हिंदी ब्लॉगिंग के सामने संकट का एक सच्चा विश्लेषण Blogger's Analysis & Welcome 2013


हिंदी ब्लॉगिंग का एक साल और गुज़र गया लेकिन  फिर भी 10 साल पूरे नहीं हुए। इसके बावजूद हिंदी ब्लॉगिंग के 10 वर्षीय उत्सव मना डाले गए। हिंदी ब्लॉगिंग की इस प्री-मेच्योर डिलीवरी या भ्रूण हत्या को पूरे ब्लॉग जगत ने देखा और सराहा। संवेदनशील काव्यकारों और बुद्धिकारों ने इसमें सक्रिय सहयोग दिया और बदले में सम्मान आदि पाया। इसमें जो ख़र्च आया, उसे भी सहर्ष स्वीकार किया गया और यह परंपरा आगे भी जारी रहे, इसके लिए वे प्रयासरत हैं। इस तरह नाम और शोहरत के ग्राहकों और सप्लायरों ने हिंदी ब्लॉगिंग का व्यापारीकरण कर दिया। यह एक दुखद घटना है और इससे भी ज़्यादा दुखद यह है कि सब कुछ जानते हुए भी लोग बाग डरे हुए हैं और टुकुर टुकुर चुपचाप देख रहे हैं। किसी को आगे सम्मान की इच्छा है और किसी को यह इच्छा है कि उसकी पोस्ट पर टिप्पणियां देने वाले बने रहें। इन्हीं में वे लोग हैं जो सम्मान की ख़रीद फ़रोख्त करते हैं।
हिंदी ब्लॉगिंग को नुक्सान पहुंचाने वाली दूसरी वजह गुटबाज़ी और सांप्रदायिक मानसिकता है। किसी विशेष विचारधारा वाले ब्लॉगर का हौसला पस्त करने के लिए हरसंभव तरीक़े इस्तेमाल किए गए और नतीजा कई प्रतिभाशाली ब्लॉगर के पलायन के रूप में सामने आया।
इन दो मूल कारणों से कई विकार सामने आए। मस्लन मठाधीश बनने की कोशिश की गई और इस चक्कर में मठाधीश ही आपस में टकरा कर अपना सिर फोड़ते रहे। डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और कवि आदि सभी ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।
इस चक्कर में वे ब्लॉगर पिस कर रह गए जो कि अच्छा लिखने आए थे और उन्होंने लिखा भी, लेकिन न तो वे किसी को गॉड फ़ादर बना पाए और न ही कमेंट बटोरने की कला में माहिर हो सके। इनसे बेनियाज़ (निरपेक्ष) भी वह न हो पाए क्योंकि अपनी कला का प्रदर्शन और सराहना एक साहित्यकार का पहला मक़सद होता है।
इसीलिए बहुत से हिंदी ब्लॉगर मैदान छोड़कर भाग गए। कोई चुपचाप निकल गया और ऐलान करके बता कर गया। जो भाग नहीं सकते या भाग नहीं पाए, वे अब भी जमे हुए हैं लेकिन लिखना उन्होंने भी पहले से कम कर दिया है।
कुछ नए ब्लॉगर भी मैदान में आए हैं, आते रहेंगे और जाते भी रहेंगे क्योंकि हिंदी ब्लॉगिंग से मोह भंग करने के कारण बदस्तूर मौजूद हैं और दूसरों के साथ हम इन घटनाओं के साक्षी हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि वे डरे हुए हैं और चुप हैं जबकि हम बेख़ौफ़ और बेबाक़ हैं।
हम बचाते ही रहे दीमक से अपना घर
चंद कीड़े कुर्सियों के मुल्क सारा खा गए

अल्लाह हमारा हामी व नासिर हो,
आमीन !!!

नया साल 2013 ब्लॉगर्स और ग़ैर-ब्लॉगर्स सबको मुबारक हो !

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दिल्ली गैंगरेप की शिकार लड़की की मौत से उपजे सवालों का हल

