मुसलमानों के शैक्षणिक पिछड़ेपन का सच्चर समिति ने अत्यन्त गहन अध्ययन किया है। समिति ने पाया है कि मुसलमान, शिक्षा के मामले में लगभग हर स्तर पर पिछड़े हैं। उनकी साक्षरता दर, राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पहले स्कूल छोड़ने वाले मुसलमान बच्चों का प्रतिशत काफी अधिक है और इसलिये, स्नातक व स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में भर्ती होने वाले मुसलमान विद्यार्थियों की संख्या, उनकी आबादी के अनुपात में बहुत कम है। मुसलमानों के इस शैक्षणिक पिछड़ेपन के लिये कई अलग-अलग कारणों को जिम्मेदार बताया जा जाता है। मूलतः, दो प्रकार की बातें कही जाती हैं। पहली यह कि इस स्थिति के लिये इस्लाम जिम्मेदार है क्योंकि वह धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के खिलाफ है। कुछ अन्य लोग, इस्लाम को दोषी ठहराने की बजाय, मुसलमानों को कटघरे में खड़ा करते हैं। उनका कहना है कि मुसलमानों की अपने बच्चों को स्कूल भेजने में रूचि ही नहीं है। दूसरे कारण को सही मानने वाले लोग हमारी शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन और विवेचन कर यह पता लगाना चाहते हैं कि अल्पसंख्यकों, दलितों व आदिवासियों को इस व्यवस्था में पर्याप्त तवज्जो क्यों नहीं मिल रही है। इसके विपरीत, पहले कारण को सही मानने वालों में से बहुसंख्यक या तो साम्प्रदायिक सोच रखते हैं या फिर बिना सोच-समझे, जल्दबाजी में अपनी राय बनाने के आदि हैं। दूसरे कारण में विश्वास रखने वालों में शिक्षाविदों की खासी संख्या है और विशेषकर ऐसे शिक्षाविदों की, जो शैक्षणिक पिछड़ेपन की समस्या से जूझ रहे हैं।
मुसलमानों में शैक्षणिक पिछड़ेपन के कारण
मुसलमानों में शैक्षणिक पिछड़ेपन के पीछे सबसे बड़ा कारण है गरीबी। मुसलमानों में भाषाई और क्षेत्रीय आधारों पर व जाति-बिरादरियों के कारण बहुत विविधता है। वे मुस्लिम बिरादरियां, जिनकी अपेक्षाकृत बेहतर आमदनी है, शैक्षणिक रूप से भी आगे हैं। उदाहरणार्थ बोहरा, खोजा और मेमन; मेहतरों, बागवानों और तेलियों से शिक्षा के मामले में कहीं आगे हैं। अंसारी और कुरैशी जैसी बिरादरियाँ भी अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाने में रूचि ले रही हैं और उनके कई सदस्य, व्यावासायिक पाठ्यक्रमों में भी दाखिला ले रहे हैं। मुसलमानों में शिक्षा की प्यास और उसके महत्व का अहसास, बाबरी ध्वंस और उसके बाद हुये दंगों के समय से तेजी से बढ़ा है। शिक्षा को एक ऐसी कुंजी के रूप में देखा जा रहा है जो आपको इस तरह की सुरक्षित नौकरियाँ और रोजगार दिलवा सकती है, जो दंगों के दौरान नष्ट नहीं होती। दसवीं और बारहवीं कक्षाओं की परीक्षाओं में मुस्लिम लड़कियाँ मेरिट लिस्ट में स्थान पा रही हैं। हाल में एक तथ्यान्वेषण मिशन के दौरान जब हम एक कॉन्वेंट स्कूल में पहुँचे तो हमने देखा कि घरेलू कामकाज कर अपनी जीविका चलाने वाली एक मुस्लिम महिला, स्कूल के प्राचार्य से बहस में जुटी है। प्रिंसिपल का कहना था कि स्कूल की फीस इतनी अधिक है कि वह उसे चुका न सकेगी परन्तु महिला का तर्क था कि उसे चाहे एक वक्त भूखा ही क्यों न रहना पड़े या और घरों में काम क्यों ना करना पड़े, परन्तु वह अपने बच्चे को उसी स्कूल में पढ़ायेगी।
