राजनेताओं के बंद पड़े दरवाजों पर दस्तक पड़नी शुरू हो गई है Dastak

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  • Thursday, July 21, 2011
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  • DR. ANWER JAMAL
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  • विचारों के द्वार खोलने का वक्त

    वह स्टॉकहोम का सवेरा था। रात भर पाला बरसा था, पर सुबह मौसमविदों की भविष्यवाणी के उलट सूरज शहर के सिर पर चमक रहा था। भीषण सर्दी से अघाए लोग सड़कों पर उतर आए थे। कहावत याद आई- जैसा देश वैसा भेष। लिहाजा, हम भी सर्दी के उस सुखमय सवेरे का आनंद उठाने के लिए सड़कों पर उतर लिए। वहीं अकस्मात एक बड़ी आशंका से साक्षात्कार हुआ।
    हुआ यह कि चलते-चलते एक ऐसी जगह पहुंचे, जहां फुटपाथ के बीचोबीच कुछ फूल खिले हुए थे। बड़े जतन से संवारे गए पौधों के साथ स्थानीय भाषा में एक छोटी-सी प्लेट भी लगी हुई थी। पता किया, तो मालूम पड़ा कि लगभग दो साल पहले यहीं स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पामे की हत्या हुई थी। उस रात प्रधानमंत्री अपनी पत्नी के साथ सिनेमा का आखिरी शो देखकर पैदल घर लौट रहे थे, बिना सुरक्षा तामझाम के आम आदमी की तरह। हत्यारा पीछे से आया। एक लैंप पोस्ट से दो कदम आगे जाकर रुक गया। पामे दम्पति जब वहां पहुंचे, तो स्ट्रीट लाइट की रोशनी में उसने पहले उनकी ठीक से पहचान की और फिर गोलियां बरसा दीं। पामे मारे गए, श्रीमती पामे किसी तरह बच रहीं। आश्चर्य हुआ। यूरोपीय देशों में प्रधानमंत्री कितनी सहज और सरल जिंदगी जीते हैं! मन में आशंका भी उठी कि ऐसे कांड राजनेताओं को सुरक्षा के साए में जीने के लिए मजबूर कर देंगे। सुरक्षा का सरंजाम उन्हें आम आदमी से दूर कर देगा। एक दिन पहले ही हमने तत्कालीन स्वीडिश प्रधानमंत्री का काफिला देखा था। आधुनिकतम सुरक्षा प्रणाली और चाक-चौबंद अंगरक्षकों से लैस।
    उन्हीं दिनों हिन्दुस्तान में भी यह रीति-नीति पनप रही थी। इंदिरा गांधी की हत्या को चार साल होने जा रहे थे। स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप और उस जैसे तमाम कमांडो संगठन राजनेताओं को अपने घेरे में ले रहे थे। ओलोफ पामे के स्मारक पर उपजी आशंका आनेवाले हर रोज मजबूत होती गई। आज 23 बरस बाद उसके दुष्परिणाम सामने हैं। हमारे तमाम महत्वपूर्ण नेता उन लोगों से कट गए हैं, जिनकी वे नुमाइंदगी करते हैं।
    इसमें कोई दोराय नहीं कि आतंकवाद से अघाई इस दुनिया में विशिष्ट जनों की रक्षा के लिए इस तरह के उपाय बेहद जरूरी हैं, पर अफसोस यह है कि हमारे नेताओं ने इसमें भी अपनी सहूलियत का रास्ता तलाश लिया है। अब वे उन्हीं के लिए सुलभ हैं, जिनसे मिलना चाहते हैं। उनके घर-दफ्तर अभेद्य किलों में तब्दील हो गए हैं। जनता से उनकी दूरी तमाम समस्याओं को पैदा कर रही है। उन्हें अब मालूम नहीं पड़ता कि उनके फैसले उन लोगों पर क्या अच्छा-बुरा असर डाल रहे हैं, जिनके लिए इन्हें अंजाम दिया जा रहा है। डरावने हथियारों से घिरे इन नेताओं को देखकर अंदाज लगाना मुश्किल है कि वे ‘लोकप्रिय’ हैं या महज ‘माननीय’?
    इस संवादहीनता ने बीच के दलाल तंत्र को पनपने और पसरने में बड़ी भूमिका अदा की है। विकास के धन की बेशर्म बंदरबांट इसका उदाहरण है। पर लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यहां आम आदमी की आवाज लंबे समय तक नहीं घुटती। हम सुकून महसूस कर सकते हैं कि राजनेताओं के बंद पड़े दरवाजों पर दस्तक पड़नी शुरू हो गई है। उम्मीद है, आज नहीं तो कल दोतरफा विचारों के दरवाजे भी खुल जाएंगे।
