श्री रूपचंद शास्त्री ‘मयंक‘ जी की अध्यक्षता में होगी ‘ब्लॉगर्स मीट वीकली‘ President

इंसान का मक़सद इंसानियत है और बहुत से प्लान और विधियां समय समय पर सामने आती रहीं जिनका मक़सद इंसान को नेकी और भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देना, इंसान को इंसानियत के जज़्बे से मालामाल करना था। धर्म, दर्शन, कला और विज्ञान, इनमें से हरेक का असली मक़सद यही था कि इंसान का भला हो, उसे सुख, प्रसन्नता और आनंद प्राप्त हो।
सारी धरती पर आबाद एक ही परिवार हैं। सुख, सम्मान और सुरक्षा सभी का जन्मसिद्ध मौलिक अधिकार है। इस मक़सद के लिए सभी को मिलकर काम करना था लेकिन हुआ इसका उल्टा। एक ज़मीन को बहुत से टुकड़ों में बांट लिया गया और इंसान को इंसान बनाने वाली विधियों के नामों की आड़ लेकर एक वर्ग के ज़ालिमों ने दूसरे वर्गों के लोगों पर ज़ुल्मो-सितम के पहाड़ तोड़ दिए और फिर उन्होंने बख्शा अपने वर्ग के कमज़ोरों को भी नहीं। यह सिलसिला आज तक जारी है। न्याय के बजाय हर तरफ़ ताक़त का राज है।
ब्लॉगिंग ने राजनैतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया है और इंसानियत के हक़ में और उसके खि़लाफ़ सोचे गए हरेक ख़याल को एक जगह इकठ्ठा कर दिया है। इस घटना का साक्षी हिंदी ब्लॉग जगत भी बन रहा है। यह एक सुनहरा वक्त है। हम इस वक्त का लाभ उठाते हुए सारी वसुधा को फिर से एक कुटुंब बना सकते हैं, हरेक निकृष्ट विचार को छोड़ते हुए सर्वोत्तम विचार को ग्रहण कर सकते हैं।
हिंदी ब्लॉगिंग का मक़सद यही होना भी चाहिए।
‘हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल‘ को वुजूद में लाने का मक़सद यही था। इसने तमाम तरह की दिक्क़तों के बीच अपना सफ़र जारी रखा और अलग अलग वर्गों के थोड़े से लोगों का सहयोग भी इसे मिला। उन थोड़े से लोगों में भी सक्रियता दिखाने वाले कम ही रहे, चाहे हालात कुछ भी रहे हों।
हरेक ब्लॉगर का आज अपना निजी ब्लाग भी है और उनमें से ज़्यादातर किसी न किसी साझा मंच के सदस्य या फ़ोलोअर भी हैं। अब ज़रूरत है कि साझा मंच भी आपस में जुड़कर बैठें। उसका कोई भी तरीक़ा निकाला जा सकता है। हमने यह तरीक़ा सोचा है कि साझा मंच से जुड़े हुए किसी अनुभवी आदमी को ‘ब्लॉगर्स मीट वीकली‘ का सभापति बनाया जाए और उनके अनुभवों से लाभ उठाया जाए। एक मास तक एक ही सभापति की निगरानी में गोष्ठी की जाए और इस बीच मंच पर उनकी कुछ विशेष पोस्ट्स को भी पब्लिश किया जाए। इस तरह एक साल में न सिर्फ़ बारह योग्य और सीनियर ब्लॉगर्स के ज्ञान और अनुभव से लाभ उठाना मुमकिन है बल्कि मिल-जुल बैठने के एक नए अंदाज़ की शुरूआत भी हो जाएगी। जिसके अच्छे असरात पड़ना लाज़िमी हैं।
इस क्रम में हमने सबसे पहले आदरणीय श्री रूपचंद शास्त्री ‘मयंक‘ जी से सादर अनुरोध किया कि वे सोमवार को होने वाली ‘ब्लॉगर्स मीट वीकली‘ के सभापति पद को ग्रहण करना स्वीकार करें और थोड़ी सी इल्तेजा के बाद वे आखि़रकार मान भी गए। इसके लिए उन्होंने लिखित तौर पर भी सूचित कर दिया है।
अतः हम इस बात की सूचना सभी ब्लॉगर भाईयों को देना चाहते हैं कि इस सोमवार को होने वाले साप्ताहिक समारोह की अध्यक्षता आदरणीय शास्त्री जी करेंगे। 
मंच के सदस्यों को या किसी अन्य को इस संबंध में यदि कोई सुझाव देना है तो वह ईमेल से भेज दे ताकि उस पर विचार कर लिया जाए। टिप्पणियों के माध्यम से मिलने वाले किसी सुझाव को आपत्तिजनक पाए जाने की दशा में डिलीट भी किया जा सकता है।
शुरूआती व्यवस्था के लिए अभी इतना ख़ाका काफ़ी है। बाक़ी समय आने के साथ इसमें मज़ीद रंग भरते ही चले जाएंगे। नए अध्यक्ष द्वारा समय न दे पाने की दशा में पिछले सभापति बदस्तूर सरपरस्ती करते रहेंगे। ब्लॉगर्स मीट वीकली की तमाम गतिविधियों पर अध्यक्ष महोदय का निर्णय अंतिम होगा क्योंकि सीनियर्स को सम्मान देने और उनके अनुभवों से लाभ उठाने के लिए ही यह पद सृजित किया गया है।
हरेक ब्लॉगर और ग़ैर-ब्लॉगर नेट यूज़र सादर आमंत्रित है।
मंच के सदस्यों समेत सभी से अनुरोध है कि वे कल तक अपनी रचनाओं के लिंक ईमेल से अवश्य भेज दें ताकि उन्हें चर्चा में जगह दी जा सके और उसके बाद सप्ताह में कम से कम एक पोस्ट इस मंच पर ज़रूर पेश कर दिया करें ताकि उनकी सक्रियता से मंच को भी लाभ हो और ख़ुद उनको भी।
चर्चा करने वाली एक उदीयमान महिला ब्लॉगर के बारे अभी न बताकर सोमवार को ही बताया जाएगा ताकि क़यास लगाने वालों के लिए एक पहेली हल करने के का मज़ा बदस्तूर क़ायम रहे।

शुक्रिया !
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All India Bloggers' Associationऑल इंडिया ब्लॉगर्स एसोसियेशन: आजकल ज़मीनों और कमीनों का ज़माना है, AIBA condemns...

All India Bloggers' Associationऑल इंडिया ब्लॉगर्स एसोसियेशन: आजकल ज़मीनों और कमीनों का ज़माना है, AIBA condemns...:  फ़ोर्ब्सगंज में 90 लाख की ज़मीन के लिए बिहार सरकार ने 4 करोड़ की चहारदीवारी लगवा दी वो ..."
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खबर

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आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध .

   "भारतीय दंड सहिंता की धारा ३०९ कहती है -''जो कोई आत्महत्या करने का प्रयत्न करेगा ओर उस अपराध को करने के लिए कोई कार्य करेगा वह सादा कारावास से ,जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से ,या दोनों से दण्डित किया जायेगा .''
सम्पूर्ण दंड सहिंता में ये ही एक ऐसी धारा है जिसमे अपराध के होने पर कोई सजा नहीं है ओर अपराध के पूर्ण न हो पाने पर इसे करने वाला सजा काटता है.ये धारा आज तक न्यायविदों के गले से नीचे नहीं उतरी है क्योंकि ये ही ऐसी धारा है जिसे न्याय की कसौटी पर खरी नहीं कहा जा सकता है .आये दिन समाचार पत्रों में ऐसे समाचार आते हैं -''जैसे अभी हाल में मुज़फ्फरनगर में एक महिला द्वारा अपने व् अपने तीन बच्चों पर तेल छिड़ककर आत्महत्या के प्रयास करने पर पुलिस द्वारा उसे पकड़ा गया .ऐसे ही एक समाचार के अनुसार आत्मदाह के प्रयास पर मुकदमा ,ये ऐसे समाचार हैं जो हमारी न्याय व्यवस्था पर ऊँगली उठाने के लिए पर्याप्त हैं .
पी.रथिनम नागभूषण पट्नायिक बनाम भारत संघ ए.आई.आर. १९९४ एस.सी. १८४४ के वाद में दिए गए अपने ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय   ने दंड विधि का मानवीकरण करते हुए अभिकथन किया है कि ''व्यक्ति को मरने का अधिकार प्राप्त है .''इस न्यायालय  की खंडपीठ ने [न्यायमूर्ति आर एम् सहाय एवं न्यायमूर्ति बी एल हंसारिया द्वारा गठित ]दंड सहिंता की धारा ३०९ को जो कि आत्महत्या के प्रयास को अपराध निरुपित करती है ,असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि यह धारा संविधान के अनुच्छेद २१ के प्रावधानों से विसंगत थी .
     उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय में अभिकथन किया है कि'' किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन के अधिकार का उपभोग स्वयं के अहित ,अलाभ या नापसन्दी से करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता .आत्महत्या का कृत्यधर्म नैतिकता या लोकनीति के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है तथा आत्महत्या के प्रयास के कृत्य का समाज पर कोई हानिकारक या प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है इसके आलावा आत्महत्या या आत्महत्या के प्रयास से अन्यों को कोई हानि कारित नहीं होती  इसीलिए व्यक्ति की इस व्यैतिक स्वतंत्रता में राज्य द्वारा हस्तक्षेप किये जाने का कोई औचित्य नहीं है .
          दंड सहिंता की धारा ३०९ को संविधान के अनुच्छेद २१ के अंतर्गत व्यक्ति को प्राप्त स्वतंत्रता का अतिक्रमण निरूपत करते हुए  उच्चतम न्यायालय ने कहा -
''इस धारा का दंड विधि से विलोपन होना चाहिए ताकि दंड विधि का मानवीकरण हो सके .''
विद्वान न्यायाधीशों ने इस धारा को क्रूर व् अनुचित बताया और  कहा कि इस धारा के कारण व्यक्ति दोहरा दंड भुगतता है प्रथम तो वह आत्महत्या की यंत्रणा भुगतता है और आत्महत्या करने में असफल रहने पर उसे समाज में अपकीर्ति या बदनामी भुगतनी पड़ती है जो काफी पीड़ा दायक होती है ऐसी स्थिति को स्वयं न्यायालय भी अनुचित मानते हैं और इस धारा को विलोपित किया जाना आवश्यक मानते हैं .

