समाज का डर
समाज का डर
समाज का डर हम पर,कुछ इस तरह छाया है
की कुरीतियों का फैला अंधियारा हमारे जीवन मैं हर तरफ नजर आया है
शादियों मैं हम कर्जा लेकर शान-शोकत और दिखावे
में खूब खर्च करते हैं
फिर जिंदगी भर उसका कर्ज चुकातें हैं
समाज के डर से
जब ससुराल से रोती-बिलखती बेटी शरीर में जख्मों
का निशान लिए वापस ना जाने की फरियाद करती हुई
माता-पिता के पास आती है ,पर वो उसे समझाकर वापस
ससुराल भेज देतें हैं
समाज के डर से
कुछ दिनों बाद उसी बेटी की हत्या या आत्महत्या का
समाचार सुन खूब हो -हल्ला मचाते हैं
कोर्ट -कचहेरी करतें हैं,पर आई बेटी को नहीं अपनातें हैं
समाज के डर से
बाल -विवाह का अंजाम और कानूनी अपराध को
जानते हुए भी आज भी कई छैत्रों में
बाल -विवाह हो रहें हैं पर इस कुरीति को हम छोड नहीं पा रहे हैं
समाज के डर से
बिना जांच -पड़ताल किये विदेश के मोह में विदेश में बसे
लडके से अपनी लड़की की शादी करके धोखा खातें हैं
फिर समाज से छुपाने के लिए झूठे बहाने बनाते हैं
समाज के डर से
बेटी पैदा होने से नाक नीची होती है,.बेटा तो वंश चलाता है
इस कुरीति से बेटियों की गर्भ में ही ह्त्या कर देते है
दहेज़ जैसी कुरीति के कारण भी बेटी को जन्म नहीं देना चाहते हैं
समाज के डर से
धर्म के नाम पर कब तक ढोंगी-पाखंडी बाबाओं को
दान-पुण्य के नाम पर धन लूटातें रहेंगे
इनकी बातों में आते रहेंगे और अपने को छलते रहेंगे
समाज के डर से
ऐसी कितनी कुरीतियों को हम निभाते रहेंगे
और इंसानों की जिंदगियों से खेलते रहेंगे
समाज से कभी इन कुरीतियों ख़त्म नहीं कर पायेंगे
समाज के डर से
समाज हमसे है हम समाज से नहीं
बुराइयों को छोडकर अच्छाइयों को अपनाओं
शिक्षित समाज में नई रीतियों को बनाओ
पुराने समाज की पुरानी कुरीतियों को भूल जाओ
समाज के डर से
1 comments:
नारी व्यथा को बहुत उम्दा शब्दों में पिरोया है आपने .
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