कल जुमातुल-विदा की नमाज़ मुल्क भर में अमन के साथ अदा की गई और मुल्क भर के मुसलमानों ने अपनी और अपने मुल्क की ख़ुशहाली के साथ पूरी दुनिया में अम्नो-अमान की दुआएं मांगी।
राष्ट्रीय सहारा उर्दू (दिनांक 27 अगस्त 2011) के मुताबिक़ दिल्ली की जामा मस्जिद में भी दो लाख मुसलमानों ने अलविदा जुमा की नमाज़ अदा की। इस मौक़े पर शाही इमाम सय्यद अहमद बुख़ारी साहब ने मुसलमानों से खि़ताब भी किया।
राष्ट्रीय सहारा उर्दू (दिनांक 27 अगस्त 2011) के मुताबिक़ दिल्ली की जामा मस्जिद में भी दो लाख मुसलमानों ने अलविदा जुमा की नमाज़ अदा की। इस मौक़े पर शाही इमाम सय्यद अहमद बुख़ारी साहब ने मुसलमानों से खि़ताब भी किया।
अपने खि़ताब में मौलाना बुख़ारी साहब ने कहा कि मुसलमानों में मज़हब के बारे में जागरूकता और तालीम के मैदान में आगे बढ़ने की वजह से इस्लाम दुश्मन ताक़तें परेशान हैं और वे मुसलमानों को परेशान करने और उन्हें तरह तरह के मसाएल में उलझाने की साज़िशों में मसरूफ़ हैं। उन्होंने मुसलमानों को ताकीद की कि वे आपस में एकता क़ायम करें और दीन की रस्सी को मज़बूती से थामे रहें।
वे यही बातें कहकर रूक जाते तो हम भी टाल जाते लेकिन उन्होंने इस खि़ताब में अन्ना हज़ारे के आंदोलन का विरोध भी किया। उन्होंने कहा कि सड़क पर बनाए गए क़ानून को धौंस और ज़बर्दस्ती के ज़रिए मुल्क पर लागू नहीं किया जा सकता और हमें हर हाल में पार्लियामेंट की बालादस्ती क़ायम रखनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अन्ना के आंदोलन को फ़िरक़ापरस्तों का समर्थन भी हासिल है और अगर एक बार सरकार इस आंदोलन के सामने झुक गई तो फिर फ़िरक़ापरस्त ताक़तें भी ऐसे ही आंदोलन के ज़रिए राम मंदिर बनवाने का क़ानून पास करवा सकती है।
मौलाना बुख़ारी साहब ने यह भी कहा कि दिल्ली, उड़ीसा और गुजरात में सिख, ईसाई और मुसलमानों पर ज़ुल्म हुए लेकिन अन्ना ने कोई आंदोलन क्यों नहीं किया ?
मज़हबी रहनुमाओं की तक़रीर का सबसे प्यारा विषय है ‘तुम्हारे दुश्मन तुम्हारे खि़लाफ़ साज़िशें कर रहे हैं।‘
मैं बचपन से ये बातें पढ़ते पढ़ते जवान हो गया लेकिन अभी तक तो किसी दुश्मन की कोई साज़िश मुसलमानों का सफ़ाया कर न सकी। इसलिए अब यह यक़ीन पैदा हो गया है कि किसी की कोई साज़िश मुसलमानों को मिटा न सकेगी। अलबत्ता आपसी एकता और भाईचारे की बहुत ज़रूरत है और इसके सबसे बड़े दुश्मन यही थोड़े से ख़ुदग़र्ज़ मौलाना लोग हैं, जिन्हें इस्लामी शब्दावली में ‘उलमा ए सू‘ अर्थात बुरे आलिम की उपाधि दी गई है।
हक़ीक़त यह है कि मदरसे में जो कोई भी एक ख़ास कोर्स कर लेता है वह मौलवी कहलाने लगता है और उन्हीं को लोग आदर से मौलाना कहने लगते हैं। अच्छे दीनदार आलिम सियासतबाज़ी और जोड़ तोड़ से दूर रहते हैं जबकि इस हुनर के माहिर लोग मस्जिद और मदरसों पर क़ाबिज़ हो जाते हैं।
अच्छा आलिम वह होता है जो ख़ुदा से डरता है, गुनाह से बचता है और लोगों को सही बात बताता है। सच्चाई की ख़ातिर अपनी जान और अपना माल ख़र्च करता है। अच्छा आलिम उसूल के लिए ख़ुद को क़ुर्बान करता है।
बुरा आलिम वह होता है जो कि ख़ुद के लिए उसूलों को क़ुर्बान कर देता है। वही बात कहता है जिसमें उसका अपना कोई फ़ायदा हो। माल और शोहरत के लिए वह ग़लत लोगों की हिमायत करने से भी बाज़ नहीं आता और क़ौम को भी टुकड़े टुकड़े ऐसे ही लोग करते हैं।
कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक को ख़ुद मौलाना बुख़ारी साहब समर्थन दे चुके हैं। ऐसे में फिर किस दुश्मन से मुसलमानों को बच कर रहना चाहिए ?