क्योंकि एक ऐसा व्यक्ति जिसने आत्महत्या का प्रयास किया ऐसी स्थिति में होता है कि वह अपने परिवार समाज से फिर से जुड़ सकता है किन्तु उसके लिए दंड का प्रावधान उसके लिए और भी मुश्किलें खड़ी कर देता है .ऐसा प्रावधान तो आत्महत्या करने वाले के लिए होना चाहिए किन्तु उसके लिए ऐसा संभव नहीं है .अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि यह कहना गलत है कि आत्महत्या करने का प्रयास करने वाले व्यक्ति को दंड नहीं मिलता है जबकि वह तो दुहरा दंड भोगता है प्रथम आत्महत्या करने के प्रयास में उसे पहुंची यंत्रणा और संत्रास ,तथा दूसरे आत्महत्या करने में विफल रहने पर उसकी बदनामी या अपकीर्ति 
मारुति श्रीपति  दूबल बनाम महाराष्ट्र राज्य १९८७ क्रि.ला.जन.७४३ बम्बई में अभियोजन कार्यवाही इसलिए निरस्त कर दी क्योंकि यह धारा असंवैधानिक है न्यायमूर्ति सांवंत ने इसे संविधान के अनुच्छेद १४ व् २१ के उल्लंघन के कारण शक्ति बाह्य [ultra vires ]मानाऔर इसके विलोपन के लिए कहा .और इसके कारण निम्न बताये -
१-अनुच्छेद २१ में व्यक्ति को जीवन का अधिकार प्राप्त है जिसमे जीवन को समाप्त करने का अधिकार विविक्षित रूप से शामिल है ऐसा इसलिए क्योंकि अनु.२१ में दिए गए मौलिक अधिकारों की व्याख्या अन्य मौलिक अधिकारों के समान की जानी चाहिए चूँकि वक् स्वतंत्रता में न बोलने के अधिकार का भी समावेश है  तथा व्यवसाय करने की स्वतंत्रता में व्यवसाय न करने के अधिकार का भी समावेश है अतः जीवन के अधिकार में जीवन को समाप्त करने का अधिकार भी शामिल है .
२- यदि इस बात पर विचार किया जाये कि साधारणतःव्यक्ति आत्महत्या की ओर प्रवृत क्यों होता है तो प्राय यह देखा जाता है कि इसके लिए मानसिक अस्वस्थता तथा अस्थिरता ,असह्य शारीरिक कष्ट .असाध्य रोग आसाधारण शारीरिक विकृति सांसारिक  सुख के प्रति विरक्ति आदि में व्यक्ति विवश होकर आत्महत्या का मार्ग अपनाता है .इस प्रकार जो व्यक्ति पहले से ही व्यथित ओर जीवन से हताश है क्या उसे आत्महत्या के प्रयास के लिए दंड दिया जाना उचित होगा ?
३- भारतवर्ष में आत्महत्या के अनेक प्रकार चिरकाल से प्रचलित रहे हैं जौहर सती प्रथा आदि प्रमुख रूप से प्रचलित थे ,इस दृष्टि से भी आत्महत्या के प्रयास को अपराध माने जाने का कोई औचित्य नहीं है .
इसलिए न्यायालय ने इस धारा को अनु.१४ व् २१ का उल्लंघन करते हैं ओर मनमाने भी हैं ये माना.
     भारत के विधि आयोग ने भी अपने ४२ वे प्रतिवेदन में १९७१ में धारा ३०९ को निरसित किये जाने की अनुशंसा की थी क्योंकि उसके विचार से इस धारा के उपबंध कठोर होने के साथ साथ न्यायोचित नहीं हैं .
तात्पर्य यह है कि पी.आर.नागभूषण पतनायिक बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा २६ अप्रैल १९९४ को दिए गए निर्णय के परिणाम स्वरुप दंड सहिंता  की धारा ३०९ असंवैधानिक होने के कारण शून्य घोषित की गयी तथा अपीलार्थी की रिट याचिका स्वीकार करते हुए उरिसा के कोरापुट जिले के गुनपुर के सब  जज के न्यायालय में लंबित प्रकरण संख्या जी.आर.१७७ सन १९८४ की राज्य बनाम नाग भूषण पतनायिक    के वाद की कार्य वाही निरस्त कर दी गयी .अतः इस निर्णय के बाद अब आत्महत्या के प्रयास को अपराध नहीं माना जायेगा ओर इस प्रकार धारा ३०९ के प्रावधान अब निष्प्रभावी हो गए हैं.
इसी प्रकार लोकेन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य  ए.आई आर.१९९६ सु.को. में न्यायालय ने कहा -जब कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है तब उसे कुछ सुस्पष्ट व्यक्त कार्य करने होते हैं ओर उनका उद्गम अनु.२१ के अंतर्गत ''प्राण के अधिकार के  संरक्षण नहीं खोजा जा सकता अथवा उसमे सम्मिलित नहीं किया जा सकता .प्राण की पवित्रता के महत्वपूर्ण पहलू की भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए  .अनु.२१ प्राण ओर देहिक स्वतंत्रता की गारंटी प्रदान करने वाला उपबंध है तथा कल्पना की किसी भी उड़ान से ''प्राण के संरक्षण '' में प्राण की समाप्ति शामिल होने का अर्थ नहीं लगाया जा सकता .किसी व्यक्ति को आत्महत्या करके अपने प्राण समाप्त करना अनुज्ञात करने का जो भी दर्शन हो उसमे गारंटी किया हुआ मूल अधिकार के भाग रूप में ''मरने का अधिकार'' सम्मिलित है ऐसा अनुच्छेद २१ का अर्थान्वयन  करना हमारे लिए कठिन है .अनुच्छेद २१ में निश्चित रूप से व्यक्त ''प्राण का अधिकार'' नैसर्गिक अधिकार है किन्तु आत्महत्या प्राण की अनैसर्गिक समाप्ति अथवा अंत है ओर इसलिए प्राण के अधिकार की संकल्पना के साथ असंयोज्य  ओर असंगत है .हम यह अभिनिर्धारित करने में असमर्थ हैं कि भा.दंड.सहिंता की धारा ३०९ अनु.२१ की अतिक्रमण कारी है .इस वाद में पी .रथिनं नागभूषण पतनायिक बनाम भारत संघ उल्टा गया .
साथ ही कानून विदों की भी ये राय है कि आज इस धारा  को  निष्प्रभावी तो कर दिया गया है किन्तु आज भी इस पर कार्य चल रहा है और आत्महत्या के प्रयास में अब भी मुक़दमे दर्ज किये जा रहे हैं.
                                                    शालिनी कौशिक 

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लड़कियों की पीड़ा दर्शाती दो पोस्ट

सरकार कहती है कि जहाँ कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु दर अधिक है, वहाँ वह भ्रूण-लिंग-परीक्षण तकनीक कानून को अधिक कड़ाई से लागू करेगी। पर क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकेगी? हरियाणा सरकार तो लड़की होने पर धन भी दे रही है फिर भी वह कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु-दर को कम नहीं कर पा रही है। हमें पता नहीं लगता जब तक कि हमें अखबार या मीडिया ये नहीं बताता है कि पुलिस ने आज यहाँ छापा मारा, यहाँ इतनी लड़कियों के कंकाल दबे मिले। वे कहते हैं ना कि जब प्यास लगती है तो प्यासा कुआँ तलाश कर ही लेता है। ऐसा ही यहाँ है, जब किसी को लड़की नहीं चाहिए तो वह उस से छुटकारा पाने का तरीका भी तलाश लेता है। शादी के बाद एक लड़की से ये उम्मीद की जाती है कि वह अपने सास-ससुर को माँ-बाप माने, पर क्या लड़के अपने सास-ससुर को माँ-बाप मानते हैं। शायद सब को लगता है कि लड़कों में ही भावनाएँ होती हैं, लड़कियों में नहीं। तभी तो सब उम्मीद करते हैं कि एक लड़की अपने मायके वालों पर कम, ससुराल वालों पर अधिक ध्यान दे। 
                         मेरे एक मौसेरे भाई ने पूछा कि लड़कियाँ अपनी शादी में इतना क्यों रोती हैं? तो मेरा जवाब था कि शादी के बाद लड़की न इधर की होती है और न उधर की, इसलिए रोती है। उस का कुछ नहीं रहता है। एक उस का मायका है और एक उस का ससुराल। पर उस का घर कहाँ है? मैं ने कभी किसी लड़के को ये कहते नहीं सुना कि ये उसका मायका है, उसका ससुराल अवश्य होता है। हम कैसे उम्मीद करें कि ये सब सुधर जाएगा? जब कि हम खुद उसे नहीं सुधारना चाहते हैं। जो चाहते हैं वे कोशिश नहीं करते। जब तक हम सामाजिक सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। सिर्फ कानून बनाने से किसी को नहीं बचाया जा सकता। अगर बचाना है तो हमें लोगों की सोच बदलनी पड़ेगी। यह करने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी। अगर आपको इस प्रश्न का कोई उत्तर सूझ रहा है. तब आप भी पूरा लेख आप यहाँ 'लड़कियों का घर कहाँ है?' पर पढ़े और उत्तर दें आये.
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अगर देखा जाए तो सब जगह बेटी होने से नुकसान और बेटे से फायदा ही नज़र आता है। तो फिर बेटी होने पर सरकार पैसा दे या उसकी पढ़ाई की फीस में छूट दे, क्या इससे लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ेगी? जब तक हम खुद अपने समाज की परंपराओं को नहीं बदलेंगे कुछ नहीं बदल सकता। क्या हम ऐसा समाज नहीं बना सकते? जहाँ सब बराबर हों, लड़के और लड़की में कोई फर्क ना हो। माता-पिता जो एक बेटे के लिए करे, वही बेटी के लिए भी करे। जहाँ बेटी को अधिकार हो की शादी के बाद भी वो अपने माता पिता की सहायता कर सके। अगर माता पिता बेटे के साथ रह सकते हैं, तो बेटी के साथ भी रह सकते हैं। जहाँ एक बेटी को अपने ही माता पिता की छुप कर मदद ना करनी पड़े। किसी को अपनी ही बेटी की शादी के लिए पैसा न देना पड़े। फिर शायद माँ-बाप बेटी होने पर भी वही खुशी मनाने लगेंगे, जो बेटे के होने पर मनाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे माता-पिता नहीं हैं, आज भी कई माता-पिता हैं, जो बेटी होने की उतनी ही खुशी मनाते हैं जितना बेटे होने की, जो बेटे के लिए करते हैं वही बेटी के लिए भी। पर उन की संख्या कितनी है? जब बेटी तो पराया धन है, कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं होता। अगर कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं है, तो फिर क्यों एक बेटी की शादी के लिए उसके माता-पिता को दहेज देना पड़ता है। अगर आपको इस प्रश्न का कोई उत्तर सूझ रहा है. तब आप भी पूरा लेख आप यहाँ 'हमें परंपराएँ बदलनी होंगी' पर पढ़े और उत्तर दें आये.
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खबरगंगा: प्रिंट मीडिया : अंध प्रतिस्पर्द्धा की भेंट चढ़ते एथिक्स

