अभी हाल ही में एक शोध में यह बात सामने आई है कि लोग अब चीज़ों को अपने दिमाग़ में याद रखने के बजाय गूगल के भरोसे रहने लगे हैं। वे चीज़ों को याद रखने की आदत खोते जा रहे हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि जब ज़रूरत होगी तो गूगल या किसी भी सर्च इंजन के ज़रिये उसे आसानी से खोज लेंगे। कंप्यूटर क्रांति का यह एक काला पक्ष है। नए ब्लॉगर्स के सामने सर्च इंजन और कंप्यूटर के ये नकारात्म पक्ष भी रहने चाहिएं। प्रस्तुत लेख इन्हीं बातों को रेखांकित करता है :
यह सवाल अक्सर पूछा जाता है, ‘कितनी मेमोरी है?’ लेकिन यह स्मृति या मेमोरी इंसान की नहीं, कंप्यूटर की, पेन ड्राइव की और मोबाइल की होती है, जिनमें हम ढेरों सूचनाएं, संगीत, फिल्में और न जाने क्या-क्या भरकर रखते हैं। लेकिन इन सबसे हमारी स्मृति का क्या हो रहा है? शोधकर्ताओं का कहना है कि स्मृति के इतने सारे साधन हमारी अपनी स्मृति को नष्ट कर रहे हैं। जब हमें यह मालूम होता है कि अमुक चीज हमारे कंप्यूटर की मेमोरी में सुरक्षित है, तो हम उसे याद रखने की कोशिश नहीं करते। दिमाग सहज रूप से उन्हीं चीजों पर ध्यान देता है और उन्हें ही याद रखता है, जिनके बारे में यह जानकारी होती है कि वे चीजें किसी और स्मृति में सुरक्षित नहीं हैं। शुरू में जब जानकारी या ज्ञान को सुरक्षित करने के कोई साधन नहीं थे, तब लोगों ने याद करने के तरीके अपनाए। फिर लिपि का आविष्कार हुआ और लिखना व संग्रह करना आसान हुआ, तो याद रखने का सिलसिला कम हुआ। लेकिन आदिम काल से स्मृति के साथ एक परिघटना और जुड़ी होती है, जिसे ‘ट्रांजेक्शनल’ या विनिमय स्मृति कहते हैं, यानी एक परिवार या समूह में रहने वाले लोग स्वाभाविक रूप से याद रखने वाली बातों को बांट लेते हैं। कोई व्यक्ति कुछ चीज याद रखता है, कोई व्यक्ति दूसरी चीज, क्योंकि उन्हें मालूम है कि वक्त आने पर दूसरे से पूछ लिया जाएगा। मां जानती है कि बेटे को याद है कि 40 सेंटीमीटर के कितने इंच होते हैं और बेटा जानता है कि मां को याद है कि उसकी नई जीन्स कहां रखी है। पिता क्रिकेट मैच की तारीखों के लिए बेटे पर निर्भर रहते हैं और बेटा जानता है कि पिता को याद होगा कि स्कूल की फीस कब जमा करनी है। लेकिन कंप्यूटर और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक साधनों ने बात कुछ आगे बढ़ा दी है, क्योंकि स्मृति हमारा ऐसा भंडार है, जिसकी सहायता से हम ज्यादा रचनाशील, ज्यादा कुशल और तेज होते हैं। जैसे कोई क्रिकेट खिलाड़ी खेल के बीच अपने कोच के पास सलाह लेने नहीं जा सकता, वैसे ही हम हर वक्त कंप्यूटर के पास नहीं दौड़ सकते।
जो भी साधन हमने बनाए हैं, वे हमारी बेहतरी के लिए हैं, हमें कमजोर बनाने के लिए नहीं। एक विख्यात लेखक का वैज्ञानिक उपन्यास है, जिसमें सुदूर भविष्य में कहीं दूसरे ग्रह से आकर लोग धरती के सारे वैज्ञानिक उपकरणों को बेकार कर देते हैं, और इस तरह धरतीवासियों के गुलाम बनने का खतरा सामने आ जाता है। तब धरती को जो व्यक्ति बचाता है, वह अकेला ऐसा है, जो जबानी जोड़-गुणा-भाग वगैरा कर सकता है, वह इस कौशल के सहारे सारे उपकरणों को चला देता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि हमारे वक्त में ओलंपिक में दौड़-कूद के जो विश्व रिकॉर्ड हैं, उतनी तेज दौड़ना या कूदना कुछ शताब्दियों पहले आम बात थी। प्रसिद्ध नृवंशशास्त्री क्लॉड लेवी स्ट्रास ने लिखा है कि अभी-अभी तक कुछ ऐसी आदिवासी जातियां थीं, जो दिन में तारे देख सकती थीं। हवाई जहाजों और रेडियो-टेलीस्कोप के जमाने में ऐसी शारीरिक क्षमताओं की कमी उतनी अखरती नहीं है, लेकिन हमारी स्मृति भी कंप्यूटर के हवाले हो जाए, यह तो ठीक नहीं। कुछ ही वक्त पहले याददाश्त पर इतना जोर दिया जाता था कि यह डर होने लगा था कि कहीं यह जोर रचनाशीलता को कुंद न कर दे। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने तब शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि शिक्षा का उद्देश्य बच्चों के दिमाग में जानकारी ठूंसना नहीं है। जानकारी तो पुस्तकालयों में है, उन्हें पुस्तकालयों का उपयोग सिखाना चाहिए। एक शताब्दी के भीतर ऐसी स्थिति आ गई कि हम स्मृति के खत्म होने की आशंका जताने लगे हैं।Source : http://www.livehindustan.com/home/detailpage.php?menuvalue=0&pagevalue=&storyvalue=181007&categoryvalue=116&SubCat=
2 comments:
इसके अतिरिक्त इंटरनेट की आदत परिवारों के संवेदनात्मक और भावनात्मक संतुलन को भी बिगाड़ रही है. स्नायु और तंत्रिका रोग बढ़ रहे हैं.
आपकी प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो हमारा भी प्रयास सफल होगा!
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