धर्म और विज्ञान में विरोध इस्लाम के नज़रिये के खि़लाफ़ है.
किसी भी ज्ञान को अधार्मिक नहीं कहा जा सकता, उलमा साइंस की बुनियाद को समझकर पश्चिमी संस्कृति के चैलेंज का मुक़ाबला करें। मौलाना सालिम क़ासमी साहब ने यह बात अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सुन्नी दीनियात डिपार्टमेंट में ‘पश्चिमी संस्कृति और उलमा की ज़िम्मेदारियां‘ के विषय पर बोलते हुए कही। उन्होंने कहा कि साइंस का अर्थ हम ‘हिकमत‘ लेते हैं। जिससे इंसान की भौतिक ज़रूरतें पूरी होती हैं और धर्म इंसान की आंतरिक और आध्यात्मिक ज़रूरत को और इंसान के जीवन के उद्देश्य , सृष्टि और मरने के बाद के सवालात के जवाब देकर इंसान को शांति देता है। उन्होंने उलमा को नसीहत की कि वे साइंसी बुनियादों को समझकर इस्लामी मूल्यों की रौशनी में अपने नज़रिये को बताएं और पश्चिमी संस्कृति के चैलेंज का मुक़ाबला हिकमत और सूझ बूझ से करें।
उन्होंने कहा कि हरेक ज्ञान अल्लाह की तरफ़ से आया है। लिहाज़ा किसी भी ज्ञान को ग़ैर दीनी नहीं कहा जा सकता और आलिमों और मुफ़्तियों का यह फ़र्ज़ है कि वे मसलक और फ़िक्ह को दीन दर्जा न दें जबकि हम से ग़लती यही हुई है कि हमने फ़िक्ह व मसलक को दीन का दर्जा दे दिया है जबकि फ़िक्ह व मसलक का इख्तेलाफ़ सिर्फ़ तरजीह का इख्तेलाफ़ है और वह भी उन मामलों में कि जो ज़न्नी और इज्तिहादी हैं। क़तई उमूर में उम्मत का किसी तरह का कोई इख्तेलाफ़ नहीं है।
शिया दीनियात के डा. असग़र ने कहा कि पूर्वी क़ौमों ने इस्लाम की वजह से कभी मुसलमानों से जंग नहीं लड़ी जो कि पश्चिमी क़ौमें कर रही हैं।
आखि़र में मौलाना सालिम क़ासमी साहब की दुआ के साथ जलसा ख़त्म हुआ।
जलसे के सद्र डा. अब्दुल ख़ालिक़ साहब थे।
रिपोर्ट राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 24 नवंबर 2011 पृ. 6 के आधार पर
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