कुछ दिन से फिर हिंदी और उर्दू की बहस उठी है, और लोगों के दिलों में यह शक पैदा होता है कि हिंदी वाले उर्दू को दबा रहे हैं और उर्दू वाले हिंदी को। लेकिन अगर जरा भी विचार किया जाए, तो यह बिल्कुल फिजूल मालूम होता है। साहित्य ऐसे नहीं बढ़ा करते। अक्सर साहित्य का अर्थ हम कुछ दूसरा ही लगाते हैं। हम भाषा की छोटी बातों में बहुत फंसे रहते हैं और बुनियादी बातों को भूल जाते हैं। साहित्य किसके लिए होता है? क्या थोड़े-से ऊपर के पढ़े-लिखे आदमियों के लिए होता है या फिर आम जनता के लिए? जब तक हम इसका जवाब न दें, उस समय तक हमें साहित्य के भविष्य का रास्ता ठीक तौर से नहीं दिखेगा।
और अगर हम इस बात का निश्चय कर लें, तब हमारे और झगड़े हिंदी-उर्दू आदि के भी हल हो जाएं। पहली बात जो हमको याद रखनी है, वह यह है कि आजकल का साहित्य बहुत पिछड़ा हुआ है। किसी भी यूरोप की भाषा से मुकाबला किया जाए, तो हम काफी पिछड़े हुए हैं। जो नई किताबें हमारे यहां निकल रही हैं, वे अव्वल दर्जे की नहीं होतीं। और कोई आदमी आजकल की दुनिया को समझना चाहे, तो उसके लिए आवश्यक हो जाता है कि वह विदेशी भाषाओं की किताबें पढ़े।
3. यह खाली उर्दू-हिंदी के लिए नहीं, बल्कि सब हमारी बड़ी भाषाओं के लिए- बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम- यह बात साफ कर देनी चाहिए कि हम इन सब भाषाओं की तरक्की चाहते हैं और कोई मुकाबला नहीं। हर प्रांत में वहां की भाषा ही प्रथम है। हिंदी या हिन्दुस्तानी राष्ट्रभाषा अवश्य है और होनी चाहिए। लेकिन वह प्रांतीय भाषा के पीछे ही आ सकती है।
साभार हिंदुस्तान दिनांक 14 सितंबर 2012
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-262058.html
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