अभी मीडिया जगत की दो ख़बरें जबरदस्त चर्चा का विषय बनी हैं. पहली खबर है अंतर्राष्ट्रीय मीडिया किंग रुपर्ट मर्डोक के साम्राज्य पर मंडराता संकट और दूसरी हिंदुस्तान टाइम्स इंदौर संस्करण में लिंग परिवर्तन से संबंधित एक अपुष्ट तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट को लेकर चिकित्सा जगत में उठा बवाल. इन सबके पीछे दैनिक अख़बारों के बीच बढती प्रतिस्पर्द्धा के कारण आचार संहिता की अनदेखी की प्रवृति है. इस क्रम में एक और गंभीर बात सामने आई की मीडिया हाउसों का नेतृत्व नैतिक दृष्टिकोण से लगातार कमजोर होता जा रहा है. विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने की जगह वह हार मान लेने या अपनी जिम्मेवारी अपने मातहतों के सर मढने की और अग्रसर होता जा रहा है. रुपर्ट मर्डोक जैसी शख्सियत ने फोन हैकिंग का आरोप लगने के बाद सार्वजानिक क्षमा याचना के बाद अपने बहुप्रसारित अखबार न्यूज ऑफ़ दी वर्ल्ड को बंद कर दिया लेकिन हॉउस ऑफ कॉमंस की मीडिया कमिटी के समक्ष हैकिंग के लिए अखबार की संपादकीय टीम को दोषी बताते हुए स्वयं को इससे पूरी तरह अनभिग्य बताया. अखबारी दुनिया की हल्की जानकारी रखने वाले के गले से भी उनकी बात नीचे नहीं उतर पायेगी. यह सच है कि अख़बार में छपने वाली ख़बरों के संकलन के तौर-तरीके और उनके चयन के लिए पूरी तरह जिम्मेवार उसका संपादक होता है. लेकिन कोई भी रणनीति तय करने और अंजाम देने के पहले वह अखबार के मालिक को विश्वास में जरूर लेता है. मीडिया किंग का यह कहना कि उन्हें कोई जानकारी ही नहीं थी या तो उनकी कायरता का परिचायक है या फिर प्रबंधकीय अक्षमता का. कायरता पूर्ण बयान देकर वे एक झटके में हीरो से जीरो बन गए हैं. यदि उन्होंने यह कहा होता कि अखबार का मालिक होने के नाते जो भी हुआ मैं उसकी नैतिक जिम्मेवारी स्वीकार करता हूं तो कानून के वे भले ही अपराधी होते लेकिन पूरी दुनिया के मीडिया की नज़र में उनका कद बहुत ऊंचा हो जाता. उनका मीडिया साम्राज्य और भी तेज़ी से पुष्पित-पल्लवित होता लेकिन तो उनकी बादशाहत को ताश के पत्तों की तरह भरभराकर ढह जाने से कोई भी नहीं रोक सकता. वे मीडिया कर्मियों और पाठकों की नज़र से गिर चुके हैं. जाहिर है कि यदि निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ तथ्यों को उजागर करने तक अखबार की भूमिका सीमित रक्खी जाती तो फोन हैकिंग जैसे गैर कानूनी तिकड़मों को अपनाने की जरूरत नहीं पड़ती. इस तरह के तरीकों का इस्तेमाल प्रतियोगी को पछाड़ कर आगे निकलने और बाज़ार पर अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए किया जाता है. यह सच को हिंग फिटकिरी डालकर तड़का बनाने भर का नहीं बल्कि सनसनी फैलाकर पाठकों को चौंकाते रहने के दुराग्रह का मामला है.
इधर हिंदुस्तान टाइम्स के इंदौर संस्करण में लिंग परिवर्तन से संबंधित एक रिपोर्ट को इतना सनसनीखेज़ बनाकर छापा गया कि चिकत्सा जगत में थुककम-फजीहत की नौबत आ गयी. जेनिटोप्लास्ती के जरिये शल्य चिकित्सा कर एक उभयलिंगी शिशु को लड़की से लड़का बनाया गया था. यह कोई नयी बात नहीं थी. हाल के वर्षों में कई शहरों के आधुनिक अस्पतालों में ऐसे ऑपरेशन सफलता पूर्वक किये जा चुके हैं. यह बॉक्स में दी जाने वाली खबर होती है. लेकिन समस्या यह थी कि उसी दिन प्रतियोगी अखबार डीएनए का इंदौर संस्करण लॉंच होने वाला था और हिंदुस्तान टाइम्स को कोई धमाकेदार खबर देकर उसे चौंका देना था. इसलिए इस खबर को इस रूप में बनाया गया जैसे इंदौर में लिंग परिवर्तन का एक नया अध्याय शुरू हुआ है और यहां के चिकित्सक किसी भी लड़की को लड़का बना देने की तकनीक विकसित कर चुके हैं. चिकित्सा विज्ञानं की दृष्टि में यह असंभव बात थी. पुरुष हारमोन और कम से कम अविकसित लिंग के अभाव में यह संभव ही नहीं है. लिहाज़ा प्रथम पृष्ठ के लीड के रूप में छपी इस खबर को चुनौती दी जाने लगी. जिस चिकित्सक के साक्षात्कार के आधार पर रिपोर्ट तैयार की गयी थी उसने साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार से कहा था कि खोजी पत्रकारिता में दिलचस्पी हो तभी पूरी छानबीन के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचना और उसके बाद ही इसे प्रकाशित करना उचित होगा लेकिन इतनी सब्र कहां थी. डीएनए को चुनौती जो देनी थी. आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर बन गयी एक सनसनीखेज़ बिग स्टोरी.जब आलोचना होने लगी तो प्रधान संपादक तक पल्ला झाड़ गए. एक दूसरे के सर पर जिम्मेवारी का ठीकरा फोड़ा जाने लगा. नैतिक साहस का अभाव यहां भी दिखा.
सवाल उठता है कि मीडिया घरानों के बीच अंध प्रतिस्पर्द्धा का यह दौर प्रिंट मीडिया को कहां ले जाएगी. छपे शब्दों की विश्वसनीयता को कितना आघात पहुंचेगी और मूल्यों के प्रति जिम्मेवार पत्रकारिता का युग क्या अब समाप्त मान लेना चाहिए..? कोई आचार संहिता अब शेष नहीं रह जाएगी. कभी पेड़ न्यूज कभी नीरा राडिया जैसे लोगों के साथ घोटाले के तार बुनना ही मीडिया और मीडिया कर्मियों का एकमात्र लक्ष्य रह जायेगा ..?

----देवेंद्र गौतम

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आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें

आपके दोस्त का एक और रूप
म ब्लोगिंग जगत के "अजन्मे बच्चे"( अभी तो अजन्मा बच्चा हूँ मेरे दोस्तों !) हैं और ब्लोगिंग जगत का अनपढ़, ग्वार यह नाचीज़ इंसान का अभी जन्म ही नहीं हुआ है. अभी हम ब्लोगिंग जगत का क.ख.ग सिखने की कोशिश कर रहा हूँ. इसलिए मेरे लिए खासतौर पर देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को रोमन लिपि में या अंग्रेजी में लिखी गयी टिप्‍पणी पढना मुश्किल कार्य है, इसलिए जिस पोस्‍ट में भी देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को रोमन लिपि में या अंग्रेजी  में टिप्‍पणी होती हैं. मैं उसको पढता ही नहीं. हाँ, कभी-२ मेरी पोस्‍ट पर होती है.उसे कैसे न कैसे करके पढता हूँ.जब कभी-२ समय होता है तब उसका देवनागरी की मूल हिंदी लिपि में अनुवाद भी कर देता हूँ.  इसको दूसरों को भी पढ़ने में कठिनाई होती है.
                   इस बात को सभी ब्लोग्गरों को भी समझना चाहिए। जब आपके विचारों और भावनाओं को कोई समझ ही नहीं पाता है. तब अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने का क्या फायदा. मुझे बार-बार गूगल transliteration पर जाकर देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को टाईप करना पड़ता है. फिर कापी पेस्ट करता हूँ. मुझे इसी सुविधा की आदत है. बहुत से ब्लॉग पर "हिंदी वर्जन का विजेट " लगा हुआ होता है लेकिन हर ब्लॉग पर ज्यादात्तर नही होता. तब कापी पेस्ट करने में टाईम बहुत लगता है. मगर मै ज्यादात्तर देवनागरी की मूल हिंदी लिपि में ही टिप्पणी करता हूँ.कभी-कभी समय न होने की वजय से ही ज्यादा से ज्यादा 11शब्दों की टिप्पणी रोमन लिपि में करता हूँ. अगर कोई  ओर तरीका हो तो मुझे अवश्य बताए, क्योंकि ऐसा तब ही संभव हो पाता है. जब इन्टरनेट पर नेटवर्क सही से आ रहा हो.
           मै खुद को देवनागरी की मूल हिंदी लिपि में ही सहज(अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने में) समझता हूँ. मै चाहता हूँ कि-सब ब्लॉगर अपने-अपने ब्लोगों पर 'हिंदी वाला विजेट' अपने ब्लॉग पर लगाए और तकनीकी ज्ञाता मुझे मेरे ब्लोगों पर लगाने में मदद करें. मुझे देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को रोमन लिपि में या अंग्रेजी में लिखी टिप्पणी पढने में असुविधा होती है.बहुत ज़रूरी ना हो तो मैं भी पढने से टालने की कोशिश करता हूँ. मेरे कंप्यूटर का कीबोर्ड अंग्रेजी में है, किन्तु देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को साफ्टवेयर(गूगल transliteration) में टाईप करके टिप्पणीयां पेस्ट करता हूँ. मै हर संभव कोशिश करता हूँ कि-टिप्पणी देवनागरी की मूल हिंदी लिपि में हो, जब मुझे खुद दूसरो द्वारा देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को रोमन लिपि में या अंग्रेजी में की गयी टिप्पणिया पढने में परेशानी होती है. फिर दूसरों को कितनी दिक्कत होती होगी?  मुझे दूसरो द्वारा देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को रोमन लिपि में या अंग्रेजी में की गयी टिप्पणिया सुहाती ही नहीं है. यह मेरे दिल के यही ज्जबात है बल्कि किसी का कोई अपमान करने का कोई उद्देश्य नहीं है. क्या हम अंग्रेजी का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करके अपने को ज्यादा पढ़ा-लिखा होने का दिखावा नहीं करते हैं? किसलिए और किसके लिए इतना दिखावा? 
              मुझे कभी-कभी देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को रोमन लिपि में या अंग्रेजी में टिप्पणिया व्यावहारिक(कुछ व्यक्ति हिंदी लिपि में विचारों और भावनाओं को समझने में असमर्थ होते हैं) समस्यायों के चलते करनी पड़ती है.जैसे-मोबाईल पर संदेश आदि. वैसे ज्यादात्तर मोबाईल पर संदेश हिंदी लिपि की रोमन लिपि में ही भेजता हूँ. मुझे हिन्दी लिपि के ब्लॉग पर हिन्दी लिपि में ही टिप्पणी अच्छी लगती है और हिंदी लिपि को ही पढने में आनंद आता है. हमारी कथनी और करनी में स्वार्थी राजनीतिकों जैसा फर्क नहीं होना चाहिए.
           आज मेरे प्रकाशन परिवार में सबसे ज्यादा हिंदी लिपि की पत्र-पत्रिकाएँ, लेटर पैड, बिलबुक, प्रचार सामग्री, विजिटिंग कार्ड, मेरे समाचार पत्रों को रजिस्टर्ड करने की कार्यवाही के फॉर्म, शपथ पत्र, समाचार पत्रों के पंजीकरण प्रमाण पत्र आदि, विज्ञापन रेट कार्ड व बुकिंग फॉर्म, रबड़ की मोहरें, समाचारों पत्रों में हिंदी लिपि के विज्ञापन के रेट कम है और अंग्रेजी के ज्यादा है और सबसे ज्यादा हिंदी लिपि में विज्ञापन प्रकाशित हुए है. अपने क्षेत्र से दो बार चुनाव लड़ने की प्रक्रिया के फॉर्म, शपथ पत्र आदि सब हिंदी लिपि में भर कर दे चुका हूँ.  इसके साथ ही अनेकों ऐसी सामग्री भी हिंदी लिपि में है. जो किसी तक अपने विचार और भावना समझाने में सहायक होती है. 

       इन्टरनेट की दुनिया में जनवरी 2010 में प्रवेश करने के मात्र सात-आठ महीने की मेहनत से ही अपनी ईमेल, ब्लॉग, ऑरकुट और फेसबुक की प्रोफाइल आदि की सभी सैटिंग हिंदी लिपि में  ही कर रखी है.ऑरकुट और फेसबुक पर "रमेश कुमार सिरफिरा(Ramesh Kumar Sirfiraa" के नाम से मौजूद हूँ. आज तक लगभग 992 लोगों को ईमेल हिंदी लिपि में भेज चुका हूँ और  अनेकों ब्लोगों पर लगभग 1100  टिप्पणी हिंदी लिपि में कर चुका हूँ. अपने ब्लोगों पर लगभग 20000 शब्दों को हिंदी लिपि में लिख चुका हूँ. अपने  उपरोक्त ब्लॉग  पर  अन्य  व्यक्तियों  को  हिंदी लिपि सिखाने के उद्देश्य से दो पोस्ट हिंदी की टाइपिंग कैसे करें  और  हिंदी में ईमेल कैसे भेजें. पोस्ट  भी  लिखी  थीं. 
         अपनी पत्नी के डाले फर्जी केसों से संबंधित लगभग 20000 शब्द हिंदी लिपि में लिखकर न्याय व्यवस्था के अधिकारियों को लिखकर दे चुका हूँ और आने वाले दो महीनों में लगभग 20000 शब्द हिंदी लिपि में लिखकर देने वाला हूँ. इसके अलावा जब से मेरे ऊपर फर्जी केस दर्ज हुए तब से पत्नी को समझने के उद्देश्य से लगभग 20000 शब्द हिंदी लिपि में बोल चुका हूँ.
           प्रेम विवाह होने से पहले अपनी पत्नी को लगभग 2000 शब्द
हिंदी लिपि लिखकर दे चुका था और लगभग 20000 शब्दों का उच्चारण हिंदी लिपि में कर चुका हूँ.  इसके साथ ही मेरे ऊपर फर्जी केस दर्ज  होने के बाद से हिंदी लिपि के लगभग 200000  क़ानूनी शब्दों को ब्लॉग पर और लगभग 200000 क़ानूनी शब्द अखवार और मैगजींस में पढ़ चुका हूँ.इसके साथ ही हिंदी लिपि के टी.वी चैनलों पर धारा 498A और 406 की चर्चाओं(बहस आदि) में लगभग 200000शब्द और अपने दोस्तों/रिश्तेदारों से उलाने(ताने) के रूप में लगभग 20000 शब्द अपने कानों से सुन चुका हूँ. 
        इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात अपने मात्र साढ़े तीन साल के वैवाहिक जीवन में अपनी पत्नी और सुसराल वालों से लगभग 200000अपशब्द हिंदी लिपि के और 200 अंग्रेजी में सुन चुका हूँ.अब तक लगभग दो करोड़ शब्द हिंदी लिपि के अपनी पत्रकारिता(समाचार पत्र-पत्रिकाओं में) के चलते लिख चुका हूँ और प्रकाशित हो चुके हैं. लगभग दो लाख शब्द हिंदी लिपि के कुव्यवस्था  के चलते शिकायती पत्रों में लिख चुका हूँ और अन्य व्यक्तियों की मदद करने के उद्देश्य से लगभग दो लाख शब्द हिंदी लिपि के उनके शिकायती पत्र और किसी कार्य से जुड़े फोरमों में लिख चुका हूँ. अर्थात पढ़ता हिंदी लिपि हूँ. लिखता हिंदी लिपि हूँ. सुनता हिंदी लिपि हूँ. खाता हिंदी लिपि हूँ, पहनता हिंदी लिपि  हूँ और बोलता भी हिंदी लिपि में हूँ. मुझे इस पर गर्व है कि-मुझे अंग्रेजी नहीं आती है. 
               एक बार आप भी गर्व से कहों हम सच्चे भारतीय है. हिंदी लिपि को लेकर आज मुझ में एक ही कमी है कि 10-11दिन पहले ही एक दोस्त ने मुझे इन्टरनेट पर चैटिंग(वार्तालाप, बातचीत) करनी सिखाई है, वो  मुझे जानकारी न होने की वजह से देवनागरी की मूल हिंदी लिपि को रोमन लिपि में लिखनी पड़ती हैं. जानकारी प्राप्त होते ही हिंदी लिपि  में बातचीत शुरू कर दूंगा. ऐसा मेरा दृढ संकल्प है.  
आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें
आज सभी हिंदी लिपि ब्लॉगर भाई यह शपथ लें कि-हम आज के बाद  हिंदी लिपि और अन्य लिपियों के ब्लोगों को पढने के बाद भी अपनी टिप्पणी हिंदी लिपि में ही करूँगा और हिंदी लिपि ब्लोगिंग जगत को उंचाईयों पर पहुँचाने के लिए हिंदी लिपि के प्रति ईमानदार बना रहूँगा.अपने ब्लॉग का नाम (शीर्षक) हिंदी लिपि में लिखूँगा. जय हिंद! 
  