    यकीन न हो तो अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों की कोशिशों पर गौर फरमाइए। यह ठीक है कि सत्ता प्रतिष्ठान और सिविल सोसाइटी के इन स्वयंभू नुमाइंदों के बीच काफी वैचारिक मतभेद हैं, पर पहली बार ऐसा हो रहा है कि आपसी बातचीत जारी है। अन्ना विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से मिल रहे हैं। उन्हें अपने तर्क समझाने की कोशिश कर रहे हैं। वे साबित करना चाहते हैं कि उनके लिए नेताओं की विचारधारा के मुकाबले आम सहमति बेहद जरूरी है। यह बात अलग है कि वे जितनी जल्दी और जैसा परिवर्तन चाहते हैं, वह बहुतों को बहुत व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता। अन्ना अगर सार्वजनिक मंचों से अपनी बात कह रहे हैं, तो सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोग भी अपने तर्कों को बड़ी साफगोई से देश के लोगों के सामने रखने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने चुनिंदा संपादकों से बातचीत में जो कहा, वह सपाट और स्पष्ट था। तमाम मंत्री और पार्टी के नेता जगह-जगह जाकर अपनी स्थिति साफ कर रहे हैं। यह बरसों से बाधित पड़ी एक नेक प्रक्रिया की वापसी का आगाज है।
    सिर्फ दिल्ली ही नहीं, बल्कि विभिन्न सूबों में इस तरह के प्रयोग सफलतापूर्वक हो रहे हैं। मसलन, ममता बनर्जी के सुरक्षाकर्मी परेशान हैं। दीदी अपने मतदाताओं से दूरी बरतने को तैयार नही हैं। मुख्यमंत्री होने के नाते उनकी जान को तमाम खतरे हैं, पर वह जानती हैं कि तीन दशक लंबे संघर्ष में अगर उनका कोई साथी था, तो यही साधारण मानुष। वह सत्ता सदन के लिए सड़क पर खड़े अपने साथियों को नहीं छोड़ना चाहतीं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, उड़ीसा के नवीन पटनायक और बिहार के नीतीश कुमार भी इसकी मिसाल हैं। सुरक्षाकर्मी इनको चेताते रहते हैं। पर ये जानते हैं कि जिस दिन उनके तामझाम के आगे लोगों की आकांक्षाएं परास्त हो जाएंगी, उनके पतन का रास्ता भी खुल जाएगा। हमें इस पहल को मजबूत करने की कोशिश करनी चाहिए।
    मार्टिन लूथर किंग जब 28 अगस्त, 1963 को ‘लांग मार्च’ पर निकले थे, तब लोगों को लगा था कि इनकी यात्रा गली के अंधे मोड़ पर जाकर खत्म हो जाएगी। पर 46 साल बाद जब बराक ओबामा ने संसार के सबसे शक्तिशाली गणतंत्र की कमान संभाली, तो तालियों के उत्साह भरे शोर के बीच उनके दृढ़ स्वर गूंज रहे थे- ‘अमेरिका में कुछ भी संभव है।’ मार्टिन लूथर किंग की जिंदगी और मौत असंभव को संभव बनाने की यात्रा का हिस्सा थी। ओबामा ने उसे एक मुकाम दिया है, पर मंजिल अभी दूर है। ठीक वैसे ही, जैसे हमारे यहां गांधी ने चंपारण से जो मुहिम शुरू की थी, वह अभी तक अधूरी है। वह जन-धन और शासन के बीच समन्वय चाहते थे। उनके जाने के बाद हमारे हुक्मरां इसके उलटे रास्ते पर चल पड़े।
    मोहनदास करमचंद गांधी और मार्टिन लूथर किंग में कई समानताएं हैं। दोनों ने चमकदार कैरियर की बजाय अपनी मेधा का उपयोग उनके लिए किया, जो अंधेरे के अभिशाप में जी रहे थे। दोनों गोलियों के शिकार हुए। सरकारें इनको सुरक्षा प्रदान करने के लिए कटिबद्ध थीं। पर वे जानते थे। इससे उनका जीवन तो बच सकता है, लेकिन जन-जीवन में सुधार का उनका लक्ष्य अधर में लटक जाएगा। इसीलिए गांधी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के सुरक्षा संबंधी सारे आग्रह ठुकरा दिए थे। उन पर 20 जनवरी, 1948 को भी हत्यारों की उसी टोली ने हमला किया था, जो 30 जनवरी को कामयाब हो गई थी। पर बापू के लिए जनता से जुड़ाव जीवन से ज्यादा जरूरी था। उनकी मौत ने साबित कर दिया कि कभी-कभी हादसे खुशनुमा दिनों से ज्यादा बड़ी लकीर खींच सकते हैं। उम्मीद है। हमारे मौजूदा नेता इस तथ्य को जानना, समझना और याद रखना चाहेंगे।
    Source :  http://blogs.livehindustan.com/pyaali-me-tufaan/2011/07/04/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%96%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%BE/

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