शीर्षक की सार्थकता रखते हुए पहले "आम आदमी" की बात कर लें। "आम" एक स्वादिष्ट, मँहगा और मौसमी फल है, जिसकी आमद बाढ़ की तरह साल में एक ही बार होती है। मजे की बात है कि आम चाहे जितना भी कीमती क्यों न हो, अगर वह किसी भी शब्द के साथ जुड़ जाय तो उसका भाव गिरा देता है। मसलन- आम आदमी, आम बात, आम घटना, दरबारे आम, आम चुनाव इत्यादि। अंततः हम सभी "आम आदमी" की भौतिक उपस्थिति और उनको मिलने वाले "पंचबर्षीय सम्मान" से पूर्णतः अवगत हैं।
मैं भी उन कुछ सौभाग्यशाली लोगों में से हूँ जिसका जन्म कोसी प्रभावित क्षेत्र में हुआ है। एक लघुकथा की चर्चा किए बिना बात नहीं बनेगी। बाढ़ के समय आकाश से खाद्य - सामग्री के पैकेट गिराए जाते हैं और प्रभावित आम आदमी और उनके बच्चे उसे लूटकर खूब मजे से खाते हैं, क्योंकि आम दिनों में तो गरीबी के कारण इतना भी मयस्सर नहीं होता। बाढ़ का पानी कुछ ही दिनों में नीचे चला जाता है और आकाश से पैकेट का गिरना बंद। तब एक मासूम बच्चा अपनी माँ से बड़ी मासूमियत से सवाल पूछता है कि - " माँ बाढ़ फिर कब आएगी"? अपने आप में असीम दर्द समेटे यह लघुकथा समाप्त। लेकिन बच्चों का अपना मनोविज्ञान होता है और वह पुनः बाढ़ की अपेक्षा करता है एक सुख की कामना के साथ।
मौसम में "सावन-भादों" का अपना एक अलग महत्व है। दंतकथा के अनुसार अकबर भी बीरबल से सवाल करता है कि - एक साल में कितने महीने होते हैं? तो बीरबल उत्तर देता है - दो, यानि सावन-भादो, क्योंकि पूरे साल इसी दो महीनों की बारिश की वजह से फसलें होतीं हैं। बहुत पहले एक फिल्म आयी थी "सावन-भादों" और उससे उत्पन्न दो फिल्मी कलाकार नवीन निश्छल और रेखा आज भी कमा खा रहे हैं। कभी आपने सुल्तानगंज से देवघर की यात्रा की है? यदि हाँ तो जरूर सुना होगा कि इस एक सौ बीस किलोमीटर की दूरी में बसनेवाले "आम आदमी" मात्र दो महीने अर्थात "सावन- भादो" की कमाई पर ही साल भर गुजारा करते है।
ठीक इसी तरह "कोसी परियोजना" या फिर "बाढ़ नियंत्रण विभाग", "जल-संसाधन विभाग" आदि से जुड़े "सरकारी" लोगों के लिए "सावन-भादों" का अपना महत्व है और उससे उत्पन्न सुख से उनका साल भर बिना "नियमित वेतन" को छुए, बड़े मजे से गुजारा चलता है। यदि बाढ़ आ जाए तो फिर क्या कहने?
भारत भी अजब "राष्ट्र" है जिसके अन्दर "महाराष्ट्र" जैसा राज्य है। ठीक उसी तरह बिहार राज्य के अन्दर एक ही जगह का नाम "बाढ़" है और "बाढ़" को छोड़कर कई जगहों में हर साल बाढ़ आती है। जहाँ पीने के पानी के लिए लोग हमेशा तरसते हैं, वहाँ के लोग आज "पानी-पानी" हो गए है और "रहिमन पानी राखिये" वाली बात को यदि ध्यान में रखें तो प्रभावित लोगों का आज "पानी" ख़तम हो रहा है।
बाढ़ के साथ कई प्रकार के सुख का आगमन स्वतः होता है। जैसे बाँध को टूटने से बचाने के लिए उपयोग लाये जानेवाले बोल्डर, सीमेंट का भौतिक उपयोग चाहे हो या न हो लेकिन खाता-बही इस चतुराई से तैयार किए जाते हैं कि किसी जाँच कमीशन की क्या मजाल जो कोई खोट निकाल दे? रही बात राहत- पुनर्वास के फर्जी रिहर्सल की, वो भी बदस्तूर चलता रहता है। मजे की बात है कि पिछले साल के लाखों बाढ़ प्रभावित लोगों को आज भी राहत पुनर्वास का इन्तजार है।
न्यूज चैनल वालों का भी "सबसे पहले पहुँचने" का एक अलग सुख है। डूबते हुए लोगों से पूछना - आप कैसा महसूस कर रहे हैं? आदि बेतुके और चिरचिराने वाले सवालों का, वीभत्स और अन्दर तक झकझोरने वाले दृश्यों को बार-बार दिखलाने का, राहत पुर्वास के नाम पर नेताओं के बीच नकली "मीडियाई युद्ध" कराने का भी आनंद ये लोग खूब उठाते हैं।
"कटा के अंगुली शहीदों में नाम करते हैं" वाली कहावत यहाँ साक्षात चरितार्थ होती है। "थोडी राहत - थोड़ा दान, महिमा का हो ढ़ेर बखान" - ऐसा दृश्य भी काफी देखने को मिलता है। एक से एक "आम जनता" के तथाकथित "शुभचिंतक" कहाँ से आ जाते हैं, राजनैतिक रोटी सकने के लिए कि क्या कहूँ? बाढ़ के कारण चाहे लाखों एकड़ की फसलें क्यों न बर्बाद हो गईं हों, लेकिन राजनितिक "फसल" लहलहा उठते हैं। राजनीतिज्ञों के "हवाई-सर्वेक्षण" का अपना सुख है। ऊंचाई से देखते हैं कि "आम आदमी कितने पानी" में है? और आकाश से ही तय होता है कि अगले पाँच बरस तक आम आदमी की "भलाई" कौन करेगा।
निष्कर्ष यह कि "आम" और "बाढ़" दोनों राष्ट्रीय धरोहर हैं - एक राष्ट्रीय फल तो एक राष्ट्रीय आपदा। जय-हिंद।।
2 comments:
निष्कर्ष यह कि "आम" और "बाढ़" दोनों राष्ट्रीय धरोहर हैं - एक राष्ट्रीय फल तो एक राष्ट्रीय आपदा। जय-हिंद।।
bahut rang samete hain aapne is post me .fir bhi shyamal ji main yahi kahoongi ki zindgi jo hai aam aadmi ki hi hai khas to apne dayron me hi kaid panchhi ki tarah hain.
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