कितना समझाया कितना मनाया ,
तरह तरह से शांति का मार्ग दिखाया,
कभी लाहोर गए तो कभी आगरा बुलाय,
पर मोटी बुद्धि कुछ समझ न पाया,
हमारी सहिष्णुता को कमजोरी समझ
कर दिया युद्ध की पहल,
उलटे मुह की खानी पड़ी
शरम से मुह छुपानी पड़ी;
हो आई याद उनको सन ७१ की,
समझ गया शक्ति वो भारत की;
न लेंगे पंगा फिर वो कसम खाया,
खुदा को अपना गवाह बनाया;
इतना होने पर भी वो बाज न आया,
वापस घुसपैठ का राह अपनाया;
कश्मीर को अपनी जागीर बताया और
इसपे अपना अधिकार जताया;
तो ले अब मैं तुम्हे बताता हूँ,
तुम्हारा भरम मिटाता हूँ;
न था यह कभी तुम्हारा,
ये तो नितांत से है हमारा;
छोड़ कर साथ तू जिद का,
हाथ बढ़ा दे दोस्ती का;
हम ख़ुशी से तुम्हे अपनाएंगे,
सारे गिले शिकवे भूल जायेंगे,
पर तू जो फिर न माना,
वापस इसे कमजोरी जाना,
तो समझोता नहीं;
फिर रण होग,
जीवन जय होगा,और फिर मरण होगा .
(यह रचना मेरे एक मित्र द्वारा लिखी गयी है उसने किसी से साझा नहीं किया पर मैं चाहता हूँ सब पढ़े उसकी ये रचना .-प्रदीप )
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