आज हाई प्रोफाइल मामलों को छोड़ दें तो किसी अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट
(FIR) दर्ज करा लेना ही एक "जंग" जीत लेने के बराबर है. आज के
सम.......पूरा लेख यहाँ रमेश कुमार सिरफिरा: जब प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज न हो पर क्लिक करके पढ़ें.
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अब...मेरी माँ को कौन दिलासा देगा ?
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अब हमें भी पता नहीं कितने दिन जेल की सलाखों को पकड़कर खड़ा रहना होगा, क्योंकि हमारे देश में कानून पूंजीपतियों, राजनीतिज्ञों और महिलाओं की बाप की जागीर बन गया है. |
लो दोस्तों, हमारा आपका बस थोड़े से ही दिनों का साथ था. मैं अक्सर कहता था कि देशप्रेम में पागल और सिरफिरे लोगों का स्वागत फ़िलहाल "जेल" में किया जाता है. अब हम तो जेल में जा रहे हैं. हम अपनी पत्नी के द्वारा धारा 498A और 406 के तहत दर्ज करवाए झूठे केसों (एफ.आई.आर नं. 138/2010 थाना-मोतीनगर,दिल्ली) में आठ फरवरी को तीस हजारी के कमरे नं. 138 में आत्मसमपर्ण कर रहे हैं. पुलिस के पास सबूत नहीं थें. इसलिए आज तक मुझे गिरफ्तार नहीं किया था. अब केस दर्ज हुए लगभग दो साल हो चुके है. अब कोर्ट का वारंट पुलिस लेकर आई थीं. कल संयोगवश घर पर नहीं था. तब वारंट देकर चली गई. कोर्ट का सम्मान करना मेरा फर्ज है. पिछले नौ महीने से बिलकुल बेरोजगार बैठा हूँ और सारा काम भी लगभग चार साल से बंद था. बिना वकील के ही जज को अपनी गिरफ्तारी दे रहा हूँ. जेल जाने की तारीख निश्चित है मगर भष्ट और अव्यवस्था के कारण वापिस का कोई पता नहीं है.
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मेरी गिरफ्तारी का वारण्ट |
अपनी हिम्मत तो रखे हुए हूँ लेकिन विधवा माँ को हिम्मत रखने वाले शब्द नहीं बोल पा रहा हूँ. उसके लिए कहाँ से वो शब्द लेकर आऊ जो उसको दिलासा दें ? माँ तो कसूरवार बेटे का सदमा सहन नहीं कर पाती है फिर वेकसुर बेटे के लिए जेल जाने का सदमा कैसे सहन करें, कल से मम्मी से ठीक से खाना भी नहीं खाया जा रहा है. क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा है ? कल (चार फरवरी) ही मेरे पिताजी की चौथी पुण्यतिथि थीं. जब पुलिस आई थीं, तब काफी परेशान हो गई थीं. हर रोज थोड़ी देर बैठकर माँ-बेटा अपना दुःख दर्द कह लेते थें.एक-दूसरे को दिलासा दे लेते थें और हिम्मत बढ़ा दिया करते थें. अब......मेरी माँ को कौन दिलासा देगा और हिम्मत बढ़ेगा ?
आज कुछ लड़कियाँ और उसके परिजन धारा 498A और 406 को लेकर इसका दुरूपयोग कर रही है. हमारे देश के अन्धिकाश भोगविलास की वस्तुओं के लालच में और डरपोक पुलिस अधिकारी व जज इनका कुछ नहीं बिगाड पाते हैं क्योंकि यह हमारे देश के सफेदपोश नेताओं के गुलाम बनकर रह गए हैं. इनका जमीर मर चुका है. यह अपने कार्य के नैतिक फर्ज भूलकर सिर्फ सैलरी लेने वाले जोकर बनकर रह गए हैं. असली पीड़ित लड़कियाँ तो न्याय प्राप्त करने के लिए दर-दर ठोकर खा रही हैं.
मेरी जमानत तीन बार ख़ारिज हो चुकी है
और अश्लील वीडियो फिल्म बनाने का और दहेज का सामान (स्त्रीधन) न लोटने के
झूठे आरोपों के कारण जमानत नहीं मिल रही हैं. उत्तमनगर थाने, थाना बिंदापुर
और मोतीनगर आदि से लेकर थाना कीर्ति नगर, दिल्ली के वोमंस सैल, सरकारी
वकील, जांच अधिकारी, जज को रिश्वत न दे पाने के कारण झूठे सबूतों के आधार
पर केस भी दर्ज हो गए और दर्ज केस में मुझे जमानत नहीं मिली. आँखों के
अंधे-बहरे जज और पुलिस अधिकारी बिना सबूत मामला दर्ज करते है और जमानत नहीं
देते हैं.
