राम पुनियानी
राम पुनियानी, लेखक आई.आई.टी. मुम्बई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।
आतंकी हिंसा, पिछले लगभग दो दशकों में, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के एक नए हथियार के रूप में उभरी है।
मुंबई में सन् 1992-93 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पश्चात भड़के दंगों व गुजरात के 2002 कत्लेआम के बाद, श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट हुये थे। इसके अलावा, कसाब और उसके साथियों ने 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पर आतंकी हमला किया था। ये तथ्य यह बताते हैं कि आतंकी हिंसा के कई चेहरे हैं और वह कई कारणों से उभरती है। इसी तरह की घटनाएं देश के अन्य स्थानों पर भी होती रही हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी जानें गवाईं हैं।संकटमोचन मंदिर, मालेगांव, अजमेर, मक्का मस्जिद आदि में हुये आतंकी हमलों ने देश को हिलाकर रख दिया था।
इन हमलों की जाँच की एक अलग ही कहानी है। जाँच प्रक्रिया पर पूर्वाग्रह हमेशा हावी रहे। चूँकि जाँच प्रक्रिया को रहस्य के घेरे में रखा गया इसलिये आतंकी हमले करने वालों और उसके पीछे के कारणों के बारे में मीडिया और आमजनों में तरह-तरह के कयास लगाए जाते रहे। जहाँ तक आतंकी हमले करने वालों की पहचान का सवाल है, इस मामले में हर टिप्पणीकार और हर राजनेता की अलग-अलग राय रहती है, जो अक्सर तथ्यों पर नहीं वरन् सम्बंधित की विचारधारा या एजेण्डे पर आधारित होती है।
हाल में (8 जुलाई 2013) बोधगया के पवित्र तीर्थस्थल में  9 धमाके हुये। सौभाग्यवश, इन धमाकों में किसी की जान नहीं गई और केवल दो बौद्ध भिक्षु घायल हुये। धमाकों के तुरंत बाद से यह कहा जाने लगा कि ये धमाके म्यंनमार में बौद्धों द्वारा, रोंहिग्या मुसलमानोंपर किये जा रहे अत्याचारों का बदला लेने के लिये, ‘इंडियन मुजाहिदीन‘ द्वारा किये गये हैं। यह घटनाचक्र पिछले कुछ वर्षों में कई बार दुहराया जा चुका है। पहले किसी धमाके के लिये किसी पाकिस्तानी या मुस्लिम संगठन को दोषी ठहराया जाता है और बाद में यह सामने आता है कि उसके पीछे स्वामी असीमानंद या उनके जैसे अन्य लोग थे। जो लोग आतंकी हमलों का गहराई से अध्ययन और विश्लेषण करते रहे हैं, उनका कहना है किबोधगया पर आतंकी हमले का नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ने से कुछ सम्बंध हो सकता है। नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी को भाजपा की चुनाव प्रचार समिति का मुखिया नियुक्त किये जाने के विरोध में एनडीए से अपना नाता तोड़ लिया था। हम सब जानते हैं कि इस बात की प्रबल संभावना है कि भाजपा, मोदी को प्रधानमंत्री पद का अपना दावेदार घोषित करेगी। जहाँ तक इंडियन मुजाहिदीन का सवाल है, उसका नाम बम धमाकों के कुछ ही घण्टों बाद सामने आ गया था और भाजपा ने उसे खुशी-खुशी लपक लिया। इण्डियन मुजाहिदीन की क्या भूमिका है? उस पर किसका नियन्त्रण है? आदि जैसे मूल प्रश्नों का उत्तर आज तक नहीं मिल सका है। कुछ सालों पहले तक, इण्डियन मुजाहिदीन की बजाए हर हमले के पीछे सिमी का हाथ बताया जाता था। सिमी पर प्रतिबन्ध भी लगाया गया और जब प्रतिबन्ध को अदालत में चुनौती दी गई तो न्यायमूर्ति लता मित्तल अधिकरण ने पाया कि संस्था पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई कारण नहीं था। परन्तु लोगों के दिमाग में यह भर दिया गया था कि सिमी एक आतंकवादी संगठन है। कसाब जैसे लोग एक अलग श्रेणी में आते हैं जो पाकिस्तानी सेना और अल्कायदा की धुन पर नाच रहे हैं। अल्कायदा का जन्म भी अफगानिस्तान पर सोवियत कब्जे से निपटने की अमेरिकी रणनीति का हिस्सा था।