क्या अन्ना से ?
मुसलमानों को फ़िरक़ों में बांटने वाले भी यही ख़ुदग़र्ज़ मौलवी हैं।
ये मतलबपरस्त मौलवी हैं तो थोड़े से लेकिन अपने जोड़ तोड़ की वजह से हैं बहुत पॉवरफ़ुल।
अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। ठीक ऐसे ही बुरे मौलवी अच्छे मौलवी को क़ौम का इमाम और पेशवा ही नहीं बनने देते।
इस्लाम में पुरोहितवाद नहीं है। इस्लाम में किसी जाति या किसी वंश के हाथ में मुसलमानों की मुक्ति निहित नहीं है और न ही यह है कि बाप के बाद बेटा ही मस्जिद का इमाम बनेगा। इस्लामी ख़लीफ़ा हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर रज़ि. ने अपने बाद खि़लाफ़त अपने किसी बेटे को दी भी नहीं जबकि उनके बेटे बड़े दीनदार और नेक थे।
इस्लाम का उसूल यह है कि जो आदमी अपने लिए किसी ओहदे का ख्वाहिशमंद हो तो वह उस ओहदे के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं है।
ओहदे का ख्वाहिशमंद आदमी जब ओहदे पर बैठता है तो यह एक ग़ैर इस्लामी काम होता है और यह ग़ैर इस्लामी काम मौलाना बुख़ारी साहब के ख़ानदान में पिछली कई नस्लों से होता आ रहा है।
इस्लाम में तो क़ब्र पक्की करना ही मना है। उस पर इमारत बनाना भी मना है और उस पर नाच गाना करना, मेले लगाना और वहां औरतों का जमा होना भी मना है लेकिन हिंदुस्तान में हज़ारों जगह यही सब हो रहा है और मौलाना बुख़ारी ख़ामोश हैं।
अन्ना से उनकी ख़ामोशी का हिसाब मांगने वाले मौलाना बुख़ारी ख़ुद ख़ामोश क्यों हैं ?
इन हज़ारों मज़ारों के मुजाविर अपने बाद अपनी औलाद को उस क़ब्र की देखरेख सौंपता रहते हैं और उन क़ब्रों पर आने वाले दर्शनार्थियों से मिलने वाली रक़मों से ये मुजाविर ख़ानदान बिना कुछ किए ही नवाबों जैसी ज़िंदगी बसर करते हैं जबकि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सत्संगी सहाबा की भी मौत हुई और उनकी औलाद ने उनकी क़ब्रों को अपनी इन्कम का ज़रिया नहीं बनाया। वे आजीवन मेहनत मज़दूरी, किसानी और कारोबार के ज़रिये ही अपनी रोज़ी हासिल करते रहे।
मौलाना बुख़ारी लोगों को ग़लती पर जमे देखकर महज़ इसलिए चुप हैं कि चुप रहने में ही उनकी भलाई है और यही काम अन्ना ने किया। अन्ना ने महाराष्ट्र में बिहारियों को पिटते हुए देखा लेकिन ख़ामोश रहे क्योंकि इसी में उनकी भलाई थी। हरेक आदमी अपनी ताक़त के मुताबिक़ ही काम अंजाम दे सकता है।
बात यह नहीं है कि अन्ना ने कब कब आंदोलन नहीं किया बल्कि असल बात यह है कि जब जब उन्होंने आंदोलन किया तो क्या तब तब वह ग़लत थे ?
