हिंदी दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय में आज (28 January 2011) दारूल उलूम देवबंद में चल रहे संघर्ष का विश्लेषण किया गया है। संपादक महोदय की संवेदनाओं को मोहतमिम मौलाना गुलाम मुहम्मद वस्तानवी साहब के साथ देखकर अच्छा लगा। उन्होंने उनके व्यक्तित्व की भी तारीफ़ की और उनकी उन घोषणाओं की भी जिनमें उन्होंने कहा है कि वे मदरसे के पाठ्यक्रम में विज्ञान, इंजीनियरी और चिकित्सा आदि भी शामिल करेंगे। इन घोषणाओं को संपादक महोदय ने उदारवादी और सुधारवादी क़रार दिया जो कि वास्तव में हैं भी और मौलाना वस्तानवी का विरोध करने वालों को उन्होंने पुरातनपंथी और कट्टरवादी क़रार दे दिया और निष्कर्ष यह निकाला कि दारूल उलूम देवबंद में जो संघर्ष फ़िलहाल चल रहा है वह वास्तव में पुरातनपंथियों और सुधारवादियों के बीच चल रहा है।
यह निष्कर्ष सरासर ग़लत है। जो लोग मौलाना वस्तानवी का विरोध कर रहे हैं वे पुरातनपंथी और कट्टर (बुरे अर्थों में) हरगिज़ नहीं हैं। उन्होंने भी दारूल उलूम देवबंद के पाठ्यक्रम में कम्प्यूटर और हिंदी व गणित आदि विषय शामिल किए हैं और हिंदी की भी वही किताब वहां पढ़ाई जाती है जो कि बाज़ार में सामान्य रूप से उपलब्ध है, जिसमें कि राम, सीता और हनुमान की कहानियां लिखी हुई हैं। अगर वे सामान्य अर्थों में कट्टर और पुरातनपंथी होते तो वे ऐसा हरगिज़ न करते या कम से कम वे हिंदी की ऐसी किताब तो चुन ही सकते थे जिसमें कि रामायण की कहानी के बजाय मुसलमान बुजुर्गों के क़िस्से होते। किसी चीज़ को देखे बिना महज़ लिखित सूचनाओं के आधार पर जब निष्कर्ष निकाला जाता है तो वे निष्कर्ष इसी तरह ग़लत होते हैं जैसे कि आज के संपादकीय में निकाला गया है।
जो लोग देवबंद में रहते हैं वे जानते हैं कि देवबंद का एक आलिम घराना संघर्ष का इतिहास रखता है। वह दूसरों से भी लड़ता है और खुद अपनों से भी। उसकी लड़ाई का मक़सद कभी मुसलमानों का व्यापक हित नहीं होता बल्कि यह होता है कि ताक़त की इस कुर्सी पर वह नहीं बल्कि मैं बैठूंगा। वर्तमान संघर्ष के पीछे भी असली वजह कट्टरता और पुरानी सोच नहीं है बल्कि अपनी ताक़त और अपने रूतबे को बनाए रखने की चाहत है। यह संघर्ष पुरातनपंथी सोच और उदारवादी सोच के बीच नहीं है बल्कि दरअस्ल यह संघर्ष दो ऐसे लोगों के दरम्यान है जिनमें से एक आदमी मौलाना वस्तानवी हैं जो मुसलमानों और देशवासियों के व्यापक हितों के लिए सोचते हैं और दूसरा आदमी महज़ अपने कुनबे के हितों के लिए। यह संघर्ष परोपकारी धार्मिक सोच और खुदग़र्ज़ परिवारवादी सोच के दरम्यान है। परिवारवादी खुदग़र्ज़ो के साथ भी वही लोग हैं जो कि उन्हीं जैसे हैं, जिनके लिए इस्लाम और इंसाफ़ के बजाय अपने निजी हित ज़्यादा अहम हैं। ये लोग अक्सर इस्लाम के नाम पर पहले अपने पीछे मुसलमानों की भीड़ इकठ्ठी करते हैं और फिर सियासत के धंधेबाज़ों से उन्हें दिखाकर क़ीमत वसूल करके अपने घर को महल में तब्दील करते रहते हैं और बेचारे मुसलमानों का कोई एक भी मसला ये कभी हल नहीं करते। मुसलमान सोचता है कि ये रहबरी कर रहे हैं जबकि ये रहज़नी कर रहे होते हैं। मुसलमानों की दशा में लगातार बिगाड़ आते चले जाने के असल ज़िम्मेदार यही ग़ैर-ज़िम्मेदार खुदग़र्ज़ हैं। धर्म की आड़ में ये लोग अर्से से जो धंधेबाज़ी करते आए हैं, मौलाना वस्तानवी के आने से उसे ज़बरदस्त ख़तरा पैदा हो गया है। उनका वजूद ही ख़तरे में पड़ गया है। यही वजह है कि वे मौलाना वस्तानवी का विरोध कर रहे हैं और इसके लिए छात्रों को अपना मोहरा बना रहे हैं। वे नहीं चाहते कि दारूल उलूम देवबंद में कोई ऐसा ढर्रा चल पड़े जिसकी वजह से मदरसे के छात्रों और आम मुसलमानों में दोस्त-दुश्मन और रहबर और रहज़न की तमीज़ पैदा हो जाए और उनके लिए अपनी ग़र्ज़ के लिए उनका इस्तेमाल करना मुश्किल हो जाए।
