं . इसी को हमने अपना जीवन मान लिया है, तो फिर शिकवा किस बात का. ऐसे ही जीते रहने में कोई हर्ज है क्या. जो मजा नरक में है वह स्वर्ग में कहाँ. वहां कौन मिलेगा. सभी साथ रहें क्या हर्ज है. इतना प्रेम आपस में. इसी लिए तो भारत महान है. बस बहुमत होना चाहिए वह चाहें जैसे हो.
एक युद्ध समाप्त हुआ. जैसा की हर युद्ध का परिणाम होता है. सेनाएं वापस लौटती हैं. परिणाम वही रहता है. कुछ हांसिल नहीं होता. लुटती हैं भावनाएं, आहत होते हैं मन, दफ़न होती हैं आशाएं. फिर वैसा ही वैसा. सब  कुछ पहले की तरह. फिर गले मिलते हैं. फिर आदर्श बघारते हैं. हम फिर अपने कलेजे को परोस देते हैं खाने को. हम भारतीय हैं.
फिर शुरू होता है बुद्धिजीवियों का युद्ध. आलोचना, समालोचना, ब्लोगिंग, कार्टून, प्रश्न पूछना, निंदा, परनिंदा, नेतृत्व पर शक, शब्द बाण, चरित्र हनन और न जाने क्या क्या , यह चलता रहेगा. मैं भी तो यही कर रहा हूँ. मैं इन लोगों से कोई अलग तो नहीं. में भी भारतीय हूँ. मैं क्यों दिखूं अलग इन लोगों से, क्यों लिखूं अलग इन लोगों से , मुझे भी तो भारत में रहना है, कुछ अलग कहा तो जिऊंगा कैसे, हर हाल में वन्दे मातरम् कहना है. इसी को तो समाज कहते हैं. इससे विरत हुए तो हश्र पता है.
क्या जरूरी है कि कोई आगे चले. निश्चित तौर पर नेतृत्व जरूरी है. क्योंकि उसे अनुभव होता है. उसमे ऐसा कुछ अवश्य होता है जिसका अनुकरण प्रत्येक के लिए लाभप्रद होता है, फिर अविश्वास क्यों. ये निंद्रा क्यों. एक शारीरिक द्रष्टिकोण से वृद्ध व्यक्ति , मानसिक और चारित्रिक रूप से मजबूत व्यक्ति पर ऐसी श्रद्धा. प्रश्न चिन्ह लगाया गया. उसे क्या चाहिए , क्या कमी है, दो रोटी तो वे स्वयं ही खा सकते हैं. यह किसका दर्द है. किसका भविष्य उनके सपनो में है. किसके लिए कष्ट  उठाना  है. क्या अपने लिए . आपके लिए अपना जीवन कोई क्यों दे.
घर कि सफाई के लिए , घर परिवार सजाने के लिए , कपडे पहनने  के लिए, सजने  सवरने के लिए, जीवन यापन के लिए, मनोरंजन के लिए किसकी सहायता लेते हो और जिनसे उम्मीद रखते हो कि वे आपके उत्थान के लिए ऐसी व्यवस्था देंगे , भले ही तात्कालिक रूप से इन्हें स्वयं को लाभ न मिले, पर उनके आने वाले वंशज निश्चित रूप से ऐसी व्यवस्था से लाभान्वित होंगे, पर कैसे देंगे, और क्यों दें. वे कोई भगत सिंह तो नहीं हैं जो हँसते हँसते फाँसी का फंदा अपने गले लगा लें.
मानसिक रूप से विकलांग समाज का एक और उदाहरण पत्थरों का शहर , पत्थर दिल, पत्थर मन, इंसानियत भी पत्थर , पत्थर इन्सान, फिर भी एक अफवाह से ठंडी हवा में रात भर सारा भारत सड़क पर आ गया. किस लिए. इसके पहले क्यों नहीं.  क्या वास्तव में हम जिन्दा हैं. पहले भी हारे थे और यहाँ भी हार गए. अरे भाई पत्थर हो जाते तो शायद फिर कोई राम आता और हमारे कष्टों से मुक्ति दिलाता. वास्तविक मुक्ति.
 लेखक : PRADEEP KUSHWAHA
यह लेख जागरण ब्लॉग पर सप्ताह का श्रेष्ठ लेख माना गया है.
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कैसी यह मुहब्बत है और कैसा यह त्यौहार है ? Indian Holi