दिल्ली गैंगरेप की शिकार लड़की आज मर गई. अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब के ख़ुत्बे हमेशा मौजूदा हालात में लोगों की सही रहनुमाई करते है, डा. नदीम साहब ने बताया कि कल जुमा से पहले अपने ख़ुत्बे में उन्होंने दिल्ली गैंगरेप की शिकार लड़की के साथ हुए बर्ताव की कड़ी निंदा की. इसी के साथ उन्होंने बताया कि आजकल इस तरह के जुर्म बढ़ते जा रहे है. दिल्ली के इस वाक़ये को मीडिया ने कवरेज ज़्यादा दिया तो यह ज़्यादा हाईलाइट हो गया वर्ना इस तरह के जुर्म पहले भी हुए हैं और आइंदा भी होते रहेंगे. दरिंदों ने बेशक घिनौना जुर्म किया है लेकिन अगर कोई यह कह दे कि लड़की सर्दी की रात में 9 बजे एक लड़के के साथ क्या कर रही थी तो सब लोग उसके पीछे पड़ जाएंगे. नई तालीम पा चुकी लड़कियों में से ज़्यादातर यह चाहती हैं कि वे अपनी मर्ज़ी से छोटे कपड़े पहनें, किसी भी वक्त किसी भी लड़के के साथ अपनी मर्ज़ी से जहां चाहें वहां घूमें और उनके साथ अपनी मर्ज़ी से जो चाहें, वह करें लेकिन कोई उन्हें न रोके और उनकी मर्ज़ी के खि़लाफ़ उनके साथ कुछ न किया जा. ऐसा होना मुमकिन नहीं है. पश्चिमी मुल्क जो विकसित हैं, वहां भी बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं हालांकि वहां हिफ़ाज़त के इंतेज़ाम भी हैं और सज़ाएं भी लेकिन यह सब काफ़ी नहीं है जब तक कि समाज के लोगों में अल्लाह पर ईमान न हो और उसकी मुक़र्रर की गई हदों की पाबंदी न की जाए. इस सिलसिले में सूरा ए अहज़ाब की 59, 60, 61वीं आयत में उम्दा हिदायतें दी गई हैं-
ऐ नबी! अपनी पत्नि यों और अपनी बेटियों और ईमानवाली स्त्रियों से कह दो कि वे अपने ऊपर अपनी चादरों का कुछ हिस्सा लटका लिया करें। इससे इस बात की अधिक सम्भावना है कि वे पहचान ली जाएँ और सताई न जाएँ। अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है (59) यदि कपटाचारी और वे लोग जिनके दिलों में रोग है और मदीना में खलबली पैदा करनेवाली अफ़वाहें फैलाने से बाज़ न आएँ तो हम तुम्हें उनके विरुद्ध उभार खड़ा करेंगे। फिर वे उसमें तुम्हारे साथ थोड़ा ही रहने पाएँगे, (60) फिटकारे हुए होंगे। जहाँ कही पाए गए पकड़े जाएँगे और बुरी तरह जान से मारे जाएँगे (61)
लड़कियां और औरतें इन हिदायतों की पाबंदी करें तो छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं बहुत कम रह जाएंगी और तब ऐसे मुजरिमों को शहर से निकालने के अलावा दीगर सख्त सज़ाएं भी दी जाती हैं और इस तरह समाज में सबको हिफ़ाज़त और सलामती मयस्सर आ जाती है.अल्लामा तारिक़ साहब का ख़ुत्बा और क़ुरआन की ये 3 आयतें हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है. दिल्ली गैंगरेप के बाद भी नोएडा और दिल्ली के आसपास बलात्कार और बलात्कार की कोशिशों के कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं. इसका एक आसान हल यह भी है कि दुनिया के तमाम देशों को देखा जाए कि किस देश में सबसे कम बलात्कार की घटनाएं होती हैं और वहां की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक व्यवस्था क्या है ?उस व्यवस्था को अपना कर भी बलात्कार और दीगर गंभीर अपराधों से मुक्ति पाई जा सकती है.

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***कम्बल वितरण का दौर***

जैसे-जैसे ठंड बढ़ रही है , पारा गिर रहा है वैसे-वैसे कई सामाजिक संस्थानों और सरकार द्वारा कम्बल वितरण का दौर बढ़ते जा रहा है । अख़बारों में फोटो के साथ ख़बरें आ रही है कि अमुक संस्था ने इतने कम्बल बनते, फलाना ने इतने कम्बल दिए । पर ध्यान देने वाली बात ये है कि इनमे से ज्यादातर परोपकार कम और नाम कमाने और वाह-वाही लूटने का भाव ज्यादा रहता है । जो कम्बल गरीबों को दिया जाता है वह बड़ा ही निम्न कोटि का होता है और जिसे भी खरीदने की जिम्मेदारी दी जाती है वो अपने स्तर से घोटाला करने में कोई कसर नहीं छोड़ता । 200 रुपय्ये का समान लेके 600 का बिल जरुर बनवा लेता है ।

कम्बल लेने वाले लाभुक भी संस्थाओं से प्राप्त कम्बल पुनः सस्ते दर में दूकान में ही बेच देते हैं (ऐसा मेरा देखा हुआ है ) और पुनः अगली संस्था या सरकार के कम्बल वितरण कार्यक्रम का इन्तजार करने लगते हैं । जो भी हो पर फुटपाथ पे रहने वालों का फायदा तो हो ही रहा है किसी न किसी रूप में पर फिर भी न जाने कितने ही लोग इन सारी सुविधाओं से वंचित होकर किसी तरह पूष की रातें बिताने को मजबूर हैं ।
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कर्बला : लोकहित में एक ऐतिहासिक कुर्बानी का सच्चा वाक़या -S.M. Masoom


