खून में डूबे हुए थे रास्ते सब इस नगर के.
हम जो गलियों में छुपे थे, घाट के थे और न घर के.
ठीक था सबकुछ यहां तो लोग अपनी हांकते थे
खतरा मंडराने लगा तो चल दिए इक-एक कर के.
हादिसा जब कोई गुज़रा या लुटा जब दिल का चैन
यूं लगा कि कोई रावण ले गया सीता को हर के.
अपने तलवे थामकर कहने लगा इक राहरौ
चांदनी रातों में भी सब जायके थे दोपहर के.
शोहरत, दौलत और ताक़त, जिंदगी भर की सियासत
गौर से देखा तो जाना सब छलावे हैं नज़र के.
----देवेंद्र गौतम
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2 comments:
मार्मिक रचना है,ऐसा क्यों होता है किखून का मोल ही खत्म हो जाता है क्यूँ........
शोहरत, दौलत और ताक़त, जिंदगी भर की सियासत
गौर से देखा तो जाना सब छलावे हैं नज़र के.
....बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति..
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