पिछले साल का एक यादगार वाक़या:-

बच्चे ज़्यादा समझदार हैं बड़ों से, इस होली पर मुझे ऐसा ही लगा।

Dr. Anwer Jamal

Dr. Anwer Jamal

शनिवार को मुझे अपने पेट में दर्द महसूस हुआ। दवाई ले ली। रविवार को सोचा कि अल्ट्रासाउंड करा लिया जाए ताकि पित्ताशय की पत्थरी के साइज़ का भी पता चल जाए। होली की वजह से सभी सेंटर्स मुझे बंद मिले। लौटते हुए एक मशहूर चैराहे पर मुझे कुछ बच्चों ने अपनी पिचकारी दिखाई, मैंने कहा, बेटे ! हरेक आदमी पर रंग नहीं डालते।
मेरे इतना कहते ही वे मान गए।
आज सुबह मैं अपने घर से निकल कर चंद क़दम ही गया था कि हमारे पड़ोसी पं. प्रेमनारायण शर्मा जी हाथ में रंग की बाल्टी और गुलाल लेकर मेरी तरफ़ बढ़े। मैं घबराया नहीं। मुझे उम्मीद थी कि मैं उन्हें बताऊंगा कि मेरे पेट में दर्द हो रहा है, हल्का सा बुख़ार भी है और मैं अल्ट्रासाउंड कराने जा रहा हूं तो वह मान जाएंगे।
वह मेरे पास आए और मेरे मना करने के बाद भी और मुझसे मेरी परेशानी जानने के बावजूद भी उन्होंने मेरा मुंह गुलाल से हरा कर दिया और फिर जब उनका दिल इससे भी नहीं भरा तो उन्होंने दो मग भरकर रंगीन पानी डाल दिया।

Pandit Premnarayan Sharma

Pandit Premnarayan Sharma

उनकी इस हरकत से मुझे तकलीफ़ तो हुई लेकिन मैंने उन्हें बुरा भला इसलिए नहीं कहा क्योंकि अपनी तरफ़ से वे अपनी मुहब्बत का इज़्हार कर रहे थे

क्या मुहब्बत में अपने प्यारों की तकलीफ़ को भी नज़रअंदाज़ कर देना मुनासिब है ?
मैं घर लौटा और कपड़े बदले और दोबारा फिर घटिया से कपड़े पहने ताकि फिर से कोई अपनी मुहब्बत का इज़्हार करने वाला मिले कम से कम कपड़े तो बच जाएं।
कैसी यह मुहब्बत है और कैसा यह त्यौहार है ?
बच्चे फिर भी ग़नीमत हैं।
बड़े लोग अगर बच्चों की तरह हो जाएं तो काफ़ी दिक्क़तें दूर हो जाएं।

Source : कैसी यह मुहब्बत है और कैसा यह त्यौहार है ?

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बलोगर्स मीट वीकली (33) Happy Holi


बलोगर्स मीट वीकली (33)
सबसे पहले मेरे सारे ब्लोगर साथियों को प्रेरणा अर्गल का प्रणाम और सलाम /आप सबके सहयोग से ब्लोगर्स मीट वीकली निरंतर अपने पथ पर अग्रसर है /प्रत्येक सोमवार को होने वाली इस मीट में आप सब शामिल होते हैं ,और हमारा उत्साह बढ़ाते हुए अच्छे -अच्छे सन्देश देते हैं /हम आप सबके बहुत आभारी हैं ,आप सबका स्नेह और आशीर्वाद इसी तरह इस मीट को मिलता रहे ,यही कामना है /आभार /

आज सबसे पहले मंच की पोस्ट्स

अनवर जमालजी की रचनाएँ

अयाज अहमदजी की रचना

देख तमाशा दुनिया का - 'एक लिंक्स चर्चा'1- आज की चर्चा में आप सबका हार्दिक स्वागत ह
एक प्रिंसिपल चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी नियुक्त नहीं कर सकता, लेकिन उसने राजपत्रित अधिकारियों ( प्रवक्ता ) की नियुक्ति की
यज्ञ में पशु बलि पर एक बहस निरामिष ब्लॉग परऋषभ कंद - ऋषभक का परिचय ।। वेद विशेष ।।

इस पर यह कहा गया है:



मनोज साहब ने ईनाम बांटने का काम शुरू किया। ईनाम उन्होंने कम को बांटा और ज़्यादातर को उन्होंने ‘चिरकुट‘ का खि़ताब दे दिया। कहते हैं कि

प्रेरणा अर्गलजी की रचना होली आई रे


मंच के बाहर की पोस्ट

"दोहे-होली का त्यौहार-1250वीं पोस्ट" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्रीजी 'मयंक')


अब पछुआ चलने लगी, सर्दी गयी सिधार।
कुछ दिन में आ जाएगा, होली का त्यौहार।१।
धीरेन्द्रजी की रंग बिरंगी रचना
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रस बरसाते रंगों के संग, फिर से आई होली,
फागुन का उपहार निराला लेकर भर लो झोली!
रविकरजी की रचना
कुंडली

अच्छे अच्छे लाल से, सीखे सकल समाज ।
सामूहिक दुष्कर्म से, मरे मनुजता लाज ।
पल्लवी जी की रचना

ख्वाइशें ..


..

