खबरगंगा: अप्रत्याशित नहीं है रणवीर सेना के संस्थापक की हत्या

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भोजपुर जिला मुख्यालय आरा में तडके सुबह रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद पूरे बिहार में तनाव की स्थिति बनी हुई है. हांलाकि नक्सली संगठनों और निजी सेनाओं के बीच कई दशकों के खूनी संघर्ष और जनसंहारों की फेहरिश्त की जानकारी रखने वालों के लिए यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है. उन्हें जमानत पर रिहा कराये जाने के साथ ही  उनकी हत्या की आशंका व्यक्त की जाने लगी थी. वास्तविकता यह है कि समय के अंतराल में रणवीर सेना का स्वरूप, उसकी प्राथमिकतायें पूरी तरह बदल चुकी हैं और अब मुखिया जी इसके लिए अप्रासंगिक हो चुके थे. उनके व्यक्तिगत समर्थकों की जरूर एक बड़ी संख्या है लेकिन संगठन को अब उनकी जरूरत नहीं रह गयी थी. 
अब रणवीर सेना और नक्सली संगठनों की लड़ाई में ठहराव सा आ गया है. नरसंहारों का सिलसिला थम सा गया है. ऐसे संकेत मिले हैं कि रणवीर सेना अपने आर्थिक स्रोतों की रक्षा और हथियारबंद लड़ाकों की उपयोगिता को बरकरार रखने के लिए हिन्दू आतंकवादी संगठन में परिणत हो चुकी है. यह बदलाव मुखिया जी के जेल में बंद होने के बाद का है. सेना का नेतृत्व करोड़ों की उगाही के जायज-नाजायज स्रोतों को किसी कीमत पर हाथ से नहीं निकलने दे सकता था. अब इस बात की आशंका थी कि मुखिया जी कहीं उसमें हिस्सा न मांग बैठें. संगठन के वर्तमान कार्यक्रमों में हस्तक्षेप न करें. 80 के करीब पहुंच चुके मुखिया जी सेना के अंदर और बाहर कई लोगों की आंख की किरकिरी बने हुए थे. हत्या की सीबीआई जांच की मांग हो रही है. जांच के बाद संभव है कि उनकी हत्या के रहस्यों का खुलासा हो जाये.

----देवेंद्र गौतम  

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नपुंसक विरोध

केन्द्र सरकार का तुगलकी - फरमान एकाएक २३-०५-२०१२ को पेट्रोल की कीमत ७-५४ रुपये पैसे प्रति लीटर बढ़ा दी गयी। देश के हर पेट्रोल पम्पों पर अपनी अपनी गाड़ियों के साथ रात १२ बजे तक ग्राहकों की भारी भीड़ ताकि अपने अपने संसाधन और वाहन के हिसाब से वे अधिक से अधिक पेट्रोल भराकर बढ़ी हुई कीमत को कुछ दिन के लिेए "मात" दे सकें। वैसे भी दूरगामी परिणामों के बारे में सोचने की फुर्सत किसे है? उस भारी भीड़ में पेट्रोल पम्प वाले ने अपनी "आसन्न व्यावसायिक क्षतिपूर्ति" के लिए किसको कितना कम पेट्रोल दिया यह एक अलग प्रसंग है। मगर यह भीड़ "स्वतः-स्फूर्त" थी जिसमें कितनों को खाली हाथ भी लौटना पड़ा।

आज ३१-०५-२०१२ को तमाम विपक्षी दलों और संगठनों द्वारा पेट्रोल की मूल्य-वृद्धि के खिलाफ "भारत बन्द" का आयोजन किया गया है। उम्मीद है २३-०५-२०१२ की रात में मूल्य-वृद्धि से पहले भराये गए पेट्रोल अब तक
खत्म हो गए होंगे। क्या वही "स्वतः-स्फूर्त" जनता की भीड़ विरोध में आज सड़कों पर उतरेगी? कभी नहीं। सम्भव ही नहीं है क्योंकि राजनैतिक दलों और आम जनता के बीच मे सिर्फ "वोट" का व्यावसायिक सम्बन्ध ही तो रह गया है।

हाँ सड़कों पर उतरेगी वो प्रायोजित भीड़ जिनका स्वार्थ राजनैतिक दलों और संगठनों से जुड़ा हुआ है। फिर सड़कों पर होगा वही गुण्डई का नंगा नाच, सरकारी (जनता) सम्पत्ति का नुकसान और दिहाड़ी मजदूरों की मजदूरी छीनने का खेल जिसे हम वातानुकूलित कमरों में बैठकर टी० वी० में देखेंगे। शाम में तथाकथित बुद्धिजीवियों की टीम के साथ "प्राइम टाइम" में आकर न्यूज चैनल वाले अपने अपने ज्ञान का पिटारा खोलेंगे, चैनल का टी० आर० पी० बढ़ेगा। सबेरे देश के हर हिस्से में स्थानीय "प्रभावशाली लोगों" की प्रमुखता के साथ अखबारों में फोटो और उनके "कारनामे" का समाचार जो सम्बन्धित दल के आकाओं तक पहुँचे। शाम तक हम सब भूल जायेंगे और अगली सुबह से "फिर वही बात रे वही बात"

केन्द्र सरकार का कई राजनैतिक दलों द्वारा दिल्ली में दिलो जान से समर्थन के बावजूद वे इस भारत बन्द में शामिल होने का जोर शोर से विज्ञापन भी कर रहे हैं ताकि "आमलोगों" को पुनः बेवकूफ बनाने में वे सफल हो सकें। इस नपुंसक विरोध का क्या मतलब? आम जनता क्यों नहीं है राजनैतिक दलों के साथ? यह सवाल भी कम मौजूं नहीं है। देश के रहनुमाओं द्वारा छः दशकों से लगातार छली गयी जनता की स्थिति उस रेगिस्तानी शुतुरमुर्ग की तरह है जो तूफान आने से पहले अपने सर को बालू में यह सोचकर छुपा लेता है कि "अब मेरा तूफान कुछ नहीं बिगाड़ सकता"। खैर--- जय हो भरतवंशी सन्तान - मेरा भारत महान।
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ग़ज़लगंगा.dg: कौन किसकी पुकार पर आया

कौन किसकी पुकार पर आया.
जो भी आया करार पर आया.

तेज़ रफ़्तार कार पर आया.
कौन गर्दो-गुबार पर आया?

सबकी गर्दन को काटने वाला 
आज चाकू की धार पर आया.

जो छपा था महज़ दिखावे को 
मैं उसी इश्तेहार पर आया.

शाख दर शाख कोपलें फूटीं 
खुश्क जंगल निखार पर आया.

उसने दोजख से इक उछाल भरी 
और जन्नत के द्वार पर आया.

एक सौदा निपट गया गोया 
लाख मांगा हज़ार पर आया.

सबके तलवे लहूलुहान मिले 
कौन फूलों के हार पर आया?

जीत पर उतना खुश नहीं था मैं 
जो मज़ा उसकी हार पर आया.

एक तूफ़ान थम गया गौतम 
एक दरिया उतार पर आया.

----देवेंद्र गौतम 


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गर्मियों की छुट्टियां

अनवर भाई आपकी गर्मियों की छुट्टियों की दास्तान पढ़ कर हमें आपकी किस्मत से रश्क हो रहा है...ऐसे बचपन का सपना तो हर बच्चा देखता है लेकिन उसके सच होने का नसीब आप जैसे किसी किसी को ही होता है...बहुत दिलचस्प वाकये बयां किये हैं आपने...मजा आ गया. - नीरज गोस्वामी

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