बाबा रामदेव अभी विदेशी बैंकों में जमा काला धन की वापसी को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये हुए हैं तो अन्ना हजारे एक सशक्त लोकपाल बिल के लिए सर पर आसमान उठाये हुए हैं. सवाल यह है कि खुदा न ख्वाश्ते यह दोनों अपनी जंग को जीत लेते हैं तो क्या सरे नज़ारे बदल जायेंगे ?...भ्रष्टाचार पर रोक लग जाएगी और काले धन की सल्तनत पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी ?....हम आप क्या खुद बाबा रामदेव और अन्ना हजारे भी दिल पर हाथ रखकर यह गारंटी नहीं दे सकते. सच यह है कि उनके आंदोलन से जनता में जागरूकता आ सकती है लेकिन समस्या का निदान नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार तो दरअसल पूंजीवादी लोकतंत्र की व्यवस्था का सह उत्पाद है. और काला धन हमारी अर्थ व्यवस्था की नसों में दौड़ता लहू. दुनिया का ऐसा कौन सा पूंजीवादी लोकतंत्र की व्यवस्था से संचालित देश है जहां काले धन और भ्रष्टाचार का संक्रामक रोग मौजूद नहीं है. यह एक लाइलाज रोग है. जब तक यह व्यवस्था रहेगी रोग भी रहेगा. इसके संक्रमण का प्रतिशत घट बढ़ जरूर सकता है.
सत्ता के शीर्ष पर बैठे महानुभावों से लेकर से आम आदमी तक जिधर भी नज़र दौडाएं हर जगह काले धन और भ्रष्टाचार की भूमिका दिखाई पड़ेगी.एक विधायक या सांसद चुनाव के दौरान करोड़ों रुपये फूंक देता है. चुनाव आयोग ने भी खर्च की जो सीमा निर्धारित की है उसे जुटा पाना किसी ईमानदार सामाजिक कार्यकर्त्ता के बूते के बाहर है. क्या यह पैसा आयकर जमा किया हुआ या प्रत्याशी की मेहनत की कमाई का होता है..? कहां से आता है यह पैसा...? पार्टी देती है तो उसके पास इसके आगमन का स्रोत क्या होता है. प्रत्याशी यह जानते हुए भी कि जीत जाने के बाद वेतन और भत्ते के रूप में प्रतिमाह लाख-डेढ़ लाख तक मिलेंगे और हार जाने पर पैसा पानी में चला जायेगा, खुले हाथ खर्च करता है. आखिर किस भरोसे वह जुए पर दावं लगता है.. वेतन और भत्ते के जरिये तो पांच साल के कार्यकाल में वह चुनाव खर्च भी नहीं निकाल पायेगा. फिर वह क्या सोचकर इतना खर्च करता है निश्चित रूप से सेठ-साहूकार और काले बाजार के गोरे खिलाडी ही उसे चुनाव लड़ने के लिए मोटा चंदा देते हैं.. वे किस उम्मीद पर ऐसा करते हैं...? जाहिर है कि कोई व्यापारी घाटे का सौदा नहीं करता. बस यहीं से रचे जाने लगते हैं घोटालों के चक्रव्यूह. लोकतान्त्रिक व्यवस्था में चुनाव तो होंगे ही और हर चुनाव में तैयार होगी भ्रष्टाचार के एक नए खेल की भूमिका. यह कारनामे व्यवस्था को समाजसेवा की दिशा में कैसे ले जा सकते हैं.
अब जरा अपने आसपास के किसी निम्न मध्यवर्गीय परिवार पर निगाह डालें.बच्चे के जन्म से लेकर बूढ़े की मृत्यु तक रीति-रिवाजों, पर्व त्योहारों की एक लंबी फेहरिश्त उसके सामने होती है. हर मौके के लिए उसे धन का संग्रह करना होता है. यह धन मासिक वेतन से जुटाना मुश्किल होता है. इसे पूरा करने के लिए वह टेबुल के नीचे की संभावनावों की ताक में रहता है. यह निचले स्तर के भ्रष्टाचार की भूमिका तैयार करता है.यह तमाम सामाजिक आयोजन उस ज़माने में सृजित किये गए थे जब भारत सोने की चिड़िया हुआ करता था. वह सामंती व्यवस्था का दौर था जिसकी कुछ खामियां थीं तो कुछ खूबियां भी थीं. उस ज़माने में सामूहिकता की भावना बहुत गहरी थी. किसी गरीब की बेटी की शादी हो रही हो तो बारात का बेहतर ढंग से स्वागत करना पूरे गांव की प्रतिष्ठा का मामला होता था. उस गांव का हर परिवार अपनी हैसियत के मुताबिक संबंधित परिवार की मदद करता था. कहीं कोई कमी नहीं होने दी जाती थी. तमाम पर्व त्यौहार और सामाजिक आयोजन गांव की शान दिखाने का अवसर होते थे. महंगे और खर्चीले होने के बावजूद यह किसी व्यक्ति या परिवार पर बोझ नहीं होते थे. आज के समाज में सामूहिकता की भावना का पूरी तरह लोप हो चुका है. अब बेटी की शादी किसी गांव, टोले या मोहल्ले की