नोट : दोस्तों, मैंने अब इनस्क्रिप्ट के माध्यम से  देवनागरी की लिपि द्वारा हिंदी लिखना सीख लिया है और बीस हजार शब्द भ्रष्ट व्यवस्था को लिखकर भेज चुका हूँ. इसके साथ ही ऑरकुट व फेसबुक पर हिंदी में चैटिंग करनी और युटुब पर विडियों लोड करना भाई शाहनवाज सिध्द्की जी ने करनी सिखा दी है. इसके लिए उनका धन्यवाद करता हूँ. यह पोस्ट अपने ब्लॉग पर बहुत पहले लिखी थीं.  
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जहर उगलता है ये राहुल


सच तो ये है कि राहुल गांधी पर कुछ लिखना सिर्फ अपना समय खराब करना है, लेकिन इन दिनों खबरिया चैनल जिस तरह से राहुल के आगे पीछे दौड़ लगा रहे हैं उससे मैं भी मजबूर हूं कुछ लिखने के लिए। दो महीने पहले पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव के दौरान केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वी एस अच्युदानंद ने जब राहुल को "अमूल बेबी " कहा तो तमाम लोगों के साथ ही मुझे भी अच्छा नहीं लगा। मुझे लग रहा था कि एक राष्ट्रीय पार्टी के महासचिव पर इस तरह व्यक्तिगत हमले से बचा जाना चाहिए। लेकिन अब जिस तरह की हरकतें राहुल गांधी कर रहे हैं, उससे मैं " अमूल बेबी " टिप्पणी को गलत नहीं मानता।
दरअसल राहुल जो कुछ कर रहे हैं उससे उन्हें अमूल बेबी कहना बिल्कुल गलत नहीं है। सच में उनकी सियासी हरकतें बचकानी लगतीं हैं। एक राष्ट्रीय पार्टी का महासचिव बचकानी हरकत करे, तो हैरत होती है। आज कांग्रेस के ही मित्रों से जब राहुल गांधी को लेकर बात होती है तो वो कहतें है कि राहुल अभी कांग्रेस के प्रशिक्षु महासचिव हैं। मुझे लगता है कि शायद इसीलिए राहुल के साथ एक फुलटाइम महासचिव दिग्विजय सिंह पूरे टाइम बने रहते हैं। वैसे राहुल का कान्वेंट शैली का भाषण लोगों को सुनने में अच्छा तो लगता ही है, वो खूब मजे लेकर राहुल को सुनते हैं, और अपने राहुल बाबा मुंगेरी लाल के हसीन सपनों में खो जाते हैं कि लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं।
आइये मुद्दे की बात करें, क्या राहुल को मीडिया के सामने राष्ट्रीय मुद्दों पर मुंह खोलना चाहिए। मेरी राय तो इसके खिलाफ है, क्योंकि राहुल अधकचरे नेता हैं और वो तो कुछ भी अनाप शनाप बोल कर अलग हो जाते हैं, बाद में पार्टी को उनका बचाव करने में काफी फजीहत होती है। मुंबई में बम ब्लास्ट के मामले में राहुल ने कहा कि ऐसे हमलों को रोकना नामुमकिन है। मुझे लगता है कि उनका ये बयान शाबित करता है कि अभी राहुल की तरह की जिम्मेदारी उठाने के काबिल नहीं हैं। क्योंकि उनका ये बयान ना सिर्फ बचकाना बल्कि ब्लास्ट में मारे गए लोगों के परिजनों को और तकलीफ देने वाला है।
राहुल का भट्टा पारसौल दौरा उल्टा पड़ा। दो महीने पहले जब राहुल ने पुलिस की बर्बरता की कहानी प्रधानमंत्री को सुनाते हुए कहा कि यूपी पुलिस ने किसानों पर फायरिंग तो की ही, महिलाओं के साथ बलात्कार भी किया। इसके बाद से महिलाएं नाराज हैं। उनका कहना है कि वो ऐसी दबी कुची महिलाएं नहीं है कि पुलिस वाले उनके साथ कुछ भी कर लेगें। महिलाओं ने साफ कहा कि राजनीति के लिए उनकी इज्जत को दांव पर ना लगाएं। इस मामले की जानकारी के बाद काफी दिन तक राहुल भट्टा पारसौल के मामले में खामोश रहे। लेकिन कुछ दिन पहले अचानक जब राहुल इसी गांव में फिर पहुंचे तो, सवाल उठा कि आखिर राहुल को हो क्या गया है वो नोएडा के महासचिव नहीं हैं, वो तो पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। आखिर क्या चाहते हैं, तो पता चला कि उन्हें किसानों की समस्याओं से ज्यादा लेना देना नहीं है, बस भट्टा पारसौल की बात होती है तो मुख्यमंत्री मायावती को मिर्ची लगती है, बस इसीलिए वो यहां आ जाते हैं। फिर दिल्ली के करीब होने से मीडिया में भी अच्छी खासी जगह मिल जाती है। अब देखिए ना इस समय बेचारे पूर्वांचल के दौरे पर हैं, टीवी से गायब हैं।
चलिए छो़ड़ दीजिए की राहुल कब, क्या और कैसे करते हैं। लेकिन एक बात कांग्रेसियों को भी खटकती है कि उनके राष्ट्रीय महासचिव राष्ट्रीय मुद्दों पर क्यों खामोश रहते हैं। और जब कभी बोलते हैं तो ऊटपटांग बोल कर पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी कर देते हैं। देखिए ना आज देश भर में जनलोकपाल बिल को लेकर माथापच्ची चल रही है, पर राहुल गांधी खामोश हैं। कालेधन के मामले में पूरे देश में बहस छिड़ी हुई है, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार की ऐसी तैसी करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, लेकिन राहुल पर इसका कोई असर नहीं। महिलाओं पर अत्याचार को लेकर राहुल काफी संवेदनशील दिखने की कोशिश करते हैं। अत्याचार की ऐसी घटनाओं पर संवेदना व्यक्त करने चोरी छिपे वो कहां कहां पहुंच जाते हैं। लेकिन चार जून को रामलीला मैदान में पुलिस लाठीचार्ज में घायल महिला राजबाला को देखने वो आज तक नहीं गए, जबकि उसकी हालत अभी भी गंभीर बनी हुई है।
एक सवाल दिग्विजय सिंह से करना जरूरी लग रहा है। हालाकि उनका नाम लेते ही पता नहीं क्यों घिन आने लगती है। उन्हें राहुल गांधी में ऐसा क्या दिखाई देता है जिसके आधार पर वो दावा करते हैं कि राहुल में अच्छे प्रधानमंत्री के सभी गुण मौजूद हैं। दरअसल सच तो ये है कि दिग्विजय सिंह जानते हैं कि मीडिया में कैसे जगह बनाई जाती है। दरअसल ठाकुर साहब को गलत फहमी है कि मीडियाकर्मी हर मामले में उनका कमेंट इसलिए लेते हैं कि वो बडे नेता है। लेकिन सच ये है कि वो आसानी से उपलब्ध ऐसे नेता हैं जिनकी घटिया बाइट टीवी पर जगह बना सकती है। हां इस बात के लिए तो मैं ठाकुर साहब का कायल हूं कि कांग्रेस में कई महासचिव हैं, लेकिन कोई उनका नाम तक नहीं जानता, पर दिग्विजय सिंह ने टीवी और अखबारों में एक जगह तो बना ही लिया है।
बहरहाल सरकार की हालत आज इतनी खराब हो चुकी है कि इसे कोई भी धमका ले रहा है। बेचारे मजबूर प्रधानमंत्री को खुद को मजबूत बताने के लिए खुद ही आगे आना पड़ रहा है। पिछले सत्र के दौरान विपक्ष ने सरकार को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। अब सिविल सोसाइटी ने सरकार का पसीना निकाल दिया है। मुश्किल में फंसी सरकार को सहारा देने के लिए राहुल कभी आगे नहीं आते। कई बार तो लगता है कि पार्टी का एक तपका चाहता है कि पार्टी इतनी मुश्किलों से घिर जाए कि लोग खुद मांग करने लगें कि अब राहुल को गद्दी सौंप दी जानी चाहिए। भाई राहुल मेरी आपको सलाह है कि आप सियासी काम चोरी छिपे करना बंद करें। ताल ठोंक कर जाएं, जहां जाना हो। शुरू में एक दो बार तो ये बात समझ में आ रही थी, लेकिन अब तो वाकई ड्रामेबाजी लगती है। इतना ही नहीं विषय की गंभीरता भी नहीं रह जाती। इस तरह आपके निकलने से पूरे दिन मीडिया में मुद्दों की चर्चा नहीं होती, राहुल कैसे मोटर वाइक से गए, गर्मी में कैसे वो पैदल चले, क्या खाया-पिया, किसके घर रुके इन्हीं बातों की चर्चा होकर खत्म हो जाती है।
केंद्र सरकार के काम काज की बात की जाए तो मुझे स्व. शरद जोशी की याद आ जाती है। वो कहते हैं कि सरकार किसी काम के लिए ठोस कदम उठाती है, कदम चूंकि ठोस होते हैं, इसलिए उठ नहीं पाते। मैने एक नेता से पूछा आप ये ठोस कदम क्यों उठाते हैं, पोले यानि हल्के कदम उठाएं, उठ तो जाएंगे, नेता जी आंख मार कर बोले कदम तो हल्के ही हैं, मैने पूछा फिर उठाते क्यों नहीं, बोले नहीं उठाते इसीलिए तो ठोस हैं। सरकार और हमारे प्रशिक्षु महासचिव का हाल भी कुछ ऐसा ही है।
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ब्लॉगर्स अपनी भूल कैसे सुधारें? Hindi Blogging Guide (17)