इंदौर की अर्चना जी का शुक्रिया जिन्होंने इस पोस्ट को बेहतरीन अंदाज़ मैं पढ़ा.. आप सब भी सुने.
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इमाम हुसैन की शहादत को नमन करते हुए हमारी ओर से श्रद्धांजलि…इस लेख़ के ज़रिये मैंने एक कोशिश की है  यह बताने की के धर्म कोई भी हो जब यह राजशाही , बादशाहों, नेताओं का ग़ुलाम बन जाता है तोज़ुल्म और नफरत फैलाता    है और जब यह अपनी असल शक्ल मैं रहता है तो, पैग़ाम ए मुहब्बत "अमन का पैग़ाम " बन जाता है.  …..एस0 एम0 मासूम 
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एक दिन बाद माह ए मुहर्रम का चाँद आसमान पे दिखने लगेगा. मुहर्रम इस्लामिक  कैलेंडर का पहला महीना है. लेकिन इसका स्वागत मुसलमान नम आँखों से करते हैं, खुशिया नहीं मनाते , क्योंकि इसी दिन हज़रत मुहम्मद (स.ए.व) के नवासे इमाम हुसैन (ए.स) को  एक दहशतगर्द गिरोह ने ,कर्बला मैं उनके परिवार के साथ घेर के 10 मुहर्रम 61 हिजरी को भूखा प्यासा शहीद कर दिया. 
अक्सर लोगों ने मुझसे यह सवाल किया की भाई आप कौन से मुसलमान हैं जो "अमन का पैग़ाम" ले के आये? ना आप जालिमों का साथ देते हैं, ना ही बेगुनाहों की जान लेने वाले दहशतगर्दों का साथ देते है. और हमेशा इंसानियत की बातें किया करते हैं. भाई मैं मुसलमानों के उस गिरोह से ताल्लुक रखता हूँ, जो बादशाहों के बनाए इस्लाम की जगह कुरान के बताए इस्लाम पे चलता है. और  इमाम हुसैन (ए.स) , जिसने १४०० साल पहले ज़ुल्म और आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ उठाई थी, हमारे लीडर हैं. अधिकतर मुसलमान इमाम हुसैन (अलैहिस  सलाम) को मानते हैं और उनके बताए रास्ते पे अमन और शांति फैलाते हुए, सबको साथ ले के चलते हैं.  
एक बात यहाँ कहता चलूँ की राजशाही और तानाशाही का नाम धर्म  नहीं है. और आज जो  चेहरा सभी  धर्मो का दिखाई  देता है, वो  नकली मुल्लाओं,पंडितों  और निरंकुश शासकों के बीच नापाक गठजोड़ का नतीजा है. ऐसा ही चेहरा इस्लाम का उस समय यजीद की बादशाहत मैं होने लगा था ,और उस से आज़ादी दिलवाई इमाम हुसैन (अलैहिस  सलाम) ने अपनी क़ुरबानी कर्बला मैं दे के. 
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10 मुहर्रम 61 हिजरी की  जंग ए कर्बला मैं  इमाम हुसैन की क़ुरबानी को केवल इस्लाम को मानने वाले ही नहीं सारा विश्व आज तक नहीं भुला सका है. हर साल १० मुहर्रम को मुसलमान इमाम हुसैन (अ.स) की क़ुरबानी  को याद करते हैं.  
इमाम हुसैन (अ.स) ने क़ुरबानी दे के उस इस्लाम को बचाया जिसका पैग़ाम मुहब्बत ,और शांति थी .सवाल यह पैदा होता है की इस्लाम किस से बचाया? इमाम  हुसैन  (अलैहिस  सलाम) ने सच्चा इस्लाम  बचाया ,उस दौर के ज़ालिम बादशाह यजीद से   जिसने ज़ुल्म और आतंकवाद का इस्लाम फैला  रखा था जिसको को बेनकाब करके सही इस्लाम पेश किया इमाम हुसैन(अ.स) ने.  
यह १४०० साल पहले की बात थी लेकिन आज भी वही सूरत ए हॉल दिखाई देती है. एक गिरोह , जिहाद, फतवा और इन्केलाब के नाम पे ज़ुल्म को इस्लाम बताने पे लगा हुआ है. यह आतंकवाद को पसंद करते हैं, बेगुनाह की जान का चले जाना इसके लिए कोई माने  नहीं लगता. आज भी यही इमाम हुसैन (अ.स) को मानने  वाले ,अमन और प्रेम का सदेश दिया करते हैं.  
कर्बला का युद्ध  सदगुणों के सम्मुख अवगुणों और भले लोगों से अत्याचारियों का युद्ध था. कर्बला की घटना में यज़ीद की सिर से पैर तक शस्त्रों से लैस ३० हज़ार की सेना ने इमाम हुसैन (अ) और उनके 72 वफ़ादार साथियों को घेर लिया और अन्तत: सबको तीन दिन भूखा और प्यासा शहीद कर दिया.  
हर वर्ष इस मुहर्रम के शुरू होते ही मुसलमान काले कपडे पहन के, इमाम हुसैन (ए.स) की क़ुरबानी के  वाकए(मजलिसों /शोक सभाओं)  को सुनते हैं और सब को बताते हैं कैसे इमाम हुसैन (ए.स) पे ज़ुल्म हुआ, कैसे उनके ६ महीने के बच्चे को भी प्यासा शहीद कर दिया? और ग़म मैं आंसू  बहाते हैं. मुहर्रम का महीना शुरू होते ही यह  सिलसिला शुरू हो जाता है. 
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मुहर्रम के आलम, ताज़िया के जुलूस सभी ने देखे होंगे लेकिन यह कम लोग समझ पाते हैं की यह क्या है. 
जब यजीद की फ़ौज ने १० मुहर्रम को इमाम हुसैन (ए.स) को, उनके दोस्तों और परिवार के साथ शहीद कर दिया तो उनको कैदी बना केकर्बला से शाम (सिरिया) १६०० क म  पैदल ,ले के गए.  
यह अलम और ताज़िया का जुलूस उस ग़म को याद करने के लिए निकाला  जाता है.इमाम हुसैन की  बहन हज़रत ज़ैनब (स) और इमाम हुसैन (अ) के सुपुत्र इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) को अन्य महिलाओं और बच्चों के साथ क़ैदी बनाया गया. 
ऐसे समय में शत्रु स्वंय को विजयी समझ रहा था किंतु समय बीतने के इतिहास से सिद्ध हो गया कि ऐसा नहीं था.आज उस ज़ालिम बादशाह यजीद का नाम लेने वाला कोई नहीं. लेकिन आज हुसैन (ए.स) को याद कर के , उनपे आंसू बहाने वालों की तादात बहुत है. यह वही मुसलमान हैं जो आज भी इमाम हुसैन (ए.स) की तरह अमन पसंद हैं. 
इमाम हुसैन ने एक सुंदर वास्तविकता का चित्रण किया और वह यह है कि जब भी अत्याचार व अपराध व बुराईयां मानव के समाजिक जीवन पर व्याप्त हो जाएं और अच्छाइयां और भलाइयां उपेक्षित होने लगें तो उठ खड़े होकर संघर्ष करना चाहिए और  समाज में जीवन के नये प्राण फूंकने की कोशिश करनी  चाहिए. यही काम आज भी "अमन का पैग़ाम" करने की कोशिश कर रहा है.   
१० मुहर्रम के इस दिन को जब इमाम हुसैन (अलैहिस  सलाम) का क़त्ल हुआ था आशूर भी कहा जाता है. आशूर की घटना और कर्बला का आंदोलन सदैव ही विश्व के स्वतंत्रता प्रेमियों के ध्यान का केन्द्र रहा है. 
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मुझे फख्र इस बात का होता है की मै उस देश का निवासी हूँ जिसकी खाहिश मेरे बादशाह इमाम  हुसैन (ए.स) ने की  थी. मुझे इस बात पर और भी फख्र होता है की हमारे दुसरे मज़हब के भाई भी इमाम हुसैन (अस) को वैसे ही पहचानते हैं जैसा की पहचानने का हक़ है. हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का कहना था की "मैंने  हुसैन से सीखा है अत्याचार पर विजय कैसे प्राप्त होती है. मेरा विश्वास है कि इस्लाम अपने विश्वासियों ( अनुयायों ) द्वारा तलवार के उपयोग पर निर्भर नहीं करता है बल्कि उनकी प्रगति हुसैन के बलिदान का परिणाम है". 
मुहर्रम  का  चाँद  देखते  ही , ना  सिर्फ  मुसलमानों  के  दिल  और  आँखें  ग़म  ऐ  हुसैन  से  छलक  उठती  हैं , बल्कि हिन्दुओं  की  बड़ी   बड़ी   शख्सियतें  भी  बारगाहे  हुस्सैनी  में  ख़ेराज ए अक़ीदत पेश  किये  बग़ैर  नहीं  रहतीं. 
इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम  ) ने कहा ऐ नाना, मैंने अल्लाह के दीन को आप से किये गए वादे के अनुसार कर्बला के मैदान में अपने तमाम बच्चों, साथियों और अंसारों की क़ुर्बानी देकर बचा लिया! नाना, मेरे ६ महीने के असग़र को तीन दिन की प्यास के बाद तीन फल का तीर मिला !
मेरा बेटा अकबर, जो आप का हमशक्ल था, उसके सीने में ऐसा नैज़ा मारा गया की उसका फल उसके कलेजे में ही टूट गया ! मेरी बच्ची सकीना को तमाचे मार-मार कर इस तरह से उसके कानो से बालियाँ खींची गयी के उसके कान के लौ कट गए ! नाना मैंने दिखा दिया दुनिया को अपनी क़ुरबानी देके की वो इस्लाम जो आपने दिया था ज़ुल्म और दहशतगर्दों का इस्लाम नहीं बल्कि अमन  शांति और सब्र का इस्लाम है. 
अवश्य पढ़ें हुसैन और भारत विश्वनाथ प्रसाद माथुर * लखनवी मुहर्रम , १३८३ हिजरी
दुआ करो के हमेशा मुहब्बतें बरसें,  
मुहब्बतें हैं  इबादत की कीमती गठरी
न कोई ज़ुल्म न ज़ालिम हमारे बीच रहे,
ज़मीं पे अम्न  का रुतबा हो,खुश हो हर बशरी.
इमाम हुसैन की शहादत को नमन करते हुए हमारी ओर से भी श्रद्धांजलि.
साभार 
Source : http://aqyouth.blogspot.in/2010/12/blog-post_06.html
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कसाब को फाँसी :अफसोसजनक भी सराहनीय भी