प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनती, यह संबंधित परिवार की अपनी जिम्मेवारी, अपनी हैसियत की बात होती है. जाहिर है कि बेटी का बाप अपना पेट काट-काटकर दहेज़ के पैसे जुटाएगा. लेकिन सरकारी तंत्र यदि उसे ठीक से पेट भरने की भी इजाजत नहीं देगा तो वह धन के आगमन के गैरकानूनी रास्तों की तलाश करेगा. उसकी यह ज़रूरत भी काले धन से ही पूरी होगी, समृद्ध घरानों में भी आयकर जमा कर जुटाई गई रकम इन मौकों के लिए नहीं होती. शायद ही कोई करदाता सामाजिक प्रयोजनों के खर्च को अपने रिटर्न में दर्शाता हो. यानी राजनैतिक ही नहीं सामाजिक व्यवस्था भी काले धन के ही बुनियाद पर खड़ी है. पूंजीवादी लोकतंत्र की इस महाव्याधि को अब दवा की नहीं शल्य चिकित्सा की दरकार है. एक नई शासन व्यवस्था की ज़रूरत है. उसका स्वरूप जनमुखी हो. यदि व्यवस्था की जड़ पर प्रहार की रणनीति बनाई जाती तो कुछ बदलाव की उम्मीद की भी जा सकती थी. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव पर जनता का भरोसा है. इसमें संदेह नहीं लेकिन वे इसी व्यवस्था में थोड़े बहुत सुधार की बात कर रहे हैं इससे कोई बात बन्ने वाली नहीं.
अब जरा अपने आसपास के किसी निम्न मध्यवर्गीय परिवार पर निगाह डालें.बच्चे के जन्म से लेकर बूढ़े की मृत्यु तक रीति-रिवाजों, पर्व त्योहारों की एक लंबी फेहरिश्त उसके सामने होती है. हर मौके के लिए उसे धन का संग्रह करना होता है. यह धन मासिक वेतन से जुटाना मुश्किल होता है. इसे पूरा करने के लिए वह टेबुल के नीचे की संभावनावों की ताक में रहता है. यह निचले स्तर के भ्रष्टाचार की भूमिका तैयार करता है.यह तमाम सामाजिक आयोजन उस ज़माने में सृजित किये गए थे जब भारत सोने की चिड़िया हुआ करता था. वह सामंती व्यवस्था का दौर था जिसकी कुछ खामियां थीं तो कुछ खूबियां भी थीं. उस ज़माने में सामूहिकता की भावना बहुत गहरी थी. किसी गरीब की बेटी की शादी हो रही हो तो बारात का बेहतर ढंग से स्वागत करना पूरे गांव की प्रतिष्ठा का मामला होता था. उस गांव का हर परिवार अपनी हैसियत के मुताबिक संबंधित परिवार की मदद करता था. कहीं कोई कमी नहीं होने दी जाती थी. तमाम पर्व त्यौहार और सामाजिक आयोजन गांव की शान दिखाने का अवसर होते थे. महंगे और खर्चीले होने के बावजूद यह किसी व्यक्ति या परिवार पर बोझ नहीं होते थे. आज के समाज में सामूहिकता की भावना का पूरी तरह लोप हो चुका है. अब बेटी की शादी किसी गांव, टोले या मोहल्ले की प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनती, यह संबंधित परिवार की अपनी जिम्मेवारी, अपनी हैसियत की बात होती है. जाहिर है कि बेटी का बाप अपना पेट काट-काटकर दहेज़ के पैसे जुटाएगा. लेकिन सरकारी तंत्र यदि उसे ठीक से पेट भरने की भी इजाजत नहीं देगा तो वह धन के आगमन के गैरकानूनी रास्तों की तलाश करेगा. उसकी यह ज़रूरत भी काले धन से ही पूरी होगी, समृद्ध घरानों में भी आयकर जमा कर जुटाई गई रकम इन मौकों के लिए नहीं होती. शायद ही कोई करदाता सामाजिक प्रयोजनों के खर्च को अपने रिटर्न में दर्शाता हो. यानी राजनैतिक ही नहीं सामाजिक व्यवस्था भी काले धन के ही बुनियाद पर खड़ी है. पूंजीवादी लोकतंत्र की इस महाव्याधि को अब दवा की नहीं शल्य चिकित्सा की दरकार है. एक नई शासन व्यवस्था की ज़रूरत है. उसका स्वरूप जनमुखी हो. यदि व्यवस्था की जड़ पर प्रहार की रणनीति बनाई जाती तो कुछ बदलाव की उम्मीद की भी जा सकती थी. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव पर जनता का भरोसा है. इसमें संदेह नहीं लेकिन वे इसी व्यवस्था में थोड़े बहुत सुधार की बात कर रहे हैं इससे कोई बात बन्ने वाली नहीं.
----देवेंद्र गौतम
1 comments:
यह समझ ले इंसान
तो सारी समस्या ही समाप्त समझिए !
आपका लेख शोधपूर्ण है ।
आपका स्वागत है HBFI में ।ूर्ण है ।
आपका स्वागत है HBFI में ।
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