एक विलुप्त कविता / रामधारी सिंह "दिनकर"

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  • Sunday, September 23, 2012
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  • आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" का जन्म दिवस है | उनकी इस रचना के साथ उन्हे अनेकानेक नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि |
    बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें,
    आज क्या है कि देख कौम को गम है।
    कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में
    कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?
    भूखे, अपढ़, नग्न बच्चे क्या नहीं तुम्हारे घर में?
    कहता धनी कुबेर किन्तु क्या आती तुम्हें शरम है?
    आग लगे उस धन में जो दुखियों के काम न आए,
    लाख लानत जिनका, फटता नही मरम है।
    दुह-दुह कर जाति गाय की निजतन धन तुम पा लो
    दो बूँद आँसू न उनको यह भी कोई धरम है?
    देख रही है राह कौम अपने वैभव वालों की
    मगर फिकर क्या, उन्हें सोच तो अपन ही हरदम है?
    हँसते हैं सब लोग जिन्हें गैरत हो वे सरमायें
    यह महफ़िल कहने वालों को बड़ा भारी विभ्रम है।
    सेवा व्रत शूल का पथ है गद्दी नहीं कुसुम की!
    घर बैठो चुपचाप नहीं जो इस पर चलने का दम है।

    (सन 1938 में पटना में अखिल भारतीय ब्रह्मर्षि महासम्मेलन क आयोजन किया गया था जिसमें काशी नरेश विभूति नारायण सिंह, सर गणेश दत्त, बाबू रज्जनधारी सिंह आदि गणमान्य लोग मौज़ूद थे। दिनकर जी ने उस महाजाति सम्मेलन के लिए यह कविता लिख भेजी थी जिसे उसमें स्वागत-गान के रूप में पढ़ा गया था। कविता कोश के सहयोगी पश्चिमी सिंहभूम, झारखण्ड के निवासी श्री रवि रंजन ने बाबू रज्जनधारी सिंह के गाँव 'भरतपुरा' में बने उनके निजी पुस्तकालय से यह कविता उनकी नोटबुक से ढूँढ निकाली है। इस कविता का कोई शीर्षक नहीं दिया गया है।)

    सौजन्य-"कविता कोश"

    1 comments:

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