दोस्तों ! बस दुआ करना कि मेरी विधवा माँ का स्वास्थ्य ठीक रहे.जब तक मुझे जेल में रहना पड़े. 72 साल की है, घर के कार्य के सिवाय कुछ नहीं करती है. मेरे बाद में मेरे बड़े भाई के पास रहेगी. लेकिन बड़ा भाई अपने काम पर सवेरे छह बजे चला जाता है और रात को दस बजे आता हैं. खर्च की चिंता नहीं है मगर मानसिक रूप से दिलासा देने की जरूरत है. मेरी मम्मी अनपढ़ है. ज्यादा जानकारी नहीं है. इसलिए ज्यादा डरी हुई है. आप मिलने आने का कष्ट मत उठाये फोन करें, तब बता देना कि आपके बेटे के दोस्त बोल रहे हैं.मेरी मम्मी हिंदी ही समझती है. आपके सहयोग और प्यार के लिए धन्यवाद
दोस्तों ! अगर आपके पास समय हो तो कभी-कभी मेरी माँ के पास मेरा ही एक अन्य फोन नं. 9868566374 पर बात कर लेना और दिलासा देने के साथ ही हिम्मत भी दे देना. आप ज्यादा जानकारी के लिए मेरे ब्लोगों की सभी पोस्टें और मेरी फेसबुक की "वाल" पढ़ें/देखें-www.sach-ka-saamana.blogspot.com (आत्मकथा)
लड़कियों की पीड़ा दर्शाती दो पोस्ट
सरकार कहती है कि जहाँ कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु दर अधिक है, वहाँ वह भ्रूण-लिंग-परीक्षण तकनीक कानून को अधिक कड़ाई से लागू करेगी। पर क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकेगी? हरियाणा सरकार तो लड़की होने पर धन भी दे रही है फिर भी वह कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु-दर को कम नहीं कर पा रही है। हमें पता नहीं लगता जब तक कि हमें अखबार या मीडिया ये नहीं बताता है कि पुलिस ने आज यहाँ छापा मारा, यहाँ इतनी लड़कियों के कंकाल दबे मिले। वे कहते हैं ना कि जब प्यास लगती है तो प्यासा कुआँ तलाश कर ही लेता है। ऐसा ही यहाँ है, जब किसी को लड़की नहीं चाहिए तो वह उस से छुटकारा पाने का तरीका भी तलाश लेता है। शादी के बाद एक लड़की से ये उम्मीद की जाती है कि वह अपने सास-ससुर को माँ-बाप माने, पर क्या लड़के अपने सास-ससुर को माँ-बाप मानते हैं। शायद सब को लगता है कि लड़कों में ही भावनाएँ होती हैं, लड़कियों में नहीं। तभी तो सब उम्मीद करते हैं कि एक लड़की अपने मायके वालों पर कम, ससुराल वालों पर अधिक ध्यान दे।
मेरे एक मौसेरे भाई ने पूछा कि लड़कियाँ अपनी शादी में इतना क्यों रोती हैं? तो मेरा जवाब था कि शादी के बाद लड़की न इधर की होती है और न उधर की, इसलिए रोती है। उस का कुछ नहीं रहता है। एक उस का मायका है और एक उस का ससुराल। पर उस का घर कहाँ है? मैं ने कभी किसी लड़के को ये कहते नहीं सुना कि ये उसका मायका है, उसका ससुराल अवश्य होता है। हम कैसे उम्मीद करें कि ये सब सुधर जाएगा? जब कि हम खुद उसे नहीं सुधारना चाहते हैं। जो चाहते हैं वे कोशिश नहीं करते। जब तक हम सामाजिक सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। सिर्फ कानून बनाने से किसी को नहीं बचाया जा सकता। अगर बचाना है तो हमें लोगों की सोच बदलनी पड़ेगी। यह करने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी। अगर आपको इस प्रश्न का कोई उत्तर सूझ रहा है. तब आप भी पूरा लेख आप यहाँ 'लड़कियों का घर कहाँ है?' पर पढ़े और उत्तर दें आये.
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अगर देखा जाए तो सब जगह बेटी होने से नुकसान और बेटे से फायदा ही नज़र आता है। तो फिर बेटी होने पर सरकार पैसा दे या उसकी पढ़ाई की फीस में छूट दे, क्या इससे लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ेगी? जब तक हम खुद अपने समाज की परंपराओं को नहीं बदलेंगे कुछ नहीं बदल सकता। क्या हम ऐसा समाज नहीं बना सकते? जहाँ सब बराबर हों, लड़के और लड़की में कोई फर्क ना हो। माता-पिता जो एक बेटे के लिए करे, वही बेटी के लिए भी करे। जहाँ बेटी को अधिकार हो की शादी के बाद भी वो अपने माता पिता की सहायता कर सके। अगर माता पिता बेटे के साथ रह सकते हैं, तो बेटी के साथ भी रह सकते हैं। जहाँ एक बेटी को अपने ही माता पिता की छुप कर मदद ना करनी पड़े। किसी को अपनी ही बेटी की शादी के लिए पैसा न देना पड़े। फिर शायद माँ-बाप बेटी होने पर भी वही खुशी मनाने लगेंगे, जो बेटे के होने पर मनाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे माता-पिता नहीं हैं, आज भी कई माता-पिता हैं, जो बेटी होने की उतनी ही खुशी मनाते हैं जितना बेटे होने की, जो बेटे के लिए करते हैं वही बेटी के लिए भी। पर उन की संख्या कितनी है? जब बेटी तो पराया धन है, कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं होता। अगर कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं है, तो फिर क्यों एक बेटी की शादी के लिए उसके माता-पिता को दहेज देना पड़ता है। अगर आपको इस प्रश्न का कोई उत्तर सूझ रहा है. तब आप भी पूरा लेख आप यहाँ 'हमें परंपराएँ बदलनी होंगी' पर पढ़े और उत्तर दें आये.
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