ब्लॉगिंग और सोशल नेटवर्किंग के ज़रिये फ़ासले ख़त्म हो जाते हैं और एक इंसान दूसरे इंसान से जुड़ जाता है। यह जुड़ना इंसान को कुछ पा लेने का अहसास दिलाता है, उसमें आशा के दीप जलाता है और उसे ताक़तवर भी बनाता है। इंसान और इंसान के बीच बनने वाला यह रिश्ता कुछ ख़ुशियों के साथ कुछ ज़िम्मेदारियां भी लेकर आता है। जब उन ज़िम्मेदारियों को भुला दिया जाता है तो फिर वह ख़ुशी भी काफ़ूर हो जाती है, जो कि उस रिश्ते के बनते समय मिली थी। ब्लॉगिंग के दौरान ब्लॉगर्स भी कुछ भूलें और कुछ ग़लतियां कर जाते हैं और तब दुख देने वाले हालात पैदा हो जाते हैं, जिनसे सिर्फ़ दो इंसान ही दुखी नहीं होते बल्कि उन दोनों ब्लॉगर्स से जुड़े हुए लोग भी दुखी हो जाते हैं। भूल और ग़लती हो जाने पर उसे सुधार लेना ही एकमात्र व्यवहारिक हल है इस समस्या का। प्रस्तुत लेख ब्लॉगर्स को यही हल सुझा रहा है : 
जीवन में ‘आशा’ ही एक ऐसा शक्तिशाली बल है, जो बेहतर दुनिया बनाने में सहायक हो सकता है। जब तक आप आशा का दामन नहीं छोड़ते, इस दुनिया में सब कुछ संभव है।
यदि हमारी बातों या व्यवहार से किसी को चोट पहुंची हो तो अहसास होते ही तुरंत क्षमा मांग लेनी चाहिए। यह तनाव को दूर रखने का एकमात्र तरीका है। यदि समय रहते क्षमा याचना न की जाए तो यह तनावपूर्ण हो सकता है। हमें अपनी गलतियों से सबक लेकर उनसे ऊपर उठना चाहिए। अपने जीवन व कार्यों के प्रति उत्तरदायी होने का यही एक तरीका है, परंतु इस राह में अहं हमारी सबसे बड़ी समस्या है, जो अक्सर हमारे व भूल को स्वीकारने के बीच आ जाता है। यदि आप सोचते हैं कि जीवन में कोई व्यक्ति भूलें किए बिना रह सकता है तो यह आपका भ्रम है। यदि हम भूलों से सबक नहीं लेते तो इसका अर्थ होगा कि हम एक और अवसर गंवा रहे हैं। गलतियों व संभावित गलत कदमों का निरंतर मूल्यांकन  ही उनसे कुछ सीखने व भविष्य में उन्हें अनदेखा करने का तरीका है। उन परिस्थितियों की सूची बनाएं, जिनसे आप भयभीत हैं तथा बुरे से बुरा होने की कल्पना करें। कल्पना करें कि कोई आपको सताता है तो बुरे से बुरा क्या हो सकता है? या तो दुष्ट नीचा पड़ जाएगा या आपका संघर्ष होगा। ऐसा मौका शायद नहीं आएगा कि सताने वाला व्यक्ति और भी भड़क जाए, क्योंकि ऐसे में वह अपने बचाव का रास्ता तलाशेगा। आपको अपनी बात दूसरों तक पहुंचानी होगी, अन्यथा वे कैसे जान पाएंगे कि आप उनसे क्या उम्मीद रखते हैं। हर रोज किसी-न-किसी भय से ग्रस्त होकर कार्य करना, आपको कुंठा का शिकार बना सकता है। आपको हर प्रकार का भय पीछे छोड़ कर अगला कदम बढ़ाना होगा। भय से बचना चाहते हैं तो सबसे पहले अपने भय को पहचानें। इस पर ऊर्जा नष्ट करने की बजाय इसका खुल कर सामना करें। जिस कार्य से भय लगे, उसे बार-बार करें। प्राय: बचपन से हमें सिखाया जाता है कि दूसरों की मदद लेना अच्छी बात नहीं है। यही बात हमारे दिमाग में बस जाती है। यदि आप अब भी संदेह में हों तो स्वयं से पूछें कि आप किस उद्देश्य से किसी से विनती कर रहे हैं। सहायता की मांग एकतरफा नहीं होनी चाहिए। यदि आप से भी जब कोई सहायता मांगे या आपको मदद करने का अवसर मिले तो उसे कभी न चूकें। उनकी भी सहायता करें, जिन्होंने आपको कभी मदद नहीं की। अपने उद्देश्यों व लक्ष्यों तक पहुंचना ही हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य है। हमें केवल प्रयास नहीं करना, बल्कि एक विजेता के रूप में उभरना है। हम या तो सफल होंगे या फिर असफल होंगे। इन दोनों के बीच कुछ नहीं होता, लोग चाहे कुछ भी कहें।
केवल यह कह देना कि आपने कोशिश की, काफी नहीं है। अगर कुछ शुरू किया है तो लक्ष्य तक पहुंचने तक लगातार कोशिश करते रहें, रुके नहीं। हो सकता है कि उस समय आपको अहसास न हो कि कोशिश न करने से आप क्या खो देंगे। बस लक्ष्य तय करें व उस तक पहुंचने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहें। जीवन में विघ्न-बाधाएं तो आती ही हैं। लक्ष्य को भुला कर इन अड़चनों से टकराना तो कोरी मूर्खता ही होगी। आपको लक्ष्य पर केंद्रित रहते हुए इन बाधाओं से पार पाना होगा। आपको अपने लक्ष्य प्राप्ति की राह में किसी की मदद लेने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। काम को बीच में छोड़ देने पर तो असफलता निश्चित है, किंतु यह निर्णय भी केवल हमीं ले सकते हैं, कोई दूसरा नहीं ले सकता। आपको सफलता तक न पहुंचने के लिए स्वयं से ही बहाने नहीं गढ़ने चाहिए। कोई भी दैवीय शक्ति या करिश्मा आपको समस्या से छुटकारा नहीं दिलवाएगा। आप स्वयं ही करिश्मा हैं और आप स्वयं ही करिश्मा कर सकते हैं। हालात चाहे कोई भी हों, स्वयं से हमेशा कहते रहें कि आप इसे अवश्य ही कर सकते हैं। परिवार हो, स्वास्थ्य हो या फिर संबंध, हर समय सब कुछ फिट नहीं रह सकता। अगर आपको कोई काम, कोई खास जिम्मेदारी सौंपी गई है तो उसे इस सोच के साथ शुरू न करें कि वह पूरा नहीं होने वाला। जो जिम्मेदारी मिले, उसे बोझ न मानें। अगर आप हमेशा सकारात्मक नहीं रह सकते तो कम-से-कम नकारात्मकता न फैलाएं। किसी काम को करने व प्रयास करने से पहले और संभावित विकल्प तलाशने से पहले ही फैसला न सुनाएं कि ‘यह काम नहीं हो पाएगा।’ असफलता में कुछ भी स्थायी नहीं होता। यहां तक कि बाधाएं भी अस्थायी होती हैं। याद रखें कि आप योगदान नहीं दे सकते तो उन लोगों के बीच में न आएं, जो योगदान दे रहे हैं। यदि अपने भाग्य व भविष्य पर नियंत्रण पाना चाहते हैं तो सबसे पहले नकारात्मक रवैये को त्यागना होगा। अपने प्रतिदिन के कार्यों के उद्देश्यों को जीवन के उद्देश्यों से जोड़ें। स्वयं को सशक्त बनाने का यही एक तरीका हो सकता है। आपको जीवन के लक्ष्यों के प्रति पूरी तरह से वचनबद्ध होना चाहिए। यदि आप किसी संगठन के लिए काम कर रहे हैं तो उनके लक्ष्य आपके लक्ष्य होंगे। इस तरह आप अपने कार्यों को नए मूल्य प्रदान कर सकते हैं।
Source : http://www.livehindustan.com/news/lifestyle/lifestylenews/article1-personality-development-50-50-181277.html
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फ़ोरम के सदस्यों से एक विशेष संबोधन Hindi Bloggers' Meet (Weekly)

दोस्तो ! हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल कामयाबी के उस मक़ाम तक आ पहुंचा है जहां तक पहुंचने के बाद किसी ब्लॉग को एक कामयाब ब्लॉग मान लिया जाता है। पिछले 5 माह के दौरान इसे 8 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने विज़िट किया। दर्शक गणना दर्शन से इस बात की पुष्टि होती है, जो कि साइड में ही लगा है। इस मंच पर लेखन में सक्रिय सहयोग करने वाले सभी ब्लॉगर दोस्तों का हम शुक्रिया अदा करते हैं और उन का भी जो कि सक्रिय नहीं रह पाए। उनके पास काम की ज़्यादती या ऐसे ही कुछ और कारण रहे होंगे, इसलिए उनसे कोई शिकायत नहीं है।
आने वाले सोमवार से इस मंच पर ‘ब्लॉगर्स मीट वीकली‘ का आयोजन किया जाएगा। इसमें मंच पर सप्ताह में आने वाले सभी लेखों की चर्चा विशेष रूप से की जाएगी। अतः सभी लोग मंच पर अपना लेख अवश्य प्रकाशित करें ताकि साप्ताहिक समारोह में सदस्यों के क़ीमती लेख शामिल किए जा सकें। जो लोग मंच पर पेश न कर पाएं वे ईमेल से अपने लेखों के लिंक भेज दें और शीर्षक में ‘ब्लॉगर्स मीट वीकली के लिए‘ अवश्य लिख दें।
इस चर्चा का संचालन मेरे साथ एक उदीयमान महिला ब्लॉगर करेंगी। वह नई हैं, उन्हें सपोर्ट करने की भी ज़रूरत है और उन्हें सिखाने और बताने की भी। इसलिए भी आपसे प्रोग्राम में शिरकत की पुरख़ुलूस दरख्वास्त है। आपकी शिरकत का इज़्हार आपकी टिप्पणियों से होगा।

यह संबोधन विशेष रूप से इस मंच के सम्मानित सदस्यों से है ताकि उन्हें कार्यक्रम की सूचना बाज़ाब्ता तरीक़े से दी जाए। यह गोष्ठी प्रत्यके सोमवार के दिन आयोजित होगी। इसे गंभीरता से लिये जाने की ज़रूरत है ताकि आयोजन सफल रहे।
इस कार्यक्रम की रूपरेखा पर विस्तार से प्रकाश हम पहले ही डाल चुके हैं। इसे आप वहां से जान ही चुके होंगे। इस कार्यक्रम के ज़रिये संवादहीनता और दूरियों को मिटाना ही हमारा मक़सद है। नए पुराने ब्लॉगर्स अपनी नैतिक चेतना के साथ इसमें शामिल हों और परस्पर मिलकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ का सपना साकार करें, जिसके लिए इस मंच की स्थापना की गई है और सबसे पहली पोस्ट में इसका ज़िक्र भी किया गया है।
यह मात्र ऐसी चर्चा नहीं है जिसमें कि केवल लिंक का ही चर्चा हो बल्कि इसका कान्सेप्ट गोष्ठी, बैठक और चौपाल का है। एक ऐसे पारिवारिक समारोह का ख़याल है यह जिसमें हम एक दूसरे की भावनाओं को भी महसूस कर सकें। ब्लॉगर्स मीट अगर ब्लॉग पर ही आयोजित हो तो शामिल होना सबके लिए मुमकिन है।
यह कार्यक्रम मंच के सदस्यों को नए पाठक तो देगा ही, कुछ नए और अछूते विचार भी देगा। इसके सकारात्मक होने में भी कोई संदेह  नहीं है। लिहाज़ा सभी सदस्य ब्लॉगर्स विशेष रूप से ज़िम्मेदार हैं क्योंकि सारा नेट जगत हमारे द्वारा आमंत्रित है और मेज़बान मैं या कोई एक अकेला नहीं है बल्कि पूरी टीम है। टीम भावना से ही इस कार्यक्रम को देखा जाए, यही विनती है सबसे ।

सादर,
धन्यवाद !
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अनशन को हिट करने के नायाब नुस्ख़े Political Game -शैलेश गपोड़ी