यही असल वजह है दारूल उलूम देवबंद में जारी मौजूदा संघर्ष की। इस संघर्ष को इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए और उम्मीद करनी चाहिए कि मौलाना वस्तानवी इसमें विजयी रहेंगे क्योंकि एक तो वजह यह है कि उम्मीद हमेशा अच्छी ही रखनी चाहिए और दूसरी बात यह है कि गुजरात के मुसलमान आर्थिक रूप से बहुत मज़बूत हैं और वे आर्थिक रूप से दारूल उलूम देवबंद की बहुत इमदाद करते हैं। उन्हें नज़रअंदाज़ करना या उनके साथ धौंसबाज़ी करना आसान नहीं है, ख़ासकर तब जबकि वे अपने विरोधी की नीयत को भी पहचान चुके हों कि उनके विरोधी की नीयत इस्लाम का हित नहीं है बल्कि खुद अपना निजी हित है। देवबंद की जनता और मीडिया के समर्थन ने भी मौलाना वस्तानवी के विरोधियों की हिम्मत को पस्त करना शुरू कर दिया है। दारूल उलूम देवबंद में बेहतर तब्दीली के लिए मीडिया एक बेहतर रोल अदा कर सकता है और उसे करना भी चाहिए क्योंकि मुसलमानों के साथ साथ अन्य देशवासियों के हित में भी यही है।
हमने  28 जनवरी 2011 को यह लेख लिखा था और जिन चाचा भतीजा को ज़िम्मेदार माना था  इस पूरे हंगामेबाज़ी का। मौलाना वस्तानवी ने भी अपने हटाए जाने के बाद अब  खुलकर कहा है कि उन्हें हटाने के पीछे मदनी ख़ानदान का हाथ है। 
जिस तरह राजनीति के मैदान में भ्रष्ट तत्वों ने क़ब्ज़ा जमा लिया है, ठीक ऐसे ही बहुत से भ्रष्ट तत्वों ने इस्लाम की तालीम देने वाले मदरसों को अपने निजी रूतबे को ऊंचा करने के लिए क़ब्ज़ा लिया है। राहबरी के रूप में राहज़नी करना इसी को कहा जाता है।
ये राहज़न जब कभी बयान या फ़तवा देते हैं तो वह भी इस्लाम की कल्याणकारी भावना को सामने रखकर नहीं देते बल्कि यह देखकर देते हैं कि उसमें इन्हें क्या मिल रहा है। जब समूह का लीडर समूह की हितचिंता छोड़ देता है तो फिर वह समूह पिछड़ता चला जाता है। मुसलमानों के साथ आज यही हो रहा है।
जब मुसलमान सोचता है कि वह अन्य समूहों से पिछड़ क्यों रहा है तो ‘मौलाना‘ के भेस में छिपे हुए ये राहज़न बताते हैं कि यह हिन्दुस्तान है यहां हिन्दू तुम्हारे साथ भेदभाव कर रहे हैं। इसीलिए तुम पिछड़ रहे हो।
इसके बाद ये राहज़न अपनी तरफ़ से ध्यान हटाने के लिए मुसलमानों को हिन्दुओं से भिड़ा डालते हैं, कभी आरक्षण दिलाने के नाम पर और कभी किसी और नाम पर लेकिन यह कभी क़ुबूल नहीं करते कि इस्लाम में एकता के ऊपर ज़ोर दिया है, उसे तोड़ने वाले हम हैं। इस्लाम ने सामूहिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिए ज़कात-ख़ैरात की व्यवस्था की है, उस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने वाले हम हैं और ‘मुस्लिम बैंकों‘ के रूप में मुसलमानों के धन पर सरकारी बैंकों से सूद खाने वाले भी हम ही हैं, जबकि इस्लाम में सूद-ब्याज खाना हराम है।
जब ऐसे लोग इस्लाम की नुमाइंदगी करते हैं तो फिर इस्लाम का सही पैग़ाम मुसलमानों तक ही सही नहीं पहुंच पाता तो ग़ैर-मुस्लिमों तक सही कैसे पहुंच सकता है ?