गरीब मुस्लिम परिवारों को, आमदनी की खातिर, अपने छोटे बच्चों को काम-धंधों में लगा देना पड़ता है। ज़रदोसी, कालीन, चूड़ियां और कई अन्य उद्योगों में काम करने वाले बाल श्रमिकों में मुसलमान बच्चों की संख्या खासी है। कई मुस्लिम बच्चों का कौशल का स्तर काफी ऊँचा होता है परन्तु किसी औपचारिक प्रशिक्षण व प्रमाणपत्र के अभाव में, उन्हें अच्छी आमदनी वाले काम नहीं मिल पाते। कम आय का असर अगली पीढ़ी पर भी पड़ता है। एक पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी के लिये आय के कोई स्थायी स्त्रोत नहीं छोड़ जाती और नतीजे में गरीबी का दुष्चक्र चलता रहता है। साम्प्रदायिक दंगों के दौरान अपनी कड़ी मेहनत से जुटाई गई थोड़ी-बहुत सम्पत्ति भी मुस्लिम परिवार खो बैठते हैं। उन्हें न पर्याप्त मुआवजा मिलता है और ना ही उनका पुनर्वास होता है। मुसलमानों के छोटे से मध्यम वर्ग में से भी कई परिवार निम्न वर्ग में खिसक गये हैं क्योंकि दंगों में उनके छोटे-मोटे व्यवसाय नष्ट हो गये। लगभग 75 से 80 प्रतिशत मुसलमान, शारीरिक श्रम या हस्तकौशल से अपनी आजीविका कमा रहे हैं।
अक्सर मुसलमान अपने ही मोहल्लों में रहते हैं, जो शहरों या गाँव के बाहरी इलाकों में बसाये जाते हैं। इन मोहल्लों में सड़क, पानी व बिजली की सुविधाओं और बैंकिंग व शैक्षणिक संस्थाओं का अभाव रहता है। चूँकि ऐसे मोहल्लों में अक्सर स्कूल नहीं होते इसलिये बच्चों को दूर के स्कूलों में पढ़ने जाना पड़ता है। इससे शिक्षा का खर्च बढ़ जाता है। दूर के स्कूलों में बच्चों, विशेषकर लड़कियों, को भेजने से माँ-बाप डरते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि साम्प्रदायिक हिंसा भड़कने की स्थिति में उनके बच्चों को नुकसान पहुँचाया जा सकता है। यही कारण है कि मुस्लिम अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाई पूरी होने से पहले ही स्कूल से निकाल लेते हैं। सच्चर समिति की रपट के अनुसार, किसी इलाके की आबादी में मुसलमानों का अनुपात जितना ज्यादा होता है, उस इलाके में मूलभूत सुविधाओं की उतनी ही कमी होती है।
एक अन्य कारण है मुस्लिम बच्चों के प्रति स्कूल प्रबन्धनों का भेदभावपूर्ण रवैया। हमारे दिमाग में भी पूर्वाग्रह होते हैं। हम में से कई को लगता है कि मुस्लिम बच्चों को उर्दू माध्यम से पढ़ना चाहिये भले ही उर्दू उनकी मातृभाषा न हो। यह मानकर चला जाता है कि वे पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी होंगे। इसके अलावा, स्कूलों का अजनबी वातावरण, वहाँ सरस्वती वंदना, गीता की पढ़ाई, सूर्य नमस्कार और इसी तरह की अन्य गतिविधियों के कारण भी मुस्लिम बच्चे अपनी शिक्षा जारी नहीं रखते।
मुसलमानों के शैक्षणिक पिछड़ेपन का एक अन्य कारण है राजनैतिक ढाँचे में उनका कम प्रतिनिधित्व। अधिकाँश प्रजातांत्रिक, राजनैतिक संस्थाओं में उनकी उपस्थिति, उनकी आबादी के अनुपात के एक-तिहाई से भी कम है। जरूरत पड़ने पर अभिभावकों को कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आता जिससे वे कोई जानकारी हासिल कर सकें या प्रमाणपत्र आदि प्राप्त कर सकें। मुस्लिम प्रबन्धन वाले अच्छे स्कूल बहुत कम हैं। कई ऐसे मुस्लिम ट्रस्ट हैं जो शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना करना चाहते हैं परन्तु सरकारें अक्सर उनकी मदद नहीं करतीं। उन्हें जमीन नही दी जाती, उन्हें अनुदान नहीं मिलता और यहाँ तक कि उन्हें मान्यता देने में भी आनाकानी की जाती है।
