जैसे-जैसे ठंड बढ़ रही है , पारा गिर रहा है वैसे-वैसे कई सामाजिक संस्थानों और सरकार द्वारा कम्बल वितरण का दौर बढ़ते जा रहा है । अख़बारों में फोटो के साथ ख़बरें आ रही है कि अमुक संस्था ने इतने कम्बल बनते, फलाना ने इतने कम्बल दिए । पर ध्यान देने वाली बात ये है कि इनमे से ज्यादातर परोपकार कम और नाम कमाने और वाह-वाही लूटने का भाव ज्यादा रहता है । जो कम्बल गरीबों को दिया जाता है वह बड़ा ही निम्न कोटि का होता है और जिसे भी खरीदने की जिम्मेदारी दी जाती है वो अपने स्तर से घोटाला करने में कोई कसर नहीं छोड़ता । 200 रुपय्ये का समान लेके 600 का बिल जरुर बनवा लेता है ।
कम्बल लेने वाले लाभुक भी संस्थाओं से प्राप्त कम्बल पुनः सस्ते दर में दूकान में ही बेच देते हैं (ऐसा मेरा देखा हुआ है ) और पुनः अगली संस्था या सरकार के कम्बल वितरण कार्यक्रम का इन्तजार करने लगते हैं । जो भी हो पर फुटपाथ पे रहने वालों का फायदा तो हो ही रहा है किसी न किसी रूप में पर फिर भी न जाने कितने ही लोग इन सारी सुविधाओं से वंचित होकर किसी तरह पूष की रातें बिताने को मजबूर हैं ।
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