जहांगीर के शासन काल में झारखंड में  एक राजा दुर्जन सिंह थे. वे हीरे के जबरदस्त पारखी हुआ करते थे. वे नदी की गहराई में पत्थर चुनने के लिए गोताखोरों को भेजते थे और उनमें से हीरा पहचान कर अलग कर लेते थे. एक बार मुग़ल सेना ने उनका राजपाट छीनकर उन्हें कैद कर लिया. जहांगीर हीरे का बहुत शौक़ीन था. एक दिन की बात है.  उसके दरबार में एक जौहरी दो हीरे लेकर आया. उसने कहा कि इनमें एक असली है एक नकली. क्या उसके दरबार में कोई है जो असली नकली की पहचान कर ले. कई दरबारियों ने कोशिश की लेकिन विफल रहे. तभी एक दरबारी ने बताया कि कैदखाने में झारखंड का राजा दुर्जन सिंह हैं. उन्हें हीरे की पहचान है. वे बता देंगे. जहांगीर के आदेश पर तुरंत उन्हें दरबार में बुलाया गया. उनहोंने हीरे को देखते ही बता दिया कि कौन असली है कौन नकली. जहांगीर ने साबित करने को कहा. उनहोंने दो भेड़ मंगाए एक के सिंघ पर नकली हीरा बांधा और दूसरे के सिंघ पर असली दोनों को अलग-अलग रंग के कपडे से बांध दिया. फिर दोनों को लड़ाया गया. नकली हीरा टूट गया. असली यथावत रहा. दरबार की इज्ज़त बच गयी. जहांगीर इतना खुश हुआ कि दुर्जन सिंह तो तुरंत रिहा कर उसका राजपाट वापस लौटा दिया.
यह कहानी इसलिए याद आ गयी कि केंद्रीय खान मंत्रालय देश के विभिन्न राज्यों में हीरे और सोने की बंद पड़ी खदानों में उत्खनन के लिए निजी क्षेत्र के निवेशकों को प्रोत्साहित करने पर गंभीरता से विचार कर रहा है. झारखंड में हीरा भी है और सोना भी लेकिन खान मंत्रालय की इस योजना का लाभ  इस सूबे को मिलने की संभावना नहीं के बराबर है. इसका कारण है इसके व्यावसायिक उत्पादन की अल्प संभावना. जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया ने अपने सर्वेक्षण में सिंहभूम, गुमला, लोहरदगा आदि जिलों में कई जगहों पर सोने और हीरे  की उपलब्धता के संकेत दिए हैं. विभिन्न कालखंडों में इन स्थलों पर उत्खनन के प्रयास भी किये गए हैं लेकिन अलाभकारी पाए जाने के कारण अभी तक व्यावसायिक स्तर पर उत्खनन नहीं किया जा सका. स्थानीय ग्रामीणों द्वारा अल्प मात्रा में इन्हें चुनकर कर औने-पौने भाव में बेच देने का सिलसिला जरूर चलता रहा है. भूतत्ववेत्ता डा.नीतीश प्रियदर्शी के मुताबिक स्वर्णरेखा, संजई कोयल आदि नदियों की रेत में स्वर्णकण और हीरे मिलते हैं लेकिन उसकी मात्रा इतनी कम है कि व्यावसायिक स्तर पर इसे निकालना घाटे का सौदा होगा. 1913 से 1919 के बीच मनमोहन मिनिरल  उद्योग ने सिंहभूम के पोटका ब्लॉक के कुंडरकोचा में करीब 50 एकड़ में फैले निजी क्षेत्र के प्रथम स्वर्ण खदान में 30 मीटर तक खुदाई की थी लेकिन अंततः उसने अपने हाथ खींच लिए थे.  
           वर्ष 2003 में झारखंड सरकार ने स्वर्ण खनन क्षेत्र की विश्व विख्यात कंपनी डीवियर्स को स्वर्ण और हीरक उत्खनन का जिम्मा दिया था लेकिन कंपनी के सर्वे की रिपोर्ट निराशाजनक रही. इसके बाद उसने अपने हांथ खींच लिए. डा. प्रियदर्शी ने सरकार को सुझाव दिया है कि सोने और हीरे के कण एकत्र करने के काम में स्थानीय ग्रामीणों की सोसाइटी को लगाया जाये और उन्हें इसकी वाजिब कीमत दिलाने की व्यवस्था की जाये तो यह स्वरोजगार का एक माध्यम बन सकता है. अभी तो सबसे बड़ी समस्या विधि-व्यवस्था की है. जिन इलाकों में इनकी उपलब्धता है वहां माओवादियों का दबदबा है. कोई निजी कंपनी उन इलाकों में काम करने के लिए शायद ही तैयार हो.
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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