इस्लाम के बारे में ग़लतफ़हमियां फैलने की बड़ी वजहों में से एक वजह यह भी है।
इस सबके बावजूद अच्छी बात यह है कि लोग लगातार जागरूक हो रहे हैं और इन तत्वों के लिए यह बात सबसे बड़ी चिंता है। लोगों को जागरूकता से दूर रखने के लिए भी ये लोग सिर्फ़ इसीलिए कोशिश करते हैं ताकि इनकी साज़िशें बेनक़ाब न हो जाएं जबकि इस्लाम चाहता है कि लोग क़ुरआन को भी मानें तो उसे पढ़कर और सोच-समझकर मानें।
ऐसे लोग कब तक मुस्लिम समुदाय के नेतृत्व पद पर अपना क़ब्ज़ा जबरन बनाए रखते हैं ?
यह आने वाला समय ही बताएगा लेकिन हक़ीक़त यह है कि अगर मुस्लिम समुदाय पाखंडियों को ‘नो मोर‘ कर दे तो न सिर्फ़ उसके बहुत से मसले ख़तम हो जाएंगे बल्कि हमारे देश और दुनिया में बसने वाले दूसरे भाईयों की भी बहुत सी चिंताएं दूर हो जाएंगी।
जिस तरह राजनीति के मैदान में भ्रष्ट तत्वों ने क़ब्ज़ा जमा लिया है, ठीक ऐसे ही बहुत से भ्रष्ट तत्वों ने इस्लाम की तालीम देने वाले मदरसों को अपने निजी रूतबे को ऊंचा करने के लिए क़ब्ज़ा लिया है। राहबरी के रूप में राहज़नी करना इसी को कहा जाता है।
ये राहज़न जब कभी बयान या फ़तवा देते हैं तो वह भी इस्लाम की कल्याणकारी भावना को सामने रखकर नहीं देते बल्कि यह देखकर देते हैं कि उसमें इन्हें क्या मिल रहा है। जब समूह का लीडर समूह की हितचिंता छोड़ देता है तो फिर वह समूह पिछड़ता चला जाता है। मुसलमानों के साथ आज यही हो रहा है।
जब मुसलमान सोचता है कि वह अन्य समूहों से पिछड़ क्यों रहा है तो ‘मौलाना‘ के भेस में छिपे हुए ये राहज़न बताते हैं कि यह हिन्दुस्तान है यहां हिन्दू तुम्हारे साथ भेदभाव कर रहे हैं। इसीलिए तुम पिछड़ रहे हो।
इसके बाद ये राहज़न अपनी तरफ़ से ध्यान हटाने के लिए मुसलमानों को हिन्दुओं से भिड़ा डालते हैं, कभी आरक्षण दिलाने के नाम पर और कभी किसी और नाम पर लेकिन यह कभी क़ुबूल नहीं करते कि इस्लाम में एकता के ऊपर ज़ोर दिया है, उसे तोड़ने वाले हम हैं। इस्लाम ने सामूहिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिए ज़कात-ख़ैरात की व्यवस्था की है, उस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने वाले हम हैं और ‘मुस्लिम बैंकों‘ के रूप में मुसलमानों के धन पर सरकारी बैंकों से सूद खाने वाले भी हम ही हैं, जबकि इस्लाम में सूद-ब्याज खाना हराम है।
जब ऐसे लोग इस्लाम की नुमाइंदगी करते हैं तो फिर इस्लाम का सही पैग़ाम मुसलमानों तक ही सही नहीं पहुंच पाता तो ग़ैर-मुस्लिमों तक सही कैसे पहुंच सकता है ?
इस्लाम के बारे में ग़लतफ़हमियां फैलने की बड़ी वजहों में से एक वजह यह भी है।
इस सबके बावजूद अच्छी बात यह है कि लोग लगातार जागरूक हो रहे हैं और इन तत्वों के लिए यह बात सबसे बड़ी चिंता है। लोगों को जागरूकता से दूर रखने के लिए भी ये लोग सिर्फ़ इसीलिए कोशिश करते हैं ताकि इनकी साज़िशें बेनक़ाब न हो जाएं जबकि इस्लाम चाहता है कि लोग क़ुरआन को भी मानें तो उसे पढ़कर और सोच-समझकर मानें।
ऐसे लोग कब तक मुस्लिम समुदाय के नेतृत्व पद पर अपना क़ब्ज़ा जबरन बनाए रखते हैं ?
यह आने वाला समय ही बताएगा लेकिन हक़ीक़त यह है कि अगर मुस्लिम समुदाय पाखंडियों को ‘नो मोर‘ कर दे तो न सिर्फ़ उसके बहुत से मसले ख़तम हो जाएंगे बल्कि हमारे देश और दुनिया में बसने वाले दूसरे भाईयों की भी बहुत सी चिंताएं दूर हो जाएंगी।

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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