राजनैतिक नेतृत्व में मुसलमानों की संख्या कम तो है ही, उनके नेताओं की सोच के कारण भी कई समस्याएयें उभर रही हैं। समुदाय का राजनैतिक नेतृत्व अक्सर उच्च जाति के धर्मपरिवर्तित मुसलमानों, जिन्हें अशरफ कहा जाता है, के हितों की रक्षा करता है। यह नेतृत्व केवल पहचान से जुड़े मुद्दे उछालता रहता है और कुरान की चहारदीवारी में रहते हुये भी, शरीयत कानूनों में किसी प्रकार के बदलाव की मुखालिफत करता है। सत्ताधारी वर्ग भी यह चाहता है कि शरीयत कानूनों और इस्लामिक विधिशास्त्र की मध्यकालीन विवेचना को ही स्वीकृति मिली रहे। यह विवेचना न केवल महिलाओं के साथ भेदभाव करती है वरन् कुरान की मूल आत्मा की खिलाफ भी है। मुस्लिम पर्सनल ला के मुद्दे पर शोर मचाकर राजनैतिक नेतृत्व यह सोचता है कि उसने अपने कर्तव्य का पालन कर दिया। चन्द अपवादों को छोड़कर, ऐसे मुसलमान नेताओं की संख्या गिनी चुनी है, जो मुसलमानों की शिक्षा और उनकी रोजी-रोटी से जुड़े मुद्दे उठाते हों।
भारत में अच्छे प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक स्कूलों की भारी कमी है। ये स्कूल मुख्यतः शहरी इलाकों में हैं और इनमें मुसलमानो को आसानी से प्रवेश नहीं मिलता। भारतीय राज्य को यह अहसास हो गया है कि अगर देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा, पिछड़ा और अशिक्षित बना रहेगा तो देश प्रगति नहीं कर सकेगा। इसलिये सच्चर समिति की नियुक्ति की गई और प्रधानमन्त्री के नये पन्द्रह सूत्रीय कार्यक्रम जैसे कुछ कदम उठाये गये। ये कार्यक्रम मुसलमानों की समस्याओं में से सिर्फ एक-गरीबी-पर केन्द्रित हैं। इन कार्यक्रमों में शामिल हैं मुस्लिम बच्चों के लिये वजीफे, होस्टल की सुविधायें, शैक्षणिक ऋण और कई अन्य चीजें। परन्तु इस कार्यक्रम के साथ कई समस्याएयें हैं-पर्याप्त धनराशि का अभाव, नौकरशाही में इच्छाशक्ति की कमी और समुदाय की असली समस्याओं से निपटने के लिये उचित नीतियों का अभाव। स्थान की कमी के कारण हम यहाँ मुसलमानों में शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाले कार्यक्रमों की विफलता के कारणों पर चर्चा नहीं करेंगे। गरीबी इसके कई कारणों में से सिर्फ एक है और इससे मुकाबला करने की सरकार द्वारा, आधे-अधूरे मन से ही सही, कुछ कोशिश की जा रही है परन्तु विभिन्न कारणों से सफलता का प्रतिशत काफी कम है।
मौलाना आजाद की शिक्षा के सम्बंध में सोच
अगर मौलाना आजाद भारत सरकार को शिक्षा सम्बंधी अपनी नीतियों को लागू करने के लिये राजी करने में सफल हो जाते तो आज का परिदृश्य कुछ अलग ही होता। उनके लिये भारत सरकार की शिक्षा नीति, उसकी उद्योग नीति से भी अधिक महत्वपूर्ण थी। स्वतन्त्र भारत के पहले शिक्षा मन्त्री की हैसियत से मौलाना आजाद हमारी शिक्षा व्यवस्था को मजबूती देना और उसका प्रजातान्त्रिकीकरण करना चाहते थे। वे चाहते थे कि शिक्षा का इस तरह से प्रजातान्त्रिकीकरण किया जाये कि उच्च जातियों और वर्गों का उस पर कसा शिकंजा ढीला पड़ सके।