जाँच एजेन्सियों के सिर पर अल्कायदा का भूत इस कदर सवार था कि 9/11 के डब्लूटीसी हमले के बाद अमेरिकी मीडिया द्वारा गढ़े गये  ‘‘इस्लामिक आतंकवाद‘‘ शब्द को साम्प्रदायिक ताकतों और मीडिया के एक हिस्से द्वारा इस सिद्धान्त में बदल दिया गया कि ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं परन्तु सभी आतंकवादी मुसलमान हैं‘। अप्रैल 2006 के नांदेड़ धमाकों से लेकर मालेगांव, मक्का मस्जिद, अजमेर और समझौता एक्सप्रेस धमाकों तक – सभी में पूर्वाग्रहग्रस्त जाँच एजेसिंयों ने इसी सिद्धांत के अन्तर्गत सैकड़ों निर्दोष मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया, उनके कैरियर बर्बाद किये और पूरे मुस्लिम समुदाय का दानवीकरण किया। इसी सिद्धान्त के चलते ही फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला शुरू हुआ, जिनमें भाजपा-शासित गुजरात सबसे आगे था। इशरत जहां को गुजरात में सरेराह मार डाला गया और बहाना यह बनाया गया कि वह और उसके साथी, पाकिस्तानी आतंकी संगठनों से जुड़े हुये थे और गुजरात के मुख्यमंत्री की हत्या करने के इरादे से आए थे। इसी तरह, कई अन्य युवकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। मोदी-पूजक कई पुलिस अधिकारी, जिन्होंने यह सब किया था, अब जेल की सलाखों के पीछे हैं। हेमंत करकरे ने इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने में आंशिक सफलता पाई जब मालेगांव धमाकों की जाँच के दौरान उन्होंने असली दोषियों को ढूँढ निकाला। बाल ठाकरे, मोदी आदि द्वारा उन्हें देशद्रोही बताए जाने पर भी करकरे ने अपना काम जारी रखा।
धार्मिक ध्रुवीकरण करने के लिये, बोधगया धमाकों को म्यंनमार के घटनाक्रम से जोड़ा जा रहा है। इस दुष्प्रचार का एक उद्धेश्य बौद्धों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काना भी है। यह प्रचार जोर-शोर से जारी है और कई अखबारों ने अपनी आठ कॉलम की बैनर हेडलाईनों में इस आशय की घोषणाएं की हैं। भाजपा – जिसके कई सहयोगी संगठनों के सदस्य आतंकी हमलों में संलिप्तता के कारण जेल में हैं - की ओर से रविशंकर प्रसाद ने कहा कि ‘मीडिया के अनुसार, बेकरी मामले में शामिल आतंकियों ने बोधगया के मंदिर में रैकीकी थी। कई चेताविनयां दी गईं परन्तु सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किये गये‘। यह भी कहा गया कि बिहार की सरकार ने कोई एहतियाती कदम नहीं उठाए। यह साफ है कि इस घटना को म्यांमार के त्रासद घटनाक्रम से जोड़ने की कोशिश हो रही है। इसके विपरीत,काँग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह का कहना है कि यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने का प्रयास है और यह भी कि गैर-भाजपा सरकारों और विशेषकर नीतीश कुमार को बहुत सावधान रहना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इन दिनों भाजपा का एकमात्र लक्ष्य 2014 के चुनाव में अपना प्रदर्शन सुधारना है। मोदी को पार्टी का नेता घोषित कर भाजपा ने अपने कई गठबंधन साथियों को नाराज कर लिया है। इसलिये अब सत्ता में आने के लिये उसे स्वयं ज्यादा सीटें जीतनी होंगी। भाजपा जानती है कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ही वह सीढ़ी है जो उसे सत्ता के सिंहासन तक पहुँचा