Kasab’s journey to the gallows


संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत सहित ३९ देशों ने मृत्युदंड समाप्त करने वाले प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया है और इसके ठीक एक दिन पश्चात् भारत ने अपने मंतव्य ''कानूनी मामलों के बारे में फैसला लेने का अधिकार ''के प्रति कटिबद्ध होने का सन्देश सम्पूर्ण विश्व को दे दिया है .अजमल आमिर कसाब को फाँसी दे भारत ने आतंकवाद के प्रति अपनी प्रतिरोधक शक्ति का परिचय दिया है और यह सही भी है क्योंकि सम्पूर्ण देशवासियों के लिए सुरक्षा का अहसास आतंकवाद का मुकाबला ऐसे मजबूत संकल्प द्वारा ही दिया जा सकता है अफ़सोस है तो केवल यही कि जहाँ सभ्यता निरंतर विकास की ओर बढ़ रही है वहीँ हमारी युवा शक्ति भटक रही है .
                       कसाब को हम पाकिस्तानी कहकर पृथक देश की युवा शक्ति नहीं कह सकते .भले ही डलहौजी की ''फूट डालो शासन करो'' की रणनीति का शिकार बन हमारे देश के दो टुकड़े हुए हों किन्तु भारत -पाक एक हैं ,एक ही पिता ''हिंदुस्तान '' की संतान ,जिनमे भले ही मतभेद हों किन्तु मनभेद कभी नहीं हो सकता .कसाब व् उस जैसे कितने ही युवा भटकी मानसिकता के परिचायक हैं .धार्मिक उन्माद में डूबे ये युवा दहशत गर्दी फैला रहे हैं क्यों नहीं समझते अपने धर्म के गूढ तत्व को ,जिसमे सभी से प्रेम करने की शिक्षा दी जाती है ,अन्याय अत्याचार भले ही स्वयं के साथ हो या किसी और के साथ उसका दृढ़ता से मुकाबला करने की शिक्षा दी जाती है न कि स्वयं दहशत फैला दूसरों के साथ अन्याय करने की ,और यही नहीं कि ये स्वयं भटक रहे हैं बल्कि इन्हें भटकाया जा रहा है और इनके माध्यम से अपने दिमागी फितूर को शांत करने वाले इनके आका बनकर बैठे लोग सुरक्षित शानो-शौकत की जिंदगी जी रहे हैं और फाँसी का शिकार मानसिक उलझन में डूबे हमारे ये युवा हो रहे हैं .
                अफ़सोस होता है युवा शक्ति के ऐसे इस्तेमाल और विनाश पर .हम बिलकुल नहीं चाहते युवा शक्ति का ऐसा अंत किन्तु तभी जब युवा अपनी शक्ति का प्रयोग सकारात्मक कार्यों में करें .फाँसी जैसी सजा ह्रदय विदारक है किन्तु जब युवा शक्ति यूँ भटक जाये और जिंदगी निगलने को दरिंदगी पर उतर आये तो भारत का यह कदम सही ही कहा जायेगा .इस तरह भटकी हुई युवा शक्ति के लिए मेरा तो बस यही सन्देश है-