इमाम साहब ने इससे पहले यह भी कहा था कि अन्ना की सभा में लोग वंदे मातरम् के नारे लगाते हैं , इसलिए मुसलमानों को उनकी सभा से दूर रहना चाहिए लेकिन वंदे मातरम् के नारे तो लोग महात्मा गांधी की सभा में भी लगाते थे और कांग्रेस की सभाओं में भी लगा देते हैं तो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना हुसैन अहमद मदनी जैसे आलिम उनकी सभा में जाने से और उन्हें समर्थन देने से क्यों न रूके और ख़ुद बुख़ारी साहब कांग्रेस को समर्थन क्यों देते आए हैं ?
वंदे मातरम् बीजेपी का प्रिय इश्यू है। बीजेपी के लिए भी मौलाना बुख़ारी साहब मुसलमानों से समर्थन की अपील कर चुके हैं। जो जो आदमी मौलाना को नवाज़ सकता था, उसके हक़ में मौलाना ने दीन से हटकर भी समर्थन की अपील की लेकिन अन्ना बेचारे मौलाना को कुछ दे नहीं सकते तो फिर मौलाना का समर्थन उन्हें क्यों मिलने लगा भला ?
मुसलमान मस्जिद जाता है नमाज़ अदा करने के लिए और उन्हें वहां मिल जाते हैं मौलाना अहमद बुख़ारी साहब जैसे रहनुमा जो अपनी ग़र्ज़ की वजह से उन्हें ग़लत रहनुमाई देकर भटका रहे हैं।
मुसलमानों में तालीम के बढ़ते रूझान से इस्लाम के दुश्मनों से ज़्यादा मुसलमानों के यही रहनुमा परेशान हैं क्योंकि उनके लिए मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है।
अलविदा जुमा के मौक़े पर मौलाना का बयान मुसलमानों की किसी भी समस्या का हल नहीं है बल्कि इस्लाम की असल भावना से दूर करने वाला है और इस्लाम की भावना यह है कि नेकी के हरेक काम में सबको सहयोग दीजिए चाहे वह तुम्हारे वर्ग से हो या उसके बाहर से हो, चाहे वह तुम्हारे समान धार्मिक मान्यता रखता हो या फिर उनसे अलग या उनके विपरीत रखता हो।
अन्ना की सभा में सभी मान्यताओं के लोग शामिल हो रहे हैं और वे अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार नारे लगाने के लिए आज़ाद हैं। मुसलमानों को भी आज़ादी है कि वे उर्दू , फ़ारसी और अरबी में जिस ज़बान में चाहें अपने नारे लगा लें।
अल्लाह मुसलमानों से रोज़े क़ियामत यह सवाल नहीं करेगा कि दूसरों ने क्या नारे लगाए थे ?
लेकिन वह यह सवाल ज़रूर करेगा कि ‘ऐ मुसलमानों ! तुमने इस ज़मीन से ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी के ख़ात्मे के लिए क्या किया ?
मुसलमानों को अपने फ़र्ज़ की अदायगी पर ध्यान देना चाहिए, जिसके बारे में आखि़रत (परलोक) में पूछताछ होगी और दुनिया में सरबुलंद बनाने वाली बात भी दरअसल यही है।
जिस दिन मुसलमान अपने ग़लत रहनुमाओं को किनारे कर देंगे, उसी दिन मुसलमानों की फ़िरक़ेबंदी भी दूर हो जाएगी और उनकी सारी कमज़ोरियां भी दूर हो जाएंगी और तब दुश्मन की हरेक साज़िश नाकाम होकर रह जाएगी।
मौलाना बुख़ारी को भी यह देखना चाहिए कि वे इस्लामी ख़लीफ़ाओं के नक्शे क़दम पर हैं या उनसे हटकर चल रहे हैं ?