उनके चार लक्ष्य थे:
1) प्राथमिक से माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के लोकव्यापीकरण के जरिए निरक्षरता पर प्रहार। प्रौढ़ शिक्षा व महिलाओं की शिक्षा पर जोर।
2) बिना जाति, समुदाय या वर्ग के भेदभाव के, पूरे भारतीय समाज में शिक्षा के अवसरों की समानता सुनिश्चित करना।
3) त्रिभाषा फार्मूला एवम्
4) पूरे राष्ट्र में मजबूत प्राथमिक शिक्षा तन्त्र की स्थापना।
मौलाना आजाद का यह मत था कि ‘‘हर व्यक्ति को ऐसी शिक्षा पाने का हक है जो उसे उसकी क्षमताओं का पूरा विकास करने और मानव जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जीने का अवसर प्रदान करे। ऐसी शिक्षा पाना हर व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। राज्य तब तक यह दावा नहीं कर सकता कि उसने अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर दिया है जब तक कि वह प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त करने और स्वयं का विकास करने के आवश्यक साधन उपलब्ध नहीं करवा देता’’… ‘‘रोजगार का मुद्दा अलग है। राज्य को अपने सभी नागरिकों को माध्यमिक स्तर तक शिक्षा की सुविधा उपलब्ध करवानी चाहिये।’’
मौलाना आजाद का यह मानना था कि कुछ ही समय पहले विदेशी शासन से मुक्त हुये भारतीयों में एक अच्छे नागरिक के गुण विकसित करने और उन्हें जाति और लैंगिक भेदभाव की प्रवृति से मुक्ति दिलाने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। उनकी मान्यता थी कि नागरिकों को समानता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिये और उन्हें भारत की धार्मिक, नस्लीय और भाषायी विविधता के संबन्ध में संवेदनशील बनाया जाना चाहिये। मौलाना आजाद का मानना था कि प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लोकव्यापीकरण के लिये भारत को अपने कुल बजट का कम से कम दस फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करना होगा। हमारे देश में अब तक शिक्षा के लिये कभी भी छः प्रतिशत से अधिक बजट का आवंटन नहीं किया गया और सामान्यतः तो दो से तीन प्रतिशत बजट ही शिक्षा पर खर्च किया जाता है। मौलाना चाहते थे कि शिक्षा के बजट को मुख्यतः प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा और महिला व प्रौढ़ शिक्षा पर खर्च किया जाये। इसके लिये गाँव और कस्बों में स्कूलों के ढाँचे को मजबूती देना आवश्यक होगा और हिन्दुओं, ईसाइयों और मुसलमानों की इन स्कूलों तक बराबर पहुँच को सुनिश्चित करना होगा। भारत के स्कूल, बच्चों को समानता और न्याय के मूल्यों से परिचित करवायेंगे और उन्हें भारत की विविधता का सम्मान करना सिखायेंगे। मौलाना आजाद का जोर सभी धर्मों के मूल्यों को स्कूलों के पाठ्यक्रमों में शामिल करने पर था।
