चुनाव की लहर है या यों कहें कि ज़हर की लहर है। हर तरफ़ किसी न किसी नेता का गुणगान किया जा रहा है। इतना भी चलता तो ग़नीमत था। उससे ज़्यादा बुरा यह है कि विरोधी प्रत्याशियों को गालियां दी जा रही हैं, उन्हें पाकिस्तानी एजेन्ट तक बताया जा रहा है। अगर वाक़ई भारत में कोई पाकिस्तानी एजेन्ट चुनाव लड़ रहा होता तो क्या हमारी इन्टेलीजेन्स और चुनाव आयोग उसके खि़लाफ़ कोई कार्रवाई क्यों न करता?
इसका मतलब यह है कि यह एक झूठ है, जिसे नेता पद की गरिमा से गिरकर बोला गया है। झूठ और धोखा किसी धर्म और संस्कृति का अंग नहीं है लेकिन फिर भी चुनाव के दौरान झूठ और धोखेबाज़ी की घटनाएं उफ़ान पर आ जाती हैं। भारत जैसे धार्मिक देश में झूठ और धोखेबाज़ी की ऊंची लहर को देखना उनके लिए कष्टदायक है, जिन्हें देश से प्यार है और जो मानवता को एक और नेक देखना चाहते हैं।
नफ़रत और जातिवादी भावनाएं भड़काकर ख़ून ख़राबा कराने वाले देश के ग़ददारों को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उनकी वजह से देशवासियों का कितना जानोमाल तबाह हुआ। पूंजीपति और सामन्तवादी इनके पुराने आक़ा हैं। ये अपनी छिनी हुई शक्ति को फिर से केवल अपने हाथों में सीमित कर लेना चाहते हैं। अपनी ख़ुदग़र्ज़ी को इन्होंने संस्कृति और राष्ट्रवाद के आवरण से ढक दिया है।
इनका सीधा सा गणित है कि देश का भला चाहने वालों को जाति-धर्म के नाम पर बांट दो। फिर अगड़ों के साथ पिछड़ो को जोड़कर आगे बढ़ो और अपने ही जैसे सत्तालोभियों और दल-बदलुओं से सौदेबाज़ी करके राज्य और केन्द्र की सत्ता क़ब्ज़ा लो। इसके बाद सत्ता की मलाई को समुद्र मंथन में निकले अमृत की तरह अपने आक़ाओं को इकतरफ़ा ही सौंप दो। ब्याजख़ोर पूंजीपति की पूंजी और क़र्ज़ में दबे ग़रीब की ग़रीबी को और बढ़ा दो। तोंद वाले व्यापारियों की हवस के लिए पिचके गाल वाले ग़रीबों का आत्महत्या करना इनके लिए चिंता का विषय नहीं है।
हज़ारों लाखों मासूमों का ख़ून नेता कहलाने वाले इन मुजरिमों के ज़िम्मे है लेकिन हर तरफ़ जनता इनकी जय जयकार कर रही है।
ख़ून ख़राबे के दाग़ी मुल्ज़िमान को चुनावी सभाओं में जनता से सम्मान पाते देखकर यक़ीन हो जाता है कि भारत की जनता आज भी बच्चों जैसी भोली है।
चुनाव के दौरान एक होड़ सी मच जाती है कि भोली जनता को कौन सा नेता कितना ज़्यादा भड़काता है?
