दुनिया सलामत है। दीन भी सलामत है। दीन धर्म से अलग हटकर रास्ते बनाने वाले भी अपने अपने काम कर रहे हैं। 8 मार्च का दिन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के तौर पर मनाया जाता है। किसी के लिए साल में एक दिन मुक़र्रर करने का मतलब होता है, पूरे साल में हमने उसके प्रति जो किया है, उसका हिसाब किताब लगाना और अपना गुण दोष जांचना। आज हम देख रहे हैं कि औरत पिछले साल जहां थी, कुछ मैदानों में उससे आगे बढ़ी है तो सेहत और हिफ़ाज़त के मैदानों में उसे चोट खानी पड़ी है। उसे ख़रीदा और बेचा भी गया, उसका जबरन अपहरण भी किया गया, उसे उसकी पसंद के युवक से शादी करने के एवज़ में क़त्ल भी किया गया और अपने मां-बाप की इज़्ज़त की ख़ातिर निगाहें झुका कर चलने वाली लड़कियों के साथ बलात्कार भी किया गया। औरत की आबरू को बुरी तरह तार तार किया गया। छोटी छोटी बच्चियों को दरिंदों ने अपनी हवस का निशाना बनाया।
दीन धर्म को मानने वालों के रहते हुए यह सब हुआ। आधुनिक बुद्धिजीवियों की सतर्क निगरानी के बावजूद यह सब हुआ। अगले साल जब यह दिन आएगा, तब भी हम यही सब कह रहे होंगे।
यह सब नहीं होना चाहिए।
आदमी ठान ले तो यह सब नहीं हो सकता। आदमी पहाड़ को काटकर मैदान बना सकता है। आदमी पहाड़ पर ट्रेन चला सकता है। आदमी चांद को छू सकता है और वह मंगल को खोदकर ज़मीन पर ला सकता है। अगर यही आदमी चाहे तो वह अपनी मां, बहन और बेटियों को हिफ़ाज़त और इज़्ज़त भी दे सकता है।
अगर आज औरत को यह सब मयस्सर नहीं है तो यह हमारे इरादे की कमज़ोरी का सुबूत है।
किसी शायर ने कहा भी है -
कहिये तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएं
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए
कितना अच्छा हो, अगर साल 2013 में यह नज़ारा देखने को मिले कि परंपरागत और आधुनिक समाज में यह होड़ लगे कि देखें कौन औरत को हिफ़ाज़त और सम्मान देने में दूसरे को पछाड़ता है ?
मज़बूत इरादे और सकारात्मक प्रतियोगिता के ज़रिये हम औरतों को वह सब दे सकते हैं, जो उनका वाजिब हक़ है।
दीन धर्म को मानने वालों के रहते हुए यह सब हुआ। आधुनिक बुद्धिजीवियों की सतर्क निगरानी के बावजूद यह सब हुआ। अगले साल जब यह दिन आएगा, तब भी हम यही सब कह रहे होंगे।
यह सब नहीं होना चाहिए।
आदमी ठान ले तो यह सब नहीं हो सकता। आदमी पहाड़ को काटकर मैदान बना सकता है। आदमी पहाड़ पर ट्रेन चला सकता है। आदमी चांद को छू सकता है और वह मंगल को खोदकर ज़मीन पर ला सकता है। अगर यही आदमी चाहे तो वह अपनी मां, बहन और बेटियों को हिफ़ाज़त और इज़्ज़त भी दे सकता है।
अगर आज औरत को यह सब मयस्सर नहीं है तो यह हमारे इरादे की कमज़ोरी का सुबूत है।
किसी शायर ने कहा भी है -
कहिये तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएं
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए
कितना अच्छा हो, अगर साल 2013 में यह नज़ारा देखने को मिले कि परंपरागत और आधुनिक समाज में यह होड़ लगे कि देखें कौन औरत को हिफ़ाज़त और सम्मान देने में दूसरे को पछाड़ता है ?
मज़बूत इरादे और सकारात्मक प्रतियोगिता के ज़रिये हम औरतों को वह सब दे सकते हैं, जो उनका वाजिब हक़ है।