जब भी संघर्ष और वह भी जेल में रहकर संघर्ष करने की बात आती है, तो हम या तो महात्मा गांधी को याद करते हैं या नेल्सन मंडेला को या फिर आंग सान सू की को। गांधी को छह-सात वर्ष तक जेल में रहना पड़ा, सू की को 15 वर्ष तक और नेल्सन मंडेला को 27 वर्ष तक। लेकिन यह सब खान अब्दुल गफ्फार खान के संघर्ष के सामने कुछ नहीं, जिन्होंने अपने जीवन के पूरे 42 साल ब्रिटिश राज और फिर पाकिस्तान की जेलों में गुजार दिए। जेल में उनके समान कष्ट और यातनाएं भी किसी ने नहीं झेलीं। सरहदी सूबे की जेलों में तो अक्सर पैरों में लोहे की बेड़ी बंधी रहती थी। बादशाह खां और सीमांत गांधी जैसी उपाधियों से नवाजे गए खान अब्दुल गफ्फार खां ने अपने भाई के साथ मिलकर कभी पठान सीमा प्रांत में खुदाई खिदमतगारों की एक बड़ी अहिंसक फौज खड़ी की थी। 1942 के आंदोलन में जब गांधी के नेतृत्व के बावजूद हिन्दुस्तानी अहिंसक नहीं रह सके, तब पठानों ने अपनी अहिंसा कायम रखी। इस पर गांधी की टिप्पणी थी कि अहिंसा बहादुरों का हथियार है, बुजदिलों का नहीं और पठान एक बहादुर कौम है, वह अहिंसा का पालन करने में समर्थ हो सकी।
अहिंसा की शिक्षा बादशाह खां ने गांधी से नहीं, कुरान से ग्रहण की थी। वह उस दौर के बाकी लोगों से ज्यादा राष्ट्रवादी थे। राजेंद्र प्रसाद जब संविधान सभा के अध्यक्ष बने, तो उनके स्वागत में आठ भाषण दिए गए। इनमें सें सात ने अंग्रेजी में बोलना उचित समझा। अकेले बादशाह खान ही थे, जो हिन्दुस्तानी में बोले। बादशाह खान ने जीवन भर कांग्रेस का साथ दिया था। आजादी की लड़ाई में पठानों ने कांग्रेस को शक्तिशाली बनाया। पठान कांग्रेस के साथ इस वायदे पर थे कि हिन्दुस्तान के आजाद होने के साथ-साथ पठानों को भी आजादी मिलेगी। पर जब समय आया, तो पठानों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें जबरदस्ती पाकिस्तान के साथ कर दिया गया। मुस्लिम लीग को वे चुनावी शिकस्त पहले ही दे चुके थे। पठानों के सामने विकल्प, हिन्दुस्तान व पाकिस्तान के बीच का नहीं, बल्कि पाकिस्तान और पख्तूनिस्तान के बीच रखा जाना चाहिए था। जो नहीं हुआ। कांग्रेस के नेताओं का मानना था कि वे परिस्थितियों के अधीन थे।
बादशाह खान का सवाल था कि ये परिस्थितियां किसने पैदा कीं। एक तरफ बादशाह खान पूरी तरह से विभाजन के विरोधी थे, तो दूसरी ओर सभी राष्ट्रीय नेताओं को विभाजन स्वीकार्य था। गांधी जैसे व्यक्ति भी इसे मूक-दर्शक बनकर देखते रहे। बादशाह खान अकेले पड़ गए थे। सच तो यह है कि स्वतंत्रता की लड़ाई के आखिरी दौर में बादशाह खान ही सत्य, अहिंसा और भाईचारे के एकमात्र प्रतिनिधि थे। यहां वे गांधी से भी ऊपर उठ जाते हैं। इंदिरा गांधी ने तो उनके लिए यहां तक कहा, ‘बादशाह खान के दयालु व्यक्तित्व से आशा की जा सकती है कि वे हमारी विफलताओं को क्षमा कर पाएंगे।’
बादशाह खान का सवाल था कि ये परिस्थितियां किसने पैदा कीं। एक तरफ बादशाह खान पूरी तरह से विभाजन के विरोधी थे, तो दूसरी ओर सभी राष्ट्रीय नेताओं को विभाजन स्वीकार्य था। गांधी जैसे व्यक्ति भी इसे मूक-दर्शक बनकर देखते रहे। बादशाह खान अकेले पड़ गए थे। सच तो यह है कि स्वतंत्रता की लड़ाई के आखिरी दौर में बादशाह खान ही सत्य, अहिंसा और भाईचारे के एकमात्र प्रतिनिधि थे। यहां वे गांधी से भी ऊपर उठ जाते हैं। इंदिरा गांधी ने तो उनके लिए यहां तक कहा, ‘बादशाह खान के दयालु व्यक्तित्व से आशा की जा सकती है कि वे हमारी विफलताओं को क्षमा कर पाएंगे।’
-उदय प्रकाश अरोड़ा, ग्रीक चेयर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
हिन्दुस्तान दिनांक 20-01-2014, पेज 10 से साभार
2 comments:
उम्दा लेख | नई जानकारी दी है |
खान अब्दुल गफ्फार खां की महान शख्सियत को नमन..
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