अन्ना के आमाल का जायज़ा लेने के बजाय वे ख़ुद देखें कि आज तक बयान देने के अलावा उन्होंने मुसलमानों के लिए क्या किया है और ख़ुद के लिए क्या किया है ?
...और इस्लाम के लिए उन्होंने क्या किया है ?
उन्हें देखना चाहिए कि वे इस्लाम के लिए ख़ुद को क़ुर्बान कर रहे हैं या कि ख़ुद के लिए इस्लामी उसूलों की बलि चढ़ा रहे हैं ?
इसी विषय पर हमारा यह लेख भी देखने लायक़ है
वे यही बातें कहकर रूक जाते तो हम भी टाल जाते लेकिन उन्होंने इस खि़ताब में अन्ना हज़ारे के आंदोलन का विरोध भी किया। उन्होंने कहा कि सड़क पर बनाए गए क़ानून को धौंस और ज़बर्दस्ती के ज़रिए मुल्क पर लागू नहीं किया जा सकता और हमें हर हाल में पार्लियामेंट की बालादस्ती क़ायम रखनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अन्ना के आंदोलन को फ़िरक़ापरस्तों का समर्थन भी हासिल है और अगर एक बार सरकार इस आंदोलन के सामने झुक गई तो फिर फ़िरक़ापरस्त ताक़तें भी ऐसे ही आंदोलन के ज़रिए राम मंदिर बनवाने का क़ानून पास करवा सकती है।
मौलाना बुख़ारी साहब ने यह भी कहा कि दिल्ली, उड़ीसा और गुजरात में सिख, ईसाई और मुसलमानों पर ज़ुल्म हुए लेकिन अन्ना ने कोई आंदोलन क्यों नहीं किया ?
मज़हबी रहनुमाओं की तक़रीर का सबसे प्यारा विषय है ‘तुम्हारे दुश्मन तुम्हारे खि़लाफ़ साज़िशें कर रहे हैं।‘
मैं बचपन से ये बातें पढ़ते पढ़ते जवान हो गया लेकिन अभी तक तो किसी दुश्मन की कोई साज़िश मुसलमानों का सफ़ाया कर न सकी। इसलिए अब यह यक़ीन पैदा हो गया है कि किसी की कोई साज़िश मुसलमानों को मिटा न सकेगी। अलबत्ता आपसी एकता और भाईचारे की बहुत ज़रूरत है और इसके सबसे बड़े दुश्मन यही थोड़े से ख़ुदग़र्ज़ मौलाना लोग हैं, जिन्हें इस्लामी शब्दावली में ‘उलमा ए सू‘ अर्थात बुरे आलिम की उपाधि दी गई है।
हक़ीक़त यह है कि मदरसे में जो कोई भी एक ख़ास कोर्स कर लेता है वह मौलवी कहलाने लगता है और उन्हीं को लोग आदर से मौलाना कहने लगते हैं। अच्छे दीनदार आलिम सियासतबाज़ी और जोड़ तोड़ से दूर रहते हैं जबकि इस हुनर के माहिर लोग मस्जिद और मदरसों पर क़ाबिज़ हो जाते हैं।
अच्छा आलिम वह होता है जो ख़ुदा से डरता है, गुनाह से बचता है और लोगों को सही बात बताता है। सच्चाई की ख़ातिर अपनी जान और अपना माल ख़र्च करता है। अच्छा आलिम उसूल के लिए ख़ुद को क़ुर्बान करता है।
बुरा आलिम वह होता है जो कि ख़ुद के लिए उसूलों को क़ुर्बान कर देता है। वही बात कहता है जिसमें उसका अपना कोई फ़ायदा हो। माल और शोहरत के लिए वह ग़लत लोगों की हिमायत करने से भी बाज़ नहीं आता और क़ौम को भी टुकड़े टुकड़े ऐसे ही लोग करते हैं।
कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक को ख़ुद मौलाना बुख़ारी साहब समर्थन दे चुके हैं। ऐसे में फिर किस दुश्मन से मुसलमानों को बच कर रहना चाहिए ?