आजकल पूरे देश में अनशन का चकाचक माहौल चल रहा है। पर उचित मार्गदर्शन न मिले, तो अनशनिए फंस सकते हैं, सो जगत प्रसिद्ध स्वामी कपटानंद जी ने अनशनकारियों को कुछ अमूल्य सुझाव दिए हैं। इनका पालन करें और लाभ उठाएं। 
सबसे जरूरी है अनशन का मुद्दा। इसी से किसी अनशन का माहौल बनता या बिगड़ता है। आजकल भ्रष्टाचार और काले धन वाले मुद्दे बड़े हिट हैं। सो इन्हें ही लपकना चाहिए। गंगा सफाई टाइप के मुद्दे पर अनशन करने की भूल न करें। इससे लोकप्रियता तो मिलने से रही, ऊपर से प्राण भी गंवाने पड़ सकते हैं।
अनशन स्थल का पंडाल चकाचक होना चाहिए। आजकल तमाम टेंट कंपनियां इस तरह के पंडाल बना रही हैं, जिसमें एसी वगैरह लगे रहते हैं, इससे अनशन कष्टकारी नहीं होगा। अनशन का मंच बहुत ऊंचा न बनवाएं, ऊपर से कूदने में दिक्कत हो सकती है। अनशन से पूर्व ऊंची कूद, लंबी कूद और भागदौड़ टाइप की गतिविधियों का पर्याप्त अभ्यास कर लें। अनशन तुड़वाने के लिए सरकार की प्रतीक्षा कदापि न करें। सरकारी टाल-मटोल से समस्या हो सकती है। जब तक सरकारी अमला सक्रिय होगा, तब तक तेरही का दिन आ जाएगा। आजकल मार्केट में तमाम बिचौलिए घूम रहे हैं, जो पूरे तामझाम के साथ निवेदन करके अनशन तुड़वाते हैं। इन बिचौलियों के निरंतर संपर्क में रहें। सरकार से कोई गुप्त समझौता करें, तो उसका पालन करें, वरना सरकार पोल खोल सकती है। पेटू और चटोरे टाइप के लोग क्रमिक अनशन करें। उसमें बहुत लफड़ा नहीं होता। यदि आमरण अनशन करना अपरिहार्य ही हो जाए, तो कुछ ऐसी सेटिंग करें कि रात में चुपके-से कुछ भोज्य पदार्थ आपके शयन कक्ष में पहुंच जाए। पर सतर्क रहें, यह स्टिंग का जमाना है। अनशन के समय पर्याप्त संख्या में महिला समर्थकों को जरूर जुटा लें। इससे मामला बड़ा फोटोजेनिक हो जाता है, जिससे मीडिया में पर्याप्त महत्व मिलता है। इसके अलावा उनके चक्कर में भीड़ इकट्ठी होती है। अपने साथ सदा एक सलवार-कमीज अवश्य रखें, भागते समय सतर्क रहें, वरना बिला वजह छेड़ दिए जाएंगे। इन उपायों का पालन करेंगे, तो अनशन अवश्य हिट होगा।   
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राजनेताओं के बंद पड़े दरवाजों पर दस्तक पड़नी शुरू हो गई है Dastak

विचारों के द्वार खोलने का वक्त

वह स्टॉकहोम का सवेरा था। रात भर पाला बरसा था, पर सुबह मौसमविदों की भविष्यवाणी के उलट सूरज शहर के सिर पर चमक रहा था। भीषण सर्दी से अघाए लोग सड़कों पर उतर आए थे। कहावत याद आई- जैसा देश वैसा भेष। लिहाजा, हम भी सर्दी के उस सुखमय सवेरे का आनंद उठाने के लिए सड़कों पर उतर लिए। वहीं अकस्मात एक बड़ी आशंका से साक्षात्कार हुआ।
हुआ यह कि चलते-चलते एक ऐसी जगह पहुंचे, जहां फुटपाथ के बीचोबीच कुछ फूल खिले हुए थे। बड़े जतन से संवारे गए पौधों के साथ स्थानीय भाषा में एक छोटी-सी प्लेट भी लगी हुई थी। पता किया, तो मालूम पड़ा कि लगभग दो साल पहले यहीं स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पामे की हत्या हुई थी। उस रात प्रधानमंत्री अपनी पत्नी के साथ सिनेमा का आखिरी शो देखकर पैदल घर लौट रहे थे, बिना सुरक्षा तामझाम के आम आदमी की तरह। हत्यारा पीछे से आया। एक लैंप पोस्ट से दो कदम आगे जाकर रुक गया। पामे दम्पति जब वहां पहुंचे, तो स्ट्रीट लाइट की रोशनी में उसने पहले उनकी ठीक से पहचान की और फिर गोलियां बरसा दीं। पामे मारे गए, श्रीमती पामे किसी तरह बच रहीं। आश्चर्य हुआ। यूरोपीय देशों में प्रधानमंत्री कितनी सहज और सरल जिंदगी जीते हैं! मन में आशंका भी उठी कि ऐसे कांड राजनेताओं को सुरक्षा के साए में जीने के लिए मजबूर कर देंगे। सुरक्षा का सरंजाम उन्हें आम आदमी से दूर कर देगा। एक दिन पहले ही हमने तत्कालीन स्वीडिश प्रधानमंत्री का काफिला देखा था। आधुनिकतम सुरक्षा प्रणाली और चाक-चौबंद अंगरक्षकों से लैस।
उन्हीं दिनों हिन्दुस्तान में भी यह रीति-नीति पनप रही थी। इंदिरा गांधी की हत्या को चार साल होने जा रहे थे। स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप और उस जैसे तमाम कमांडो संगठन राजनेताओं को अपने घेरे में ले रहे थे। ओलोफ पामे के स्मारक पर उपजी आशंका आनेवाले हर रोज मजबूत होती गई। आज 23 बरस बाद उसके दुष्परिणाम सामने हैं। हमारे तमाम महत्वपूर्ण नेता उन लोगों से कट गए हैं, जिनकी वे नुमाइंदगी करते हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं कि आतंकवाद से अघाई इस दुनिया में विशिष्ट जनों की रक्षा के लिए इस तरह के उपाय बेहद जरूरी हैं, पर अफसोस यह है कि हमारे नेताओं ने इसमें भी अपनी सहूलियत का रास्ता तलाश लिया है। अब वे उन्हीं के लिए सुलभ हैं, जिनसे मिलना चाहते हैं। उनके घर-दफ्तर अभेद्य किलों में तब्दील हो गए हैं। जनता से उनकी दूरी तमाम समस्याओं को पैदा कर रही है। उन्हें अब मालूम नहीं पड़ता कि उनके फैसले उन लोगों पर क्या अच्छा-बुरा असर डाल रहे हैं, जिनके लिए इन्हें अंजाम दिया जा रहा है। डरावने हथियारों से घिरे इन नेताओं को देखकर अंदाज लगाना मुश्किल है कि वे ‘लोकप्रिय’ हैं या महज ‘माननीय’?
इस संवादहीनता ने बीच के दलाल तंत्र को पनपने और पसरने में बड़ी भूमिका अदा की है। विकास के धन की बेशर्म बंदरबांट इसका उदाहरण है। पर लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यहां आम आदमी की आवाज लंबे समय तक नहीं घुटती। हम सुकून महसूस कर सकते हैं कि राजनेताओं के बंद पड़े दरवाजों पर दस्तक पड़नी शुरू हो गई है। उम्मीद है, आज नहीं तो कल दोतरफा विचारों के दरवाजे भी खुल जाएंगे।
यकीन न हो तो अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों की कोशिशों पर गौर फरमाइए। यह ठीक है कि सत्ता प्रतिष्ठान और सिविल सोसाइटी के इन स्वयंभू नुमाइंदों के बीच काफी वैचारिक मतभेद हैं, पर पहली बार ऐसा हो रहा है कि आपसी बातचीत जारी है। अन्ना विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से मिल रहे हैं। उन्हें अपने तर्क समझाने की कोशिश कर रहे हैं। वे साबित करना चाहते हैं कि उनके लिए नेताओं की विचारधारा के मुकाबले आम सहमति बेहद जरूरी है। यह बात अलग है कि वे जितनी जल्दी और जैसा परिवर्तन चाहते हैं, वह बहुतों को बहुत व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता। अन्ना अगर सार्वजनिक मंचों से अपनी बात कह रहे हैं, तो सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोग भी अपने तर्कों को बड़ी साफगोई से देश के लोगों के सामने रखने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने चुनिंदा संपादकों से बातचीत में जो कहा, वह सपाट और स्पष्ट था। तमाम मंत्री और पार्टी के नेता जगह-जगह जाकर अपनी स्थिति साफ कर रहे हैं। यह बरसों से बाधित पड़ी एक नेक प्रक्रिया की वापसी का आगाज है।
सिर्फ दिल्ली ही नहीं, बल्कि विभिन्न सूबों में इस तरह के प्रयोग सफलतापूर्वक हो रहे हैं। मसलन, ममता बनर्जी के सुरक्षाकर्मी परेशान हैं। दीदी अपने मतदाताओं से दूरी बरतने को तैयार नही हैं। मुख्यमंत्री होने के नाते उनकी जान को तमाम खतरे हैं, पर वह जानती हैं कि तीन दशक लंबे संघर्ष में अगर उनका कोई साथी था, तो यही साधारण मानुष। वह सत्ता सदन के लिए सड़क पर खड़े अपने साथियों को नहीं छोड़ना चाहतीं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, उड़ीसा के नवीन पटनायक और बिहार के नीतीश कुमार भी इसकी मिसाल हैं। सुरक्षाकर्मी इनको चेताते रहते हैं। पर ये जानते हैं कि जिस दिन उनके तामझाम के आगे लोगों की आकांक्षाएं परास्त हो जाएंगी, उनके पतन का रास्ता भी खुल जाएगा। हमें इस पहल को मजबूत करने की कोशिश करनी चाहिए।
मार्टिन लूथर किंग जब 28 अगस्त, 1963 को ‘लांग मार्च’ पर निकले थे, तब लोगों को लगा था कि इनकी यात्रा गली के अंधे मोड़ पर जाकर खत्म हो जाएगी। पर 46 साल बाद जब बराक ओबामा ने संसार के सबसे शक्तिशाली गणतंत्र की कमान संभाली, तो तालियों के उत्साह भरे शोर के बीच उनके दृढ़ स्वर गूंज रहे थे- ‘अमेरिका में कुछ भी संभव है।’ मार्टिन लूथर किंग की जिंदगी और मौत असंभव को संभव बनाने की यात्रा का हिस्सा थी। ओबामा ने उसे एक मुकाम दिया है, पर मंजिल अभी दूर है। ठीक वैसे ही, जैसे हमारे यहां गांधी ने चंपारण से जो मुहिम शुरू की थी, वह अभी तक अधूरी है। वह जन-धन और शासन के बीच समन्वय चाहते थे। उनके जाने के बाद हमारे हुक्मरां इसके उलटे रास्ते पर चल पड़े।
मोहनदास करमचंद गांधी और मार्टिन लूथर किंग में कई समानताएं हैं। दोनों ने चमकदार कैरियर की बजाय अपनी मेधा का उपयोग उनके लिए किया, जो अंधेरे के अभिशाप में जी रहे थे। दोनों गोलियों के शिकार हुए। सरकारें इनको सुरक्षा प्रदान करने के लिए कटिबद्ध थीं। पर वे जानते थे। इससे उनका जीवन तो बच सकता है, लेकिन जन-जीवन में सुधार का उनका लक्ष्य अधर में लटक जाएगा। इसीलिए गांधी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के सुरक्षा संबंधी सारे आग्रह ठुकरा दिए थे। उन पर 20 जनवरी, 1948 को भी हत्यारों की उसी टोली ने हमला किया था, जो 30 जनवरी को कामयाब हो गई थी। पर बापू के लिए जनता से जुड़ाव जीवन से ज्यादा जरूरी था। उनकी मौत ने साबित कर दिया कि कभी-कभी हादसे खुशनुमा दिनों से ज्यादा बड़ी लकीर खींच सकते हैं। उम्मीद है। हमारे मौजूदा नेता इस तथ्य को जानना, समझना और याद रखना चाहेंगे।
Source :  http://blogs.livehindustan.com/pyaali-me-tufaan/2011/07/04/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%96%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%BE/
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जानिए सोशल नेटवर्किंग की ताक़त के बारे में Hindi Blogging Guide (16)