''मुख्तलिफ  ख्यालात भले रखते हों मुल्क से बढ़कर न खुद  को समझें हम,
बेहतरी हो जिसमे अवाम की अपनी ऐसे क़दमों को बेहतर  समझें हम.

है ये चाहत तरक्की की राहें आप और हम मिलके पार करें ,
जो सुकूँ साथ मिलके चलने में इस हकीक़त को ज़रा समझें हम .

कभी हम एक साथ रहते थे ,रहते हैं आज जुदा थोड़े से ,
अपनी आपस की गलतफहमी को थोड़ी जज़्बाती  भूल  समझें हम .
                                   
देखकर आंगन में खड़ी दीवारें आयेंगें तोड़ने हमें दुश्मन ,
ऐसे दुश्मन की गहरी चालों को अपने हक में कभी न  समझें हम .

न कभी अपने हैं न अपने कभी हो सकते ,
पडोसी मुल्कों की फितरत को खुलके समझें हम .

कहे ये ''शालिनी'' मिल  बैठ मसले  सुलझा लें ,
अपने अपनों की मोहब्बत को अगर समझें हम .

         शालिनी कौशिक 
                  [ कौशल ]
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हिन्दुस्तान में सज़ा ए मौत बाक़ी रहे या इसे ख़त्म कर दिया जाए ? Kasab:Hang Till Death

इस पर एक लंबे अर्से से विचार चल रहा है। 21 नवंबर 2012 को कसाब को फांसी दिए जाने के बाद एक बार फिर यह मुददा उठाया जा सकता है। उसे फांसी दिए जाने से 2 दिन पहले ही संयुक्त महासभा कि मानवाधिकार समिति दुनिया भर में सज़ा ए मौत को ख़त्म करने का प्रस्ताव पास किया था। दुनिया के 140 देश सज़ा ए मौत ख़त्म कर चुके हैं और अब सिर्फ़ 58 देश ही यह सज़ा बाक़ी है। कोई भी फ़ैसला लेने से पहले यह देखना ज़रूरी है कि जिन देशों में फांसी की सज़ा नहीं है। उन देशों में जुर्म का ग्राफ़ नीचे के बजाय ऊपर जा रहा है । इग्लैंड के लोग तो अपना वतन ही छोड़ कर जा रहे हैं, जो जा सकते हैं और जिनके पास विकल्प है।
मौत की सज़ा बाक़ी रखने के साथ ही ऐसे इंतेज़ाम करना भी ज़रूरी है कि आदमी ग़ुरबत और ग़ुस्से में आकर ऐसे काम न करे, जिनका अंजाम फांसी हो। इसके लिए देश के नागरिकों के आर्थिक स्तर को भी ऊंचा उठाना होगा और उसे अच्छे विचारों से भी पुष्ट करना होगा। यह काम अकेले सरकार के बस का नहीं है। यह काम हरेक मां-बाप को करना होगा। यह काम हरेक स्कूल को करना होगा। यह काम हरेक एनजीओ को करना होगा। इसी के साथ यह व्यवस्था करनी होगी कि ग़रीब से ग़रीब आदमी भी अदालत से बिना कुछ ख़र्च किए न्याय पा सके। तब ऐसा होगा कि सज़ा ए मौत सिर्फ़ क़ानून की किताब में बाक़ी रह जाएगी और इसे पाने वाले लोग न के बराबर रह जाएंगे। तब कोई ग़रीब आदमी पैसा और अच्छा वकील न होने के कारण फांसी नहीं चढ़ेगा।
अगर करने के ये काम नहीं किए जाते तो फांसी बाक़ी रखी जाए या इसे ख़त्म कर दिया जाए। इसका असर हर तरह देश के ग़रीब नागरिकों को ही झेलना पड़ेगा। आज आलम यह है कि क़त्ल के मुलज़िम ज़मानत पर छूट कर गवाहों को ही क़त्ल कर देते हैं या डरा कर ख़ामोश कर देते हैं। यही वजह है कि हमारे देश में आज तक संगठित गिरोहबंद सुपारी किलर्स में से किसी एक को भी फांसी नहीं हुई।
क़स्साब को फांसी देने के बाद अब उन लोगों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए जो कि कहीं बाहर से नहीं आते बल्कि इसी देश में पैदा हुए हैं और यहीं आबाद हैं और इसी देश के लोगों को क़त्ल करते हैं और ऐसा वे लगातार करते हैं और बड़े पैमाने पर करते हैं। बाद में ये लोग राजनीति में भी आ जाते हैं। इनमें से कोई कोई तो आजीवन इलेक्शन तक नहीं लड़ता लेकिन इलाक़ाई और जातिवादी नफ़रतें फैलाकर लोगों को भड़काता रहता है और एक समुदाय के हाथ दूसरे समुदाय का ख़ून करवाता रहता है या फिर कम से कम समय समय पर दूसरे समुदाय की लुटाई-पिटाई ही करवातता रहता है।
...और अंततः मर जाता है।
आखि़रकार यहां हरेक के लिए मौत है। जो फांसी से बच जाएगा, उसके लिए भी अंत है।
यह तो समाज के सामने का सच है और एक सच वह है जो इंसान की मौत के बाद सामने आता है। भारत की आध्यात्मिक विरासत यही है कि यहां मौत के बाद के हालात को भी उतनी ही अहमितयत दी जाती है जितनी कि जीवन को। यही आध्यात्मिक सत्य ऐसा है जो कि आम आदमी को बुद्धत्व के पद तक ले जा सकता है बल्कि उससे भी आगे ले जा सकता है।
हरेक समस्या का हल मौजूद है लेकिन हमें समस्या के मूल तक पहुंचना होगा। शरीफ़ लोग जी सकें इसलिए ख़ून के प्यासे इंसाननुमा दरिंदों को मरना ही चाहिए।