क्या अन्ना से ?
मुसलमानों को फ़िरक़ों में बांटने वाले भी यही ख़ुदग़र्ज़ मौलवी हैं।
ये मतलबपरस्त मौलवी हैं तो थोड़े से लेकिन अपने जोड़ तोड़ की वजह से हैं बहुत पॉवरफ़ुल।
अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। ठीक ऐसे ही बुरे मौलवी अच्छे मौलवी को क़ौम का इमाम और पेशवा ही नहीं बनने देते।
इस्लाम में पुरोहितवाद नहीं है। इस्लाम में किसी जाति या किसी वंश के हाथ में मुसलमानों की मुक्ति निहित नहीं है और न ही यह है कि बाप के बाद बेटा ही मस्जिद का इमाम बनेगा। इस्लामी ख़लीफ़ा हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर रज़ि. ने अपने बाद खि़लाफ़त अपने किसी बेटे को दी भी नहीं जबकि उनके बेटे बड़े दीनदार और नेक थे।
इस्लाम का उसूल यह है कि जो आदमी अपने लिए किसी ओहदे का ख्वाहिशमंद हो तो वह उस ओहदे के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं है।
ओहदे का ख्वाहिशमंद आदमी जब ओहदे पर बैठता है तो यह एक ग़ैर इस्लामी काम होता है और यह ग़ैर इस्लामी काम मौलाना बुख़ारी साहब के ख़ानदान में पिछली कई नस्लों से होता आ रहा है।
इस्लाम में तो क़ब्र पक्की करना ही मना है। उस पर इमारत बनाना भी मना है और उस पर नाच गाना करना, मेले लगाना और वहां औरतों का जमा होना भी मना है लेकिन हिंदुस्तान में हज़ारों जगह यही सब हो रहा है और मौलाना बुख़ारी ख़ामोश हैं।
अन्ना से उनकी ख़ामोशी का हिसाब मांगने वाले मौलाना बुख़ारी ख़ुद ख़ामोश क्यों हैं ?
इन हज़ारों मज़ारों के मुजाविर अपने बाद अपनी औलाद को उस क़ब्र की देखरेख सौंपता रहते हैं और उन क़ब्रों पर आने वाले दर्शनार्थियों से मिलने वाली रक़मों से ये मुजाविर ख़ानदान बिना कुछ किए ही नवाबों जैसी ज़िंदगी बसर करते हैं जबकि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सत्संगी सहाबा की भी मौत हुई और उनकी औलाद ने उनकी क़ब्रों को अपनी इन्कम का ज़रिया नहीं बनाया। वे आजीवन मेहनत मज़दूरी, किसानी और कारोबार के ज़रिये ही अपनी रोज़ी हासिल करते रहे।
मौलाना बुख़ारी लोगों को ग़लती पर जमे देखकर महज़ इसलिए चुप हैं कि चुप रहने में ही उनकी भलाई है और यही काम अन्ना ने किया। अन्ना ने महाराष्ट्र में बिहारियों को पिटते हुए देखा लेकिन ख़ामोश रहे क्योंकि इसी में उनकी भलाई थी। हरेक आदमी अपनी ताक़त के मुताबिक़ ही काम अंजाम दे सकता है।
बात यह नहीं है कि अन्ना ने कब कब आंदोलन नहीं किया बल्कि असल बात यह है कि जब जब उन्होंने आंदोलन किया तो क्या तब तब वह ग़लत थे ?
इमाम साहब ने इससे पहले यह भी कहा था कि अन्ना की सभा में लोग वंदे मातरम् के नारे लगाते हैं , इसलिए मुसलमानों को उनकी सभा से दूर रहना चाहिए लेकिन वंदे मातरम् के नारे तो लोग महात्मा गांधी की सभा में भी लगाते थे और कांग्रेस की सभाओं में भी लगा देते हैं तो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना हुसैन अहमद मदनी जैसे आलिम उनकी सभा में जाने से और उन्हें समर्थन देने से क्यों न रूके और ख़ुद बुख़ारी साहब कांग्रेस को समर्थन क्यों देते आए हैं ?