"कमबख़्त यह ख्वाइशों का काफिला भी बड़ा अजीब होता है
गुज़रता भी वहीं से हैं जहां रास्ते नहीं होते"
अमरेन्द्र शुक्ल "अमरजी "की रचना
ये दिन रात के अनवरत पल
उसमे जलता ये
मेरा मन
जो खोजता है, अपने लिए
इन न रुकने वाले अनवरत पलों में
कुछ रुके हुए पल

मार्ग दर्शन........डॉ. वेद व्यथित जी


एक स्कूल का वार्षिक उत्सव होना था | स्कूल मतलब प्राइवेट स्कूल क्यों कि सरकारी स्कूलोंमे तो ऐसी बातें होती ही नही है क्यों कि वहाँ तो रोज आधी छुट्टी में वार्षिक उत्सव हो जाता है /

अतुल श्रीवास्तवजी की रचना

लाल क्रांति के लिए दो अपने लाल!



‘’हर घर से एक युवक दो या फिर मौत के लिए तैयार हो जाओ..

....’’ ये फरमान जारी किया है नक्‍सलियों ने और इस फरमान
राजेश कुमारीजी की रचना

प्रीत रीत में भेद नहीं
सब कुदरत के खेल
वृद्ध तरु भी झूम उठे
जब चढ़े प्रेम की बेल |
साधना वैदजी की रचना

यह तो कहो


रोशनी का बहुत पीछे छूटा
एक नन्हा सा कतरा
कितनी दूर तक
मेरी राह रोशन कर पायेगा
यह तो कहो !
संगीता स्वरुपजी की रचना

ज़िंदगी की महाभारत

वक़्त का द्रोणाचार्य
पल पल
सजाता है
नित नए चक्रव्यूह
और
अभिमन्यु बना मन
महेश बारमाटे "माहीजी" की रचना


कभी - कभी कितना सुखद होता है
और कभी क्यों ये होता है दुःखद ...?


‘अहसास की परतें‘ ब्लॉग पर

अरब और हिंदुस्तान का ताल्लुक़ स्वयंभू मनु के ज़माने से ही है Makka

Picture _
काबा वह पहला घर है जो मालिक की इबादत के लिए बनाया गया है। इसे हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने सबसे पहले बनाया था। आदम अलैहिस्सलाम को स्वयंभू मनु कहा जाता है। जब उनके बाद जल प्रलय आई तो उसका असर इस घर पर भी पड़ा था। इसके बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने आज से लगभग 4 हज़ार वर्ष पहले काबा की जगह पर कुछ दीवारें ऊंची की थीं।
कन्या-देवी पूज, जुल्म उनपर ही ढाये- - बाहर की क्या बात, आज घर में ही डरती मैं ही नारी हूँ......!!! 'आहुति' प्यार मिले परिवार का, पुत्र-पिता पति साथ । देवी मुझको मत बना, झुका नहीं नित माथ । झु...

प्रत्‍येक शहर में 1000 से अधिक पेड़ खाक हो जाते हैं Holi



हर साल होलिका में औसतन प्रत्‍येक शहर में 1000 से अधिक पेड़ खाक हो जाते हैं। यह वही पेड़ हैं, जो लाख जतन और जागरूकता के बाद 15-20 साल में...
दिमाग की एक्सरसाइज सूचनाओं को याद रखने में बड़ी मददगार होती हैं......... - आप जो भी याद करने की कोशिश कर रहे हैं , उसे ठीक तरीके से विजुअलाइज करें। सवाल में मौजूद पिक्चर , ग्राफ आदि को दिमाग में बिठाएं। अगर सवाल के अंदर ऐसी कोई पि...

प्यारी माँ
रोजाना सिर्फ ये दो काम कर लेंगे तो बीमार नहीं पड़ेगे - आजकल बदलते मौसम के साथ तबीयत बिगड़ जाना एक आम समस्या है। सर्दी, खांसी, पेट व बुखार जैसी समस्याएं कमजोर इम्युनिटी पॉवर के कारण बदलते मौसम के साथ शरीर पर त...
‘वेद क़ुरआन‘ ब्लॉग पर

गायत्री मंत्र रहस्य भाग 2 The mystery of Gayatri Mantra 2

इस लेख का पिछला भाग यहां पढ़ें-

गायत्री मंत्र रहस्य भाग 1 The mystery of Gayatri Mantra 1

आप यह देखें कि गायत्री मंत्र के जिस अर्थ का हमें दर्शन हुआ है, उसके द्वारा व्याकरण के विद्वानों की आपत्तियां न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती हैं।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
अर्थात हम परमेश्वर के सूर्य के उस वरणीय प्रकाश का ध्यान करें जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।

गायत्री मंत्र के व्याकरण पर आपत्ति उचित नहीं है
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गर्मियों की छुट्टियां

अनवर भाई आपकी गर्मियों की छुट्टियों की दास्तान पढ़ कर हमें आपकी किस्मत से रश्क हो रहा है...ऐसे बचपन का सपना तो हर बच्चा देखता है लेकिन उसके सच होने का नसीब आप जैसे किसी किसी को ही होता है...बहुत दिलचस्प वाकये बयां किये हैं आपने...मजा आ गया. - नीरज गोस्वामी

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