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इंदिरा प्रियदर्शिनी :भारत का ध्रुवतारा

इंदिरा प्रियदर्शिनी :भारत का ध्रुवतारा 

जब ये शीर्षक मेरे मन में आया तो मन का एक कोना जो सम्पूर्ण विश्व में पुरुष सत्ता के अस्तित्व को महसूस करता है कह उठा कि यह उक्ति  तो किसी पुरुष विभूति को ही प्राप्त हो सकती है  किन्तु तभी आँखों के समक्ष प्रस्तुत हुआ वह व्यक्तित्व जिसने समस्त  विश्व में पुरुष वर्चस्व को अपनी दूरदर्शिता व् सूक्ष्म सूझ बूझ से चुनौती दे सिर झुकाने को विवश किया है .वंश बेल को बढ़ाने ,कुल का नाम रोशन करने आदि न जाने कितने ही अरमानों को पूरा करने के लिए पुत्र की ही कामना की जाती है किन्तु इंदिरा जी ऐसी पुत्री साबित हुई जिनसे न केवल एक परिवार बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र गौरवान्वित अनुभव करता है  और  इसी कारण मेरा मन उन्हें ध्रुवतारा की उपाधि से नवाज़ने का हो गया और मैंने इस पोस्ट का ये शीर्षक बना दिया क्योंकि जैसे संसार के आकाश पर ध्रुवतारा सदा चमकता रहेगा वैसे ही इंदिरा प्रियदर्शिनी  ऐसा  ध्रुवतारा थी जिनकी यशोगाथा से हमारा भारतीय आकाश सदैव दैदीप्यमान  रहेगा।
       १९ नवम्बर १९१७ को इलाहाबाद के आनंद भवन में जन्म लेने वाली इंदिरा जी के लिए श्रीमती सरोजनी नायडू जी ने एक तार भेजकर कहा था -''वह भारत की नई आत्मा है .''
       गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने उनकी शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् शांति निकेतन से विदाई के समय नेहरु जी को पत्र में लिखा था -''हमने भारी मन से इंदिरा को  विदा  किया है .वह इस स्थान की शोभा थी  .मैंने उसे निकट से देखा है  और आपने जिस प्रकार उसका लालन पालन किया है उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जा सकता .''   सन १९६२ में चीन ने विश्वासघात करके भारत  पर आक्रमण किया था तब देश  के कर्णधारों की स्वर्णदान की पुकार पर वह प्रथम भारतीय महिला थी जिन्होंने अपने समस्त पैतृक  आभूषणों को देश की बलिवेदी पर चढ़ा दिया था इन आभूषणों में न जाने कितनी ही जीवन की मधुरिम स्मृतियाँ  जुडी हुई थी और इन्हें संजोये इंदिरा जी कभी कभी प्रसन्न हो उठती थी .पाकिस्तान युद्ध के समय भी वे सैनिकों के उत्साहवर्धन हेतु युद्ध के अंतिम मोर्चों तक निर्भीक होकर गयी .
आज देश अग्नि -५ के संरक्षण  में अपने को सुरक्षित महसूस कर रहा है इसकी नीव में भी इंदिरा जी की भूमिका को हम सच्चे भारतीय ही महसूस कर सकते हैं .भूतपूर्व राष्ट्रपति और भारत में मिसाइल कार्यक्रम  के जनक डॉ.ऐ.पी.जे अब्दुल कलाम बताते हैं -''१९८३ में केबिनेट ने ४०० करोड़ की लगत वाला एकीकृत मिसाइल कार्यक्रम स्वीकृत किया .इसके बाद १९८४ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी डी.आर.डी एल .लैब  हैदराबाद में आई .हम उन्हें प्रैजन्टेशन दे रहे थे.सामने विश्व का मैप टंगा था .इंदिरा जी ने बीच में प्रेजेंटेशन रोक दिया और कहा -''कलाम !पूरब की तरफ का यह स्थान देखो .उन्होंने एक जगह पर हाथ रखा ,यहाँ तक पहुँचने वाली मिसाइल कब बना सकते हैं ?"जिस स्थान पर उन्होंने हाथ रखा था वह भारतीय सीमा से ५००० किलोमीटर दूर था .
    इस तरह की इंदिरा जी की देश प्रेम से ओत-प्रोत घटनाओं से हमारा इतिहास भरा पड़ा है और हम आज देश की सरजमीं पर उनके प्रयत्नों से किये गए सुधारों को स्वयं अनुभव करते है,उनके खून की एक एक बूँद हमारे देश को नित नई ऊँचाइयों पर पहुंचा रही है और आगे भी पहुंचती रहेगी.
                  आज का ये दिन हमारे देश के लिए पूजनीय दिवस है और इस दिन हम सभी  इंदिरा जी को श्रृद्धा  पूर्वक  नमन करते है .
              शालिनी कौशिक
           [कौशल ]