वंदे मातरम् बीजेपी का प्रिय इश्यू है। बीजेपी के लिए भी मौलाना बुख़ारी साहब मुसलमानों से समर्थन की अपील कर चुके हैं। जो जो आदमी मौलाना को नवाज़ सकता था, उसके हक़ में मौलाना ने दीन से हटकर भी समर्थन की अपील की लेकिन अन्ना बेचारे मौलाना को कुछ दे नहीं सकते तो फिर मौलाना का समर्थन उन्हें क्यों मिलने लगा भला ?
मुसलमान मस्जिद जाता है नमाज़ अदा करने के लिए और उन्हें वहां मिल जाते हैं मौलाना अहमद बुख़ारी साहब जैसे रहनुमा जो अपनी ग़र्ज़ की वजह से उन्हें ग़लत रहनुमाई देकर भटका रहे हैं।
मुसलमानों में तालीम के बढ़ते रूझान से इस्लाम के दुश्मनों से ज़्यादा मुसलमानों के यही रहनुमा परेशान हैं क्योंकि उनके लिए मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है।
अलविदा जुमा के मौक़े पर मौलाना का बयान मुसलमानों की किसी भी समस्या का हल नहीं है बल्कि इस्लाम की असल भावना से दूर करने वाला है और इस्लाम की भावना यह है कि नेकी के हरेक काम में सबको सहयोग दीजिए चाहे वह तुम्हारे वर्ग से हो या उसके बाहर से हो, चाहे वह तुम्हारे समान धार्मिक मान्यता रखता हो या फिर उनसे अलग या उनके विपरीत रखता हो।
अन्ना की सभा में सभी मान्यताओं के लोग शामिल हो रहे हैं और वे अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार नारे लगाने के लिए आज़ाद हैं। मुसलमानों को भी आज़ादी है कि वे उर्दू , फ़ारसी और अरबी में जिस ज़बान में चाहें अपने नारे लगा लें।
अल्लाह मुसलमानों से रोज़े क़ियामत यह सवाल नहीं करेगा कि दूसरों ने क्या नारे लगाए थे ?
लेकिन वह यह सवाल ज़रूर करेगा कि ‘ऐ मुसलमानों ! तुमने इस ज़मीन से ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी के ख़ात्मे के लिए क्या किया ?
मुसलमानों को अपने फ़र्ज़ की अदायगी पर ध्यान देना चाहिए, जिसके बारे में आखि़रत (परलोक) में पूछताछ होगी और दुनिया में सरबुलंद बनाने वाली बात भी दरअसल यही है।
जिस दिन मुसलमान अपने ग़लत रहनुमाओं को किनारे कर देंगे, उसी दिन मुसलमानों की फ़िरक़ेबंदी भी दूर हो जाएगी और उनकी सारी कमज़ोरियां भी दूर हो जाएंगी और तब दुश्मन की हरेक साज़िश नाकाम होकर रह जाएगी।
मौलाना बुख़ारी को भी यह देखना चाहिए कि वे इस्लामी ख़लीफ़ाओं के नक्शे क़दम पर हैं या उनसे हटकर चल रहे हैं ?
अन्ना के आमाल का जायज़ा लेने के बजाय वे ख़ुद देखें कि आज तक बयान देने के अलावा उन्होंने मुसलमानों के लिए क्या किया है और ख़ुद के लिए क्या किया है ?
...और इस्लाम के लिए उन्होंने क्या किया है ?
उन्हें देखना चाहिए कि वे इस्लाम के लिए ख़ुद को क़ुर्बान कर रहे हैं या कि ख़ुद के लिए इस्लामी उसूलों की बलि चढ़ा रहे हैं ?
इसी विषय पर हमारा यह लेख भी देखने लायक़ है