सकती है। देश में जैसे-जैसे साम्प्रदायिक हिंसा बढ़ती गई, वैसे-वैसे भाजपा की चुनावी सफलता का ग्राफ भी ऊँचा होता गया। अब भाजपा आतंकवादी हमलों का इस्तेमाल भी धार्मिक ध्रुवीकरण करने के लिये कर रही है ताकि वह ज्यादा से ज्यादा वोट कबाड़ सके। आखिर क्या कारण है कि हम इतनी जल्दी में रहते हैं? आखिर क्या कारण है कि हम किसी संगठन या व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिये इतने व्यग्र रहते हैं कि जाँच एजेन्सियों को अपनी प्राथमिक जाँच पूरी कर लेने का समय भी नहीं देना चाहते? बिना जाँच के परिणाम सामने आए कयास लगाने के अपने खतरे हैं। सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि घटना के तार म्यांमार से जोड़े जाने से रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार और बढ़ जायेंगे। हमने देखा है कि किस प्रकार इस तरह की बैसिरपैर की बयानबाजी के कारण हर आतंकी हमले का खामियाजा मुस्लिम समुदाय को भुगतना पड़ता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी अपराध की जाँच के दौरान सम्भावित दोषियों की सूची बनाई जाती है। परन्तु अगर इस सूची को बनाने वाले पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होंगे तो इसके नतीजे में निर्दोषों को नुकसान उठाना पड़ सकता है। इस घटना का एक पहलू, जिसे लगभग नजरअंदाज किया जा रहा है यह है कि विनोद मिस्त्री नाम के एक बढ़ई का बैग और आईडी कार्ड घटनास्थल से बरामद हुआ है। इस बैग में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पहना जाने वाला पारम्परिक परिधान पाया गया है। इससे हम क्या नतीजा निकाल सकते हैं? निर्दोष मुसलमानों की मदद करने के लिये गठिन संगठन ‘रिहाई मंच‘कहता है, ‘जिस तरह से इस मामले में विनोद मिस्त्री का नाम सामने आ रहा है और यह पता चला है कि उसके बैग में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा पहने जाने वाले कपड़े भी पाए गये हैं और जिस प्रकार उर्दू में लिखे गये पत्र मंदिर से मिले हैं उससे ऐसा लगता है कि बोधगया में एक और मालेगांव हुआ है। मालेगांव में भी घटनास्थल से एक नकली दाढ़ी जब्त की गई थी और अंत में यह पता चला कि इसके पीछे आरएसएस के लोग थे।‘
भारतीय राजनीति में ‘हिन्दू राष्ट्र‘ की अवधारणा से प्रेरित कई संगठन आतंकी हमलों में शामिल रहे हैं। स्वामी असीमानंद, स्वामी दयानंद, साध्वी प्रज्ञा सिंह और उनके साथी ऐसे लोगों में शामिल हैं। दुर्भाग्यवश, यह गलत धारणा कि ‘सभी आतंकी मुसलमान होते हैं‘ ने बरसों तक उन्हें बचाये रखा। निश्चित तौर पर इस मामले में निष्पक्षता से और सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जाँच किये जाने की आवश्यकता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भगवान गौतम बुद्ध से जुड़े एक पवित्र स्थान को हिंसा का निशाना बनाया गया है। इसके दोषियों को सजा जरूर मिलनी चाहिए। जरूरत इस बात की भी है कि जब तक कोई ठोस सबूत न मिल जाएं तब तक इस घटना को रोंहिग्या मुसलमानों से जोड़ने से हम सब परहेज करें।
(हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/views/2013/07/13/%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A4%97%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%A7%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE#.UeOIvtIwdIU
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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