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जी हाँ, ब्लौग जगत जिंदा है अभी ...


चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ जी की पोस्ट पर हिंदूत्ववादी भाइयों का ऐतराज़ कितना जायज़ है  ?
देखिये यह पोस्ट :


जी हाँ, ब्लौग जगत जिंदा है अभी ... सुबूत के लिए ऊपर लिंक है।
आपका क्या कहना है ? 
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indian hijra (devi)

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सागर उवाच





कलम पकडने के बाद सिर्फ एक काम रह जाता है कागज काला करना।
कलम पकडना बन्दूक पकडने से ज्यादा खतरनाक हुनर है क्योकि इनकाउंटर करके बच सकते हैं मगर कलम से वार करके बचना मुकिल है। सो समहल के चलाना पडता है।लिखास और छपास के बीच संतुलन रखना बडा मुश्किल होता है इसलिए हर कुछ एक धार से कह पाना भी मुम्किन नहीं इस लिए मैंने बनाया एक नया ब्लाग सागर उवाच!  सागर उवाच माध्यम होगा गम्भीर व कठोर शब्दों को हल्के-फुल्के में कह के निकल जाने का। क्योंकि सेंसरशिप से भी सामना करना है!

एक अदद प्रतिक्रिया के इंतजार में....

http://sagaruwaach.blogspot.in/


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आज दीवाली आई भाई


जहाँ को जगमग करते जाओ,
खुशियों की सौगात है आई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

श्री कृष्ण ने सत्यभामा संग नरकासुर संहार किया,
सोलह हज़ार स्त्रियों के संग इस धरा का भी उद्धार किया ।

असुर प्रवृति के दमन का
उत्सव आज मनाओ भाई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

रक्तबीज के कृत्य से जब तीनो लोकों में त्रास हुआ,
माँ काली तब हुई अवतरित, दुष्ट का फिर  तब नाश हुआ ।

शक्ति स्वरुपा माँ काली व,
माँ लक्ष्मी को पूजो भाई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

लंका विजय, रावण मर्दन कर लखन, सिया संग राम जी आये,
अवध का घर-घर हुआ तब रोशन, सबके मन आनंद थे छाये ।

उस त्योहार में हो सम्मिलित,
बांटों, खाओ खूब मिठाई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

पवन तनय का आज जनम दिन, कष्ट हरने धरा पर आये,
सेवक हैं वो राम के लेकिन, सबका कष्ट वो दूर भगाए ।

नरक चतुर्दशी, यम पूजा भी,
सब त्यौहार मनाओ भाई,
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।

मर्यादित हो और सुरक्षित, दीवाली खुशियों का बहाना,
दूर पटाखों से रहना है, बस प्रकाश से पर्व मनाना ।

अपने साथ धरती भी बचाओ,
प्रदुषण को रोको भाई;
दीपों की आवली सजाओ,
आज दीवाली आई भाई ।
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सागर उवाच

कैटल क्लास की दीवाली

 

शाम के वक्त चैपाल सज चुकी थी। रावण दहन के बाद मूर्ति विसर्जित कर लोग धीरे-धीरे चैपाल की जानिब मुखातिब हो रहे थे। दशहरा वाली सुबह ही काका ने जोखन को पूरे गांव में घूमकर मुनादि का हुक्म दे दिया था कि सभी कैटल क्लास के लोग विसर्जन के बाद दीवाली के बाबत चैपाल में हाजिर रहें। काका पेशानी पर हाथ रख कर शून्य में लीन थे कि जोखन ने आत्मघाती हमला बोल दिया... कौने फिकिर में लीन बाड़ा काका, चुप ससुरा का धमा चैकड़ी मचा रखले बाड़े... काका ने जोखन को डांटते हुए कहा। माहौल धीरे-धीरे धमाकों की गूंज में तब्दील हो चुका था। लोगों की कानाफूसी जोर पकड़ चुकी थी ऐसे में जोखन तपाक से बोल पड़ा... हे काका! अबकी दीवाली पर न त चाउर-चूड़ा होई नाहीं त घरीय-गोझिया क कउनो उम्मीद बा फिर तू काहें दीवाली के फिकिर में लीन बाड़ा। जोखन की बात से पूरा चैपाल सहमत था। माहौल में सियापा छा चुका था सभी लोग काका की तरफ ऐसे ध्यान लगाए बैठे थे मानो वो गांव के मुखिया नहीं मुल्क के मुखिया हों।
बात अगर त्यौहारों की हो तो उसमें चीनी का होना वैसे ही लाजमी है जैसे ससुराल में साली का होना वर्ना सब मजा किरकिरा। काफी देर बाद काका ने चुप्पी तोड़ी... प्यारे कैटल क्लास के भाईयों अबकी दीवाली में चीनी, चावल, चूड़ा, तेल, घी, मोमबत्ती व दीया में सादगी के लिए तैयार हो जाइए। बदलते वक्त के साथ हमें भी नई श्रेणी में रख दिया गया है, जहां हम पहले जनता जर्नादन की श्रेणी में थें मगर अब कैटल क्लास में आ गये हैं। ...तो अब हमें चीन, चावल, चूड़ा, गुझिया की जगह घास-भूसा, चारा से काम चलाना होगा ? जोखन ने सवाल दागा। आपने सही समझा... मैडम व सरदार जी के दौर में हमें नतीजा तो भुगतना ही पड़ेगा न! चीनी इस त्यौहारी मौसम में मीठान न घोलकर हमसब के घरों में जहर घोलने पर जो आमादा है। ऐसे में घरीया व गुझिया के कद्रदानों को चीनी की बेवफाई से शुगर का खतरा भी कम हो गया है। तभी तो पास बैठे अश्विनी बाबू ने एक मसल छेड़ी-