कहीं कहीं ये नेता ख़ुद ही भडक जाते हैं, जब इनके प्यादे रहे नेता इनका टिकट रूपी पत्ता ही साफ़ कर देते हैं। अब भुगतो, तुमने ही इन्हें सिखाया है कि राजनीति में केवल अपना फ़ायदा देखो, दूसरों की भावनाएं नहीं। इस चुनाव में अनुभवी बुड्ढ़े अपनी आहत भावनाएं लिए लंगड़ा लंगड़ा कर चलते देखे जा सकते हैं। अपमानित होकर अब ये अपने सम्मान के लिए लड़ते हुए देखे जा सकते हैं। ये पहले जिस दल को जिताने के लिए लड़ते थे अब उसे हराने के लिए खड़े हैं।
जनता के साथ छल करने वाले हरेक नेता को मरने से पहले अपमानित होना ही पड़ेगा। यह प्रकृति का नियम है।
हमें किसी व्यक्ति या पार्टी से सरोकार नहीं है लेकिन आदर और शालीनता के साथ भी अपने विरोधी की आलोचना की जा सकती है। दुनिया के सभ्य देशों में चुनाव में ऐसा ही होता है। भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए बल्कि यहां दूसरे देशों से बढ़कर सभ्यता के दर्शन होने चाहिएं। इसके लिए जनता को संयम से काम लेना चाहिए।
जाति, धर्म और क्षेत्र की भावनाएं भड़काने वाले सांप्रदायिक तत्व देशवासियों का भला नहीं करते। यह एक हक़ीक़त है। जनता को इन्हें अपना नेता कभी नहीं चुनना चाहिए, चाहे ये किसी भी धर्म, जाति और प्रांत के हों।
ये भड़काऊ नेता जहां पैदा होते हैं, वहां इन्होंने अपनी कमाई के पैसे से कोई जनता की भलाई का कोई काम नहीं किया होता है। इसीलिए ये दूसरे अजनबी इलाक़ों से खड़े होकर चुनाव लड़ते हैं। पूंजीपति माफ़िया इनके लिए अपना धन ख़र्च करते हैं। जिसे बाद में वे सूद समेत वुसूल करते रहते हैं। सत्ता इस दल की बने या उस दल की, इनके माल में अरबों खरबों रूपये का इज़ाफ़ा होना ही है और पिसना ग़रीब जनता को है। इसलिए वोट देते समय निजी फ़ायदे और जाति-धर्म को न देखकर चुनाव में खड़े उम्मीदवार के कैरेक्टर को ज़रूर देख लें कि उस कोई दाग़ तो नहीं लगा है।
जनता ही आपस में एक दूसरे के काम आती आई है और आती रहेगी। देश की जनता को आपसी एकता को चुनाव के नाज़ुक दौर में बचाकर रखने की ज़रूरत आम दिनों से कहीं ज़्यादा है। पहर भर की लहर है, उसके बाद ये भी ऐसे ही ‘यूज़ एंड थ्रो’ के शिकार हो जाएंगे जैसे कि आज उनके बुज़ुर्ग हो रहे हैं। अपने बड़ों की बद-दुआएं लेकर ये कभी फल नहीं सकते और उनके बड़े उन्हें बद-दुआओं के सिवा कुछ और दे नहीं सकते। वे भी वही बांट रहे हैं जो कि उन्हें मिला है।
इसका मतलब यह है कि यह एक झूठ है, जिसे नेता पद की गरिमा से गिरकर बोला गया है। झूठ और धोखा किसी धर्म और संस्कृति का अंग नहीं है लेकिन फिर भी चुनाव के दौरान झूठ और धोखेबाज़ी की घटनाएं उफ़ान पर आ जाती हैं। भारत जैसे धार्मिक देश में झूठ और धोखेबाज़ी की ऊंची लहर को देखना उनके लिए कष्टदायक है, जिन्हें देश से प्यार है और जो मानवता को एक और नेक देखना चाहते हैं।
नफ़रत और जातिवादी भावनाएं भड़काकर ख़ून ख़राबा कराने वाले देश के ग़ददारों को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उनकी वजह से देशवासियों का कितना जानोमाल तबाह हुआ। पूंजीपति और सामन्तवादी इनके पुराने आक़ा हैं। ये अपनी छिनी हुई शक्ति को फिर से केवल अपने हाथों में सीमित कर लेना चाहते हैं। अपनी ख़ुदग़र्ज़ी को इन्होंने संस्कृति और राष्ट्रवाद के आवरण से ढक दिया है।
इनका सीधा सा गणित है कि देश का भला चाहने वालों को जाति-धर्म के नाम पर बांट दो। फिर अगड़ों के साथ पिछड़ो को जोड़कर आगे बढ़ो और अपने ही जैसे सत्तालोभियों और दल-बदलुओं से सौदेबाज़ी करके राज्य और केन्द्र की सत्ता क़ब्ज़ा लो। इसके बाद सत्ता की मलाई को समुद्र मंथन में निकले अमृत की तरह अपने आक़ाओं को इकतरफ़ा ही सौंप दो। ब्याजख़ोर पूंजीपति की पूंजी और क़र्ज़ में दबे ग़रीब की ग़रीबी को और बढ़ा दो। तोंद वाले व्यापारियों की हवस के लिए पिचके गाल वाले ग़रीबों का आत्महत्या करना इनके लिए चिंता का विषय नहीं है।
हज़ारों लाखों मासूमों का ख़ून नेता कहलाने वाले इन मुजरिमों के ज़िम्मे है लेकिन हर तरफ़ जनता इनकी जय जयकार कर रही है।
ख़ून ख़राबे के दाग़ी मुल्ज़िमान को चुनावी सभाओं में जनता से सम्मान पाते देखकर यक़ीन हो जाता है कि भारत की जनता आज भी बच्चों जैसी भोली है।
चुनाव के दौरान एक होड़ सी मच जाती है कि भोली जनता को कौन सा नेता कितना ज़्यादा भड़काता है?