इंटरनेट ने फ़ासलों को ख़त्म कर दिया है और सोशल नेटवर्किंग ने राजनैतिक बंटवारे के बावजूद पूरी दुनिया को एक मंच पर ला खड़ा है। सोशल नेटवर्किंग हमारे रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर भी असर डाल रहा है, उसे बदल रहा है। ऐसे में जागरूकता बहुत बहुत ज़रूरी है ताकि बदलाव की दिशा सकारात्मक हो।
सोशल नेटवर्किं के असर का जायज़ा लेती हुई सरोज मल्होत्रा की यह रिपोर्ट संक्षेप में बहुत कुछ जानकारी दे रही है :
तेरह जुलाई को मुंबई में बम धमाकों के बाद ट्विटर पर संदेशों की बाढ़ आ गई। धमाकों के बाद सोशल मीडिया न सिर्फ लोगों से जुड़ने का एक जरिया बना, बल्कि सैकड़ों की तादाद में लोग इस मंच पर मदद के लिए आगे आए। अपनों की खैर-खबर लेने के लिए लोगों ने फेसबुक और ट्विटर का सहारा लिया।
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ट्रेन हादसा: पत्रकारों का पागलपन

मित्रों  
आज बात तो रेल हादसे पर करने आया था, लेकिन मुंबई ब्लास्ट का जिक्र ना करुं तो लगेगा कि मैने अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से नहीं निभाई। मुंबई में तीन जगह ब्लास्ट में अभी तक लगभग 20 लोगों की मौत हो चुकी है, कई लोग गंभीर रूप से घायल होकर अस्पताल में इलाज करा रहे हैं। ब्लास्ट दुखद है, हम सभी की संवेदना उन परिवार के साथ है, जिन्होंने इस हादसे में अपनों को खोया है। लेकिन ब्लास्ट के बाद सरकार के रवैये पर बहुत गुस्सा आ रहा है।
बताइये किसी देश का गृहमंत्री यह कह कर सरकार का बचाव करे कि 31 महीने के बाद मुंबई में हमला हुआ है। वो इसे अपनी उपलब्धित बता रहा है। इससे ज्यादा तो शर्मनाक कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी का है। वो कहते हैं कि ऐसे हमलों को रोकना नामुमकिन है। इन बयानों से तो इनके लिए गाली ही निकलती है, लेकिन ब्लाग की मर्यादा में बंधा हुआ हूं। फिर भी ईश्वर से इतना प्रार्थना जरूर करुंगा कि आगे जब भी ब्लास्ट हो, उसमें मरने वालों में मंत्री का भी एक बच्चा जरूर होना चाहिए। इससे कम  से कम ये नेता संवेदनशील तो होंगे। चलिए अब मैं आता हूं अपने मूल विषय रेल दुर्घटना पर...
 बीता रविवार मनहूस बनकर आया। मेरे आफिस और बच्चों के स्कूल की छुट्टी थी, लिहाजा घर में आमतौर पर सुबह से शुरू हो जाने वाली कवायद  नहीं थी। आराम से हम सब ने लगभग 11 बजे सुबह का नाश्ता किया और लंच में क्या हो, ये बातें चल रही थीं। इस बीच आफिस के एक फोन ने मन खराब कर दिया। चूंकि आफिस में मैं रेल महकमें जानकार माना जाता हूं, लिहाजा मुझे बताया गया कि यूपी में फतेहपुर के पास मालवा स्टेशन पर हावडा़ कालका मेल ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई है और इससे ज्यादा कोई जानकारी नहीं है। मुझे इतना भी समय नहीं दिया गया कि मैं दुर्घटना के बारे में आगे कोई जानकारी कर सकूं और मेरा फोन सीधे एंकर के साथ जोड़ दिया गया।
चूंकि कई साल से मैं रेल महकमें को कवर करता रहा हूं और कई तरह की दुर्घटनाओं से मेरा सामना हो चुका है, लिहाजा सामान्य ज्ञान के आधार पर मैं लगभग आधे घंटे तक दुर्घटना की बारीकियों यानि ऐसी कौन कौन सी वजहें हो सकती हैं, जिससे इतनी बड़ी दुर्घटना हो सकती है, ये जानकारी देता रहा। बहरहाल मैने आफिस को बताया कि थोड़ी देर मुझे खाली करें तो मैं इस दुर्घटना के बारे में और जानकारी करूं। आफिस में हलचल मची हुई थी, कहा गया सिर्फ पांच मिनट में पता करें, आपको दुबारा फोन लाइन पर लेना होगा।
अब मैने रेल अफसरों को फोन घुमाना शुरू किया। आप इस बात पर जरूर गौर करें.. पहले तो दिल्ली और इलाहाबाद के कई अफसरों ने  फोन ही नहीं उठाया, क्योंकि छुट्टी के दिन रेल अफसर फोन नहीं उठाते हैं। इसके अलावा जिन अफसरों ने फोन रिसीव किया उनमें से सात आठ अधिकारियों को  एक्सीडेंट के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। उन्होंने उल्टे  मुझसे पूछा कि क्या यात्री ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हुई है या मालगाड़ी। अब आप समझ सकते हैं कि देश में रेल अफसर ट्रेन संचालन को लेकर कितने गंभीर हैं।
खैर बाद में रेलवे के एक दूसरे अफसर से बात हुई। मोबाइल उन्होंने आंन किया, लेकिन वो रेलवे के दूसरे फोन पर किसी और से बात कर रहे थे, इस दौरान मैने इतना भर सुना कि सेना को अलर्ट पर रखना चाहिए, क्योंकि उनके आने से क्षतिग्रस्त बोगी में फंसे यात्रियों को सुरक्षित बाहर निकालने में आसानी होगी। ये बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए,  क्योंकि ये साफ हो गया कि एक्सीडेंट छोटा मोटा नहीं है। बहरहाल इस अधिकारी ने इतना तो जरूर कहा कि महेन्द्र जी बडा एक्सीडेंट है, लेकिन इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं बता सकता, कोशिश है कि पहले कानपुर और इलाहाबाद की एआरटी (एक्सीडेंट रिलीफ ट्रेन) जल्द घटनास्थल पर पहुंच जाए।
अफसर का फोन काटते ही मैने आफिस को फोन घुमाया और बताया कि दुर्घटना बड़ी है, क्योंकि सेना को अलर्ट किया गया है। बस इतना सुनते ही आफिस ने फिर ब्रेकिंग न्यूज चला दी और मेरा फोन एंकर से जोड़ दिया गया। इस ब्रेकिंग को लेकर मैं काफी देर तक एंकर के साथ जुडा रहा और ये बताने की कोशिश की किन हालातों में सेना को बुलाया जाता है। चूंकि रेल मंत्रालय सेना को बुला रहा है इसका मतलब है कि कुछ बड़ी और बुरी खबर आने वाली है। खैर कुछ देर बाद ही बुरी खबर आनी शुरू भी हो गई और मरने वाले यात्रियों की संख्या तीन से शुरू होकर आज 69 तक पहुंच गई।
 ट्रेन हादसे की वजह
ट्रेन हादसे की वजह को आप ध्यान से समझें तो आपको पत्रकारों के पागलपन को समझने में आसानी होगी। हादसे की तीन मुख्य वजह है। पहला रेलवे के ट्रैक प्वाइंट में गड़बड़ी। ट्रैक प्वाइंट उसे कहते हैं जहां दो लाइनें मिलतीं हैं। कई बार ये लाइनें ठीक से नहीं जुड़ पाती हैं और सिगनल ग्रीन हो जाता है। इस दुर्घटना में इसकी आशंका सबसे ज्यादा जताई जा रही है। दूसरा रेल फ्रैक्चर । जी हां कई बार रेल की पटरी किसी जगह से टूटनी शुरू होती है और ट्रेनों की आवाजाही से ये टूटते टूटते इस हालात में पहुंच जाती है कि इस तरह की दुर्घटना हो जाती है। इसके लिए गैंगमैन लगातार ट्रैक की पेट्रोलिंग करते हैं, पटरी टूटने पर वो इसकी जानकारी रेल अफसरों को देते हैं और जब तक पटरी ठीक नहीं होती, तब तक ट्रैक पर ट्रेनों की आवाजाही बंद रहती है। तीसरी वजह कई बार इंजन के पहिए में  दिक्कत हो जाती है इससे भी ऐसी गंभीर दुर्घटना हो सकती है।
ट्रेन के ड्राईवर ने अफसरों को बताया कि वो पूरे स्पीड से जा रहा था, अचानक इंजन के नीचे गडगड़ाहट हुई, और इसके पहले की मैं कुछ समझ पाता ट्रेन दुर्घटना हो चुकी थी। बताया जा रहा है कि ट्रैक प्वाइंट आपस में ठीक तरह से नहीं जुड पाए और तकनीकि खामी के चलते सिग्नल ग्रीन हो गया। कालका मेल अपनी पूरी रफ्तार से दिल्ली की ओर बढ रही थी,  एक झटके में वो पटरी से उतर गई और उसके कई डिब्बे एक दूसरे के ऊपर चढ गए।
दुर्घटना सहायता ट्रेन
हां दुर्घटना के बाद राहत का काम कैसे चला इसकी बात जरूर की जानी चाहिए। मित्रों ट्रेनों का संचालन मंडलीय रेल प्रबंधक कार्यालय में स्थापित कंट्रोल रुम से किया जाता है। जैसे ही कोई ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त होती है, उसके आसपास के बड़े रेलवे स्टेशनों पर सायरन बजाए जाते हैं, जिसमें रेल अफसर, डाक्टर और कर्मचारी बिना देरी किए एक्सीडेंट रिलीफ ट्रेन (एआरटी) में पहुंच जाते हैं। इस एआरटी में एक उच्च श्रेणी का मेडिकल वैन भी होता है, जिसमें घायल यात्रियों को भर्ती करने का भी इंतजाम होता है। सूचना मिलने के बाद 15 मिनट के भीतर कानपुर और इलाहाबाद से एआरटी को घटनास्थल के लिए रवाना हो जाना चाहिए था और 45 मिनट से एक घंटे के भीतर इसे मौके पर होना चाहिए था। लेकिन रेलवे के निकम्मेपन की वजह से ये ट्रेन चार घंटे देरी से घटनास्थल पर पहुंची। सच ये है कि अगर रिलीफ ट्रेन सही समय पर पहुंच जाती तो मरने वालों की संख्या कुछ कम हो सकती थी।
पत्रकारों का पागलपन
अब बात करते हैं पत्रकारों के पागलपन की या ये कह लें उनकी अज्ञानता की। रेलवे के अधिकारी अपने निकम्मेपन को छिपाने के लिए अक्सर कोई भी दुर्घटना होने पर इसकी जिम्मेदारी ड्राईवर पर डाल देते हैं। जैसे एक ट्रेन दूसरे से टकरा गई तो कहा जाता है कि ड्राईवर ने सिगनल की अनदेखी की, जिससे ये दुर्घटना हुई। रात में कोई ट्रेन हादसा हो गया तो कहा जाता है कि ड्राईवर सो गया था, इसलिए ये हादसा हुआ। मित्रों आपको इस बात की जानकारी होनी चाहिए, अगर कोई एक्सीडेंट होता है तो सबसे पहले ड्राईवर की जान को खतरा रहता है, क्योंकि सबसे आगे तो वही होता है। लेकिन निकम्मे अफसर ड्राईवर की गल्ती इसलिए बता देते हैं कि ज्यादातर दुर्घटनाओं में ड्राईवर की मौत हो जाती है, उसके बाद जांच का कोई निष्कर्ष ही नहीं निकलता। ऐसी ही साजिश इस दुर्घटना में भी की गई। कहा गया कि ड्राईवर ने इमरजेंसी ब्रेक लगा दिया, इसकी वजह से दुर्घटना हुई। अब इनसे कौन पूछे कि अगर इमरजेंसी ब्रेक इतना ही खतरनाक है तो इसका प्रावीजन इंजन में क्यों किया गया है। इसे तो हटा दिया जाना चाहिए। लेकिन नहीं, पत्रकारों के पागलपन की इंतहा देखिए, उन्होंने घटनास्थल से चीखना शुरू कर दिया कि इमरजेंसी ब्रेक लगाने से दुर्घटना हुई और ये क्रम दूसरे दिन भी जारी रहा।
हकीकत ये है दोस्तों कि अफसरों को लगा कि इतनी बड़ी दुर्घटना हुई है ड्राईवर की मौत हो गई होगी, लिहाजा उस पर ही जिम्मेदारी डा दी जाए। लेकिन जैसे ही पता चला कि ड्राईवर और सहायक दोनों जिंदा हैं तो रेल अफसरों ने कहना शुरू कर दिया कि इमरजेंसी ब्रेक से ऐसी दुर्घटना नहीं हो सकती। लेकिन तब तक पत्रकारों ने माहौल तो खराब कर ही दिया था।   
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एग्रीगेटर्स से जुड़कर पाठक मिलते हैं नए ब्लॉगर को Hindi Blogging Guide (15)

ब्लॉग बना लेने के बाद आप को सबसे पहले यह धयान आता है कि अपने लेखों को दूसरे पाठकों तक कैसे पहुँचाया जाए ?
इसके लिए मैंने पिछले लेख मैं समझाया था कि आप दूसरे  ब्लॉगर्स के ब्लॉग पर जाएं और वहाँ उनके लेखों को पढ़ कर टिप्पणी करें,
आज हिंदी ब्लॉगजगत में बहुत बड़े और सशक्त संकलक ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत जैसों की कमी है लेकिन बहुत से संकलक अभी भी काम कर रहे हैं.
आज मुकम्मल तौर पे स्वचालित संकलक की कमी इस हिंदी ब्लॉग जगत में महसूस की जा रही है. जहाँ ब्लॉगर  एक बार अपने  ब्लॉग रजिस्टर करने के बाद बे फ़िक्र हो जाए कि उसकी पोस्ट मानदारी से संकलक पे आ रही होगी और उसको पढने वालों की संख्या के साथ कोई छेड़ छाड नहीं हो रही होगी.