जश्न-ए-पूजा, जश्न-ए-दीवाली या फिर हो जश्न-ए-ईद
क्या मनाएंगे इन्हे? जो हैं सिर्फ चीनी के मूरीद।

माहौल में कुछ ताजगी का एहसास हुआ फिर बात आगे बढ़ चली। हां तो कैटल क्लास के भाईयों इस दीवाली हमारे घरों में अंधेरे का काला साम्राज्य ठीक उसी तरह कायम रहना चाहिए जैसे केन्द्र में यूपीए व वैष्विक बाजार में मंदी तथा हमारे मुल्क में महंगाई का है। सो हम सब सादगी का परिचय देने हुए न तो तेल-घी का दीप जलायेंगे न ही कैंडील। इस बार दीप नहीं दिल जलेंगे खाली, सादी होगी अपनी दीवाली।
हां तो कैटल क्लास के भाईयों आप पूरी तरह से तैयार हो जाएं अबकी दीवाली में घास-भूसा और चारा का लुत्फ उठाने के लिए तबेले के घुप अंधेरे में दीवाली को मनाने के लिए। हे काका... चारा त लालू भईया चाट गईलन, जोखन के इस सवाल पर चैपाल का माहौल धमाकाखेज हो गया। कानाफूसी व बतरस के बीच कोई कहता... अरे भाई कैटल क्लास में भी मारा-मारी है तो कोई लालू को कोसता, बात निकली है तो दूर तलक जायेगी सो काका ने माहौल को किसी तरह दीवालीया बनाया। महंगाई और मंदी का दौर है हम सबकी तो दीवाली सादी मनेंगी मगर कोइ शहर में जाकर भल मानूसों की दीवाली भी देखा है कैसे मनती है उनकी दीवाली? भौचकियाए लोग आपस में खुसर-फुसर करने लगे। सबकी निगाह अश्विनी बाबू पर जा टिकी। वहां तो हर रोज ही दशहरा, दीवाली मनता है काका। शहर में माल, बीयर बार, रेस्तरां, होटल आदि जगहों पर हमेशा होली व दीवाली का माहौल रहता है क्योंकि वहां आमदनी पैसा-रूपया नहीं डालर-पाउंड में होता है। तो वहां न दीवाली मनेगी कि यहां सूखे नहर व अकाल के माहौल में। फिर अश्विनी बाबू ने फरमाया-

कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया
बात निकली है तो हर इक बात पे रोना आया।

इसके बाद चैपाल में काका का फैसला आया... अबकी दीवाली हम कैटल क्लास के लोग न तो चूड़ा-घरिया के चक्कर में रहेंगे ना ही दीया-बाती के। पूरे सादगी के साथ मनेगा दीवाली। न पटाखा, न धमाका सिर्फ और सिर्फ सियापा व सन्नाटा। शास्त्री व बापू के आदर्शें पर चलकर मंत्रीयों व संतरीयों को करारा जवाब देना है। सादगी का लंगोट पहनकर मैडम, मनमोहन व महंगाई का मुकाबला करना है! न पकवान, न स्नान और न ही खानपान। खालीपेट रहकर देश की अर्थव्यवस्था को सुधारना है साथ ही शुगर व शरद बाबू के प्रकोप से भी बचना है। रात में घुप अंधेरा रहे ताकि आइल सब्सीडी का बेजां नुक्सान न हो। दीप की जगह दिल जलाना है, सादगी से दीवाली मनाना है। इसके लिए कैटल क्लास के लोग तैयार हैं ना...? काका के आह्वाहन पर सबने हामी भरी। रात के स्याह तारीकी में जलते दिलों के साथ घर की जानिब कैटल क्लास के लोग हमवार हुए।

एम. अफसर खां सागर
http://afsarpathan.webnode.com/
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गर्मियों की छुट्टियां

अनवर भाई आपकी गर्मियों की छुट्टियों की दास्तान पढ़ कर हमें आपकी किस्मत से रश्क हो रहा है...ऐसे बचपन का सपना तो हर बच्चा देखता है लेकिन उसके सच होने का नसीब आप जैसे किसी किसी को ही होता है...बहुत दिलचस्प वाकये बयां किये हैं आपने...मजा आ गया. - नीरज गोस्वामी

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