कहीं कहीं ये नेता ख़ुद ही भडक जाते हैं, जब इनके प्यादे रहे नेता इनका टिकट रूपी पत्ता ही साफ़ कर देते हैं। अब भुगतो, तुमने ही इन्हें सिखाया है कि राजनीति में केवल अपना फ़ायदा देखो, दूसरों की भावनाएं नहीं। इस चुनाव में अनुभवी बुड्ढ़े अपनी आहत भावनाएं लिए लंगड़ा लंगड़ा कर चलते देखे जा सकते हैं। अपमानित होकर अब ये अपने सम्मान के लिए लड़ते हुए देखे जा सकते हैं। ये पहले जिस दल को जिताने के लिए लड़ते थे अब उसे हराने के लिए खड़े हैं।
जनता के साथ छल करने वाले हरेक नेता को मरने से पहले अपमानित होना ही पड़ेगा। यह प्रकृति का नियम है।
हमें किसी व्यक्ति या पार्टी से सरोकार नहीं है लेकिन आदर और शालीनता के साथ भी अपने विरोधी की आलोचना की जा सकती है। दुनिया के सभ्य देशों में चुनाव में ऐसा ही होता है। भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए बल्कि यहां दूसरे देशों से बढ़कर सभ्यता के दर्शन होने चाहिएं। इसके लिए जनता को संयम से काम लेना चाहिए।
जाति, धर्म और क्षेत्र की भावनाएं भड़काने वाले सांप्रदायिक तत्व देशवासियों का भला नहीं करते। यह एक हक़ीक़त है। जनता को इन्हें अपना नेता कभी नहीं चुनना चाहिए, चाहे ये किसी भी धर्म, जाति और प्रांत के हों।
ये भड़काऊ नेता जहां पैदा होते हैं, वहां इन्होंने अपनी कमाई के पैसे से कोई जनता की भलाई का कोई काम नहीं किया होता है। इसीलिए ये दूसरे अजनबी इलाक़ों से खड़े होकर चुनाव लड़ते हैं। पूंजीपति माफ़िया इनके लिए अपना धन ख़र्च करते हैं। जिसे बाद में वे सूद समेत वुसूल करते रहते हैं। सत्ता इस दल की बने या उस दल की, इनके माल में अरबों खरबों रूपये का इज़ाफ़ा होना ही है और पिसना ग़रीब जनता को है। इसलिए वोट देते समय निजी फ़ायदे और जाति-धर्म को न देखकर चुनाव में खड़े उम्मीदवार के कैरेक्टर को ज़रूर देख लें कि उस कोई दाग़ तो नहीं लगा है।
जनता ही आपस में एक दूसरे के काम आती आई है और आती रहेगी। देश की जनता को आपसी एकता को चुनाव के नाज़ुक दौर में बचाकर रखने की ज़रूरत आम दिनों से कहीं ज़्यादा है। पहर भर की लहर है, उसके बाद ये भी ऐसे ही ‘यूज़ एंड थ्रो’ के शिकार हो जाएंगे जैसे कि आज उनके बुज़ुर्ग हो रहे हैं। अपने बड़ों की बद-दुआएं लेकर ये कभी फल नहीं सकते और उनके बड़े उन्हें बद-दुआओं के सिवा कुछ और दे नहीं सकते। वे भी वही बांट रहे हैं जो कि उन्हें मिला है।
2 comments:
अनवर जी,
आपने जो वर्णन किया है, बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। मेरे विचार से भारत की जनता कहें या मतदाता या भारतीय या हिन्दुस्तानी, सभी भ्रम में पड़कर भटक रहे हैं। अनपढ़-गँवार ही नहीं अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे विद्वान भी सही निर्णय नहीं ले पा रहे हैं। कुछ लोग सही निर्णय लेते होंगे पर वे सफल नहीं हो पा रहें है। इन सबको देखते हुए बुजुर्गों की पुरानी कहानी कि , चरितार्थ हो रही है। ऐसा लगता है विकास का पूर्णिमा पूर्ण हो चुका है और पतन की शुरूआत है। फिर पूर्ण अमावस्या को प्राप्त होने के बाद ही विकास की ओर गति होगी। अतः हमें अपने-अपने ढंग से कर्तव्य करते हुए पतन के पूर्ण अमावस्या की प्रतीक्षा करनी ही होगी।
@ आपने सही कहा है कि हमें अपने-अपने ढंग से कर्तव्य का पालन करना होगा.
शुक्रिया प्रेम जी.
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