यदि ऐसा कोई संकलक वजूद में नहीं आता  है तो इस हिंदी ब्लॉगजगत के इतना बड़ा होने तक इंतज़ार करें जब ब्लोगर एक दूसरे को शहर,घर नाम और जाति से हट कर केवल उसके लेखों से पहचान ना शुरू कर देंगे.
अपने ब्लॉग के पाठक बढ़ाने के लिए आप इन कुछ एग्रीगेटर्स की सहायता ले सकते हैं.









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ब्लॉगर्स मीट अब ब्लॉग पर आयोजित हुआ करेगी और वह भी वीकली Bloggers' Meet Weekly

‘हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल‘ के लेख को मात्र  5 महीनों में ही 8 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने पढ़ा है। यह एक रिकॉर्ड सफलता है। ऐसा तब हुआ जबकि गुटबंदी और जलन की वजह से संकीर्णवृत्ति के बंधुओं ने इससे जुड़ना गवारा न किया बल्कि इससे भी आगे बढ़कर जुड़ने वाले लोगों को हतोत्साहित भी किया। ऐसे लोग सदा से ही सत्य के मार्ग में रोड़ा बने हैं और इनके ऊपर से सत्य सदा ही रोड रोलर की तरह से गुज़रा है।
आज भी ये लोग इस मंच के सकारात्मक आंदोलनों को नज़अंदाज़ करके उसे किल करने की नीति पर चल रहे हैं। ये लोग आपको मामूली चुटकुलों की पोस्ट पर ‘बेहतरीन प्रस्तुति‘ लिखते हुए मिल जाएंगे लेकिन यही दो शब्द इनमें से कोई भी ‘दुनिया की पहली हिंदी ब्लॉगिंग गाइड‘ के लिए न कह सका। अब भी ये नहीं आएंगे लेकिन इनके न आने और न सराहने से हमारा उत्साह कमज़ोर पड़ने वाला नहीं है। हमारा लक्ष्य स्पष्ट है और जितने भी साथी हैं, उतने काफ़ी हैं और असल में एक अकेला मेहरबान मालिक ही काफ़ी है अपने बंदों की मदद के लिए।
‘हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल‘ कोई साहित्यिक मंच मात्र नहीं है कि कोई आया और गाकर चला गया और कोई कहानी सुनाकर चला गया बल्कि यह एक मिशन है।
इसका मक़सद बिखरी हुई मानवता को सत्य के आधार पर एक करना है। यह एक परिवार भी है और इसे परिवार के सदस्यों की निजी समस्याओं से भी सरोकार है।
‘हिंदी ब्लॉगिंग गाइड‘ इस मंच की एक नायाब देन है। नए पुराने ब्लॉगर्स अपने अनुभव साझा कर रहे हैं। यह एक यादगार तोहफ़ा है जिसने मंच के सभी सदस्यों को एक गौरवशाली पल का साक्षी बना दिया है।
इसके सक्रिय सदस्य लगातार अपने लेखन के माध्यम से इसे समृद्ध बना रहे हैं। उनके लेखन को ‘ब्लॉग की ख़बरें‘ के माध्यम से उन लोगों तक पहुचाया जाता है जो प्रायः इस मंच तक नहीं भी आ पाते। ईमेल्स के ज़रिये उनके लेख ब्लॉगर्स के साथ साथ देश विदेश के उन सभी नेट यूज़र्स तक पहुंचाये जाते हैं जो कि ब्लॉगर नहीं हैं। वक्त और हालात ने साथ दिया तो इनकी स्मारिका भी प्रकाशित की जाएगी।
इसी क्रम में अब यह ज़रूरी हो गया है कि इस फ़ोरम की तरफ़ से एक साप्ताहिक गोष्ठी का आयोजन किया जाए जिसमें कि
1. सप्ताह में इस मंच से प्रकाशित सभी लेखों के लिंक शामिल हों।
2. सप्ताह के लोकप्रिय और सार्थक अन्य लेखों के लिंक भी सामने लाये जाएं, जिन्हें इस मंच से जुड़े सदस्यों ने अपने अपने ब्लॉग पर लिखा है।
3. मंच से अब तक न जुड़ पाए ब्लॉगर्स के अच्छे लेखों को भी चर्चा में स्थान दिया जाए।
4. इसमें नए ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय भी कराया जाए और किसी पुराने ब्लॉगर के किसी उल्लेखनीय योगदान, यदि किया हो और उसकी सूचना प्राप्त हो जाए तो, का परिचय और ज़िक्र भी किया जाए।
5. हिंदी के अलावा किसी अन्य भारतीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा के किसी ब्लॉग का चर्चा करना भी यहां मना नहीं है।
6. हिंदी, अंग्रेज़ी या अन्य किसी भी भाषा की किसी वेबसाइट पर हेल्थ और पाक कला आदि से संबंधित कोई काम की जानकारी मौजूद है तो उसका चर्चा भी यहां ज़रूर किया जाए ताकि चर्चा में ताज़गी आए और हिंदी पाठकों को काम की जानकारी हाथ लगे।
7. इसके अलावा कोई ब्लॉगर बीमार हो या वह किसी समस्या से जूझ रहा हो तो उसका ज़िक्र भी किया जाए ताकि वह ख़ुद को इस दुनिया में बेसहारा और अकेला न समझे। हम चाहे उसका दुख दूर न कर सकें लेकिन उसके दुख को महसूस करने में उसका साथ ज़रूर दे सकते हैं।
(जैसे कि रश्मि प्रभा किडनी आप्रेशन के लिए आज हस्पताल में एडमिट हो चुकी होंगी, उनकी सेहत के लिए दुआ कीजिए।)
8. यही बात ख़ुशी के बारे में भी है। ब्लॉगर्स के जीवन में आने वाले ख़ुशी के लम्हों को भी यहां शेयर किया जाए ताकि ग़म की तारीकियों के दरम्यान ख़ुशियों के जुगनुओं की बारात भी यहां नज़र आए। 

ग़र्ज़ यह कि यह मात्र ऐसी चर्चा नहीं है जिसमें कि केवल लिंक का ही चर्चा हो बल्कि इसका कान्सेप्ट गोष्ठी, बैठक और चैपाल का है। एक ऐसे पारिवारिक समारोह का ख़याल है यह जिसमें हम एक दूसरे की भावनाओं को भी महसूस कर सकें। ब्लॉगर्स मीट अगर ब्लॉग पर ही आयोजित हो तो शामिल होना सबके लिए मुमकिन है।
‘ब्लॉगर्स मीट वीकली‘ के इस सिलसिले की पहली पेशकश सोमवार को मन्ज़रे आम पर आ रही है। आप सभी से सहयोग की आशा है।

कौन करेगा इस समारोह का संचालन ?
यह एक सस्पेंस है।
आपको यह ख़याल कैसा लगा ?
क्या इसे एक सकारात्मक और रचनात्मक काम का नाम दिया जा सकता है ?
फ़िलहाल तो आपसे इस पर राय देने की दरख्वास्त है।
यह समारोह इस मंच के द्वारा संचालित अवश्य है लेकिन यह समारोह है सारे ब्लॉग जगत का बल्कि सारे नेट जगत का। इसमें हरेक आमंत्रित है।
हरेक का सादर स्वागत है।
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मेरी बिटिया सदफ स्कूल क्लास प्रतिनिधि का चुनाव जीती

मेरी बिटिया सदफ स्कूल क्लास प्रतिनिधि का चुनाव जीती

मेरी बिटिया सदफ जो ६ वर्ष की है और सेंट जोसेफ स्कूल बेराज रोड कोटा में सेकंड क्लास में पढ़ती है  कल उसकी क्लास में हुए क्लास प्रतिनिधि का चुनाव जीत कर उसने जो ख़ुशी ज़ाहिर की वोह देखने लायाक थी उसकी ख़ुशी से हम खुद भी अपनी ख़ुशी नहीं रोक सके ...............दोस्तों मेरी सबसे छोटी बिटिया सदफ शुरू से ही पढने कमाल करती आई है लेकिन अतिरिक्त एक्टिविटी में भी वोह स्कूल के सभी कार्यक्रमों में हिस्सेदार रही है वोह नर्सरी से एच के जी तक मोनिटर रही फिर उनके स्कूल में निर्वाचन के आधार पर क्लास प्रतिनिधि चुनने का प्रावधान है क्लास फर्स्ट में वोह क्लास प्रतिनिधि निर्वाचित हुई लेकिन हमें कोई खास ख़ुशी नहीं थी ..इस बार पिछले सप्ताह स्कूल से जब बिटिया सदफ आई तो उसने मुझ से बढे भाई शाहरुख से , बहन जवेरिया से , मेरी शरीके हयात रिजवाना से और मेरे मम्मी पापा से एक ही बात कही के वोह स्कूल के क्लास प्रतिनिधि यानि सेकंड क्लास के प्रतिनिधि के चुनाव में खड़ी हुई है उसके अलावा एक लडकी और एक लडका और इस चुनाव में खड़ा है इसलिए सभी मिलकर उसके दुआ करे के वोह चुनाव में हर कीमत पर जीत कर आये ...उसका कहना था के पापा जो लड़का उसके मुकाबिल खड़ा है वोह तो बच्चों को चोकलेट देकर वोट मांग रहा है ..हमने बिटिया को समझाया के बेटा तुम तुम्हारे कर्म और तुम्हारे अखलाक से अगर तुम्हारे साथ के बच्चों की पसंद बन कर जीतो तो ठीक रहेगा वरना जो होगा देखा जायेगा .....खेर वक्त निकल गया और कल हमारी बिटिया सदफ क्लास प्रतिनिधि का चुनाव जीत कर जब बेच लायी तो उसकी ख़ुशी का पारावार नहीं था उसने बताया केसे एसेम्बली में सबके सामने उसे बुलाकर तालियों की गडगडाहट के बीच उसकी जीत की घोषणा की गयी और फिर खुशियों की बहार उसके मुख पर देखने लायक थी .................दोस्तों बात तो छोटी सी है लेकिन में स्कूलों में छोटी छोटी क्लासों में नेतृत्व क्षमता को बढ़ावा देने और सेवा कार्यों का बच्चों में भाव पैदा करने की इस दोस्ताना चुनाव की खूबियों को देखने लगा और सोचता रहा के बच्चों से लेकर बड़ों तक , स्कूल से लेकर कोलेज और फिर लोकसभा तक चनाव जो होते हैं उसमे कितना फर्क हो जाता है ..एक बच्चे का चुनाव जो बिना किसी खर्च के खामोशी से हो गया एक छात्रनेता यानी कोलेज का चुनाव जो काफी खर्चीला और उदंडता का हो गया है और फिर विधायक और लोकसभा के चुनाव में करोड़ों के खरीद फरोख्त के जो खेल होते हैं वोह तो आप सब जानते ही है ऐसे में सियासत बुरी है या उसे करने वाले बुरे हैं कुछ समझ नहीं आ पाता काश सभी चुनाव स्कूल के क्लास प्रतिनिधि की तरह शांत तरीके से हो तो शायद देश में कुछ सुधार आ जाए ...............अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
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