असल में हुआ यह कि भारतीय राज्य ने न केवल शिक्षा पर काफी कम खर्च किया अपितु बजट का बहुत बड़ा हिस्सा आई.आई.टी., आई.आई.एम., एम्स व जे.एन.यू. जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना पर खर्च कर दिया गया। इनमें से अधिकाँश संस्थान महानगरों में हैं और इनमें वे ही विद्यार्थी प्रवेश पा सकते हैं जो कि महँगे निजी स्कूलों में पढ़ने के बाद अँग्रेजी में होने वाली इन संस्थानों की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिये महँगी कोचिंग ले सकते हैं। इन प्रतिष्ठित संस्थानों के दरवाजे गरीबों और कमजोरों के लिये बन्द हैं। अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़ों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को इन संस्थानों में प्रवेश पाने में खासी दिक्कत पेश आती हैं। उच्च शिक्षा के इन चन्द उच्च-स्तरीय द्वीपों की स्थापना, प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों की कीमत पर की गई है। एक आईआईटी याआईआईएम की स्थापना पर जितना खर्च होता है, उससे हजारों नहीं तो सैंकड़ों प्राथमिक शालाएं खोली जा सकती हैं।
निष्कर्ष
इस्लाम शिक्षा पर बहुत जोर देता है। तीय निधि व इब्नमज़ा के अनुसार इब्ने अब्बास ने बताया कि अल्लाह के पैगम्बर ने कहा ‘‘धर्मशास्त्र का एक विद्वान, शैतान पर एक हजार श्रृद्धालुओं से ज्यादा भारी पड़ता है।’’ मुसलमानों का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य यह है कि वे ज्ञान हासिल करें, इस ज्ञान का उपयोग अपने जीवन में करें और इस ज्ञान का प्रकाश पूरे समाज में फैलाएं। कोई व्यक्ति तब तक सच्चा मुसलमान कहलाने के काबिल नहीं है तब तक कि वह इस्लाम का असली अर्थ न समझ ले। कोई व्यक्ति केवल मुस्लिम परिवार में जन्म लेने से मुसलमान नहीं बनता बल्कि वह अपने ज्ञान और कर्मों से मुसलमान बनता है। इस्लाम का तार्किकता पर बहुत जोर है। परन्तु मुस्लिम धार्मिक और राजनैतिक नेताओं ने इस्लाम के इस पक्ष पर कभी जोर नहीं दिया। शायद मौलाना आजाद इस्लाम की अपनी समझ से प्रेरित होकर ही ज्ञान और शिक्षा फैलाने की बात कर रहे थे।
शिक्षा वह अस्त्र है जो किसी भी समुदाय के सदस्यों को सामूहिक सामाजिक जीवन में हिस्सा लेने और उसमें अर्थपूर्ण योगदान देने की क्षमता प्रदान करता है। शिक्षा हमें वह मूल्य देती है जो शान्तिपूर्ण सामूहिक जीवन, पर्यावरण व प्रकृति की रक्षा, ज्ञान का विकास और बेहतर समझ पैदा करने में हमारी मदद करते हैं। शिक्षा हमें वह कौशल या ज्ञान भी देती है जिसके जरिए हम अपनी रोजी-रोटी कमा सकते हैं।
शिक्षा एक अनवरत प्रक्रिया है। हम जीवन के अपने संघर्ष से, अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से और अपने विभिन्न अनुभवों से कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। हम अपने परिवार और समुदाय से भी ज्ञान प्राप्त करते हैं। परन्तु अर्थपूर्ण शिक्षा केवल ज्ञान के केन्द्रों अर्थात् स्कूल, कालेज, अनुसंधान संस्थान, विश्वविद्यालय व अन्य शिक्षा संस्थान हैं। उच्च स्तर की व्यावसायिक शिक्षा तक पहुँच, उच्च वर्ग तक सीमित है। भारत में मुसलमानों को इन संस्थाओं में बहुत कम संख्या में प्रवेश मिला पाता है। मजे की बात यह है कि मुसलमानों के शैक्षणिक पिछड़ेपन के लिये उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है। अगर हम मौलाना आजाद के बताये रास्ते पर चले होते तो सारे राष्ट्र को इससे लाभ होता। अभी भी बहुत देर नहीं हुयी है। हम अब भी मौलाना आजाद के सपनों को साकार करने के काम में जुट सकते हैं।
(मूल अँग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)