अमेरिका का प्रयास यह रहा है कि वह भारत समेत दूसरे देशों को ईरान से विमुख कर सके, दुर्भाग्य से भारत इस जाल में फंस चुका है India and Iran

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  • Thursday, January 12, 2012
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  • DR. ANWER JAMAL
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  • हाल ही में ईरान ने मध्यम दूरी तक मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण कर यह प्रदर्शित कर दिया है कि वह अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों से घबराया हुआ नहीं है और न ही शस्त्रास्त्रों की विकास परियोजनाओं को बाधित करने में अमेरिका सफल हो सका है। एक बार फिर अमेरिका ने नए प्रतिबंधों की घोषणा की है। उसके पास दूसरा कोई चारा भी नहीं। यह राष्ट्रपति चुनाव का वर्ष है और चौतरफा घिरे, मंदी से पिटे ओबामा के लिए विदेश नीति के मोरचे पर नाटकीय सफलता दर्ज कराना प्राथमिकता है। अफ-पाक रणक्षेत्र से अमेरिकी फौज लगभग दुम दबाकर लौटने को है और इराक में भी गतिरोध खत्म करने में वह असमर्थ रही है। जो कुछ आशा बची है, वह ईरान में ही है।
    अमेरिका की कुल चिंता ईरान के एटमी हथियारों तथा प्रक्षेपास्त्रों को लेकर है। ईरान विपुल तेल भंडार का स्वामी है और अमेरिकी राजनय तैल-गैस ऊर्जा वाली धुरी के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है। शीतयुद्ध के शुरुआती दिनों में ईरान में सत्ता परिवर्तन के लिए सीआईए का निर्मम हस्तक्षेप हुआ था। तत्कालीन सोवियत संघ की घेराबंदी के लिए शाह की अत्याचारी हुकूमत को ताकतवर बनाने में भी अमेरिका ही जिम्मेदार था।
    ईरान-इराक युद्ध की लपटों को लगभग एक दशक तक दहकाने का काम भी उसी ने किया। बाद के वर्षों में रजा शाह पहलवी की तानाशाही भी अमेरिकी समर्थन के बूते ही कायम रह सकी थी। अयातुल्ला खोमैनी ने जिस इसलामी क्रांति का सूत्रपात किया था, कहने को उसे ही अमेरिका बैर की शुरुआत के रूप में पेश करता है। यह सच भी है कि अमेरिकी दूतावास की घेरेबंदी तथा राजनयिकों को बंधक बनाने वाले प्रसंग ने खासा अंतरराष्ट्रीय संकट पैदा कर दिया था। पर इस वैमनस्य की जड़ें कहीं अधिक गहरी हैं।
    पश्चिम एशिया में अमेरिका ने सुन्नी अरबों को गले लगाया है, जिनकी दुश्मनी शिया फारसियों तथा ईरानियों से चली आ रही है। ईरानियों की नजर में अरब बर्बर हैं, जिनकी बराबरी हजारों साल पुरानी संस्कृति के उत्तराधिकारी ईरानियों के साथ नहीं की जा सकती। यह सच है कि ईरान में हुए वैज्ञानिक शोध तथा तकनीकी विकास का मुकाबला अरब दुनिया नहीं कर सकता। हां, कभी मिस्र यह दंभ पाल सकता था। ईरान एक साथ दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और पश्चिम एशिया की भू-राजनीतिक सचाई से जुड़ा है। इसके अलावा विश्व भर के शिया मुसलमानों की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में उसकी पहचान है। अमेरिका की दिक्कत यह है कि इस जटिल गुत्थी को उतावले में सुलझाने के चक्कर में वह लगातार अति सरलीकरण की भूल करता आया है।
    एक और भ्रांति से छुटकारा पाने की जरूरत है। अमेरिकी माध्यम बार-बार यह याद दिलाते रहते हैं कि शाह के शासनकाल में ईरान प्रगतिशील था, मुल्लाओं ने उसे मध्ययुगीन दकियानूसी के दौर में लौटा दिया है। इसे भूला नहीं जा सकता कि उस दौर में पश्चिमी नमूने की आधुनिकता में आम ईरानी की हिस्सेदारी बहुत सीमित थी। शिक्षा हो या खर्चीली फैशनपरस्ती, इसका सुख शासक वर्ग ही भोगता था। अगर ईरान का आधुनिकीकरण जनसाधारण तक पहुंच चुका होता, तो रजा शाह के विरुद्ध बगावत का नेतृत्व अयातुल्ला खोमैनी को आसानी से हासिल नहीं होता। आज का ईरान शाह के युग से कहीं ज्यादा जनतांत्रिक है। अगर किसी ने वहां जिहादी मानसिकता को हवा दी है, तो वह अमेरिका है, जिसने देश को विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिए मजहबी नारे के जरिये एकजुट किया है।
    अमेरिका की गलतफहमी की जड़ यह है कि वह दुनिया में कहीं भी घटनाक्रम को मनचाहे ढंग से प्रभावित कर सकता है-या तो सीधे हस्तक्षेप से या किसी मोहरे के माध्यम से। ईरान में दोनों ही तरीके आजमाए जा चुके हैं। कभी किसी ‘हादसे’ में उस देश के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े वैज्ञानिक का देहांत हो जाता है या वह पागल हत्यारे का निशाना बनता है, ईरान पर नित नए प्रतिबंध लगाए जाते हैं या उसे धमकी दी जाती है कि इस्राइल उसके परमाणु ठिकानों पर हमला कर उन्हें ध्वस्त कर देगा। चुनाव के वक्त नए सामाजिक माध्यमों का भरपूर उपयोग वैधानिक तरीके से चुनी सरकार को अस्थिर करने के लिए किया गया।
    अमेरिका का प्रयास यह भी रहा है कि वह भारत समेत दूसरे देशों को ईरान से विमुख कर सके। दुर्भाग्य से भारत इस जाल में फंस चुका है। अपने ऐतिहासिक संबंधों की अनदेखी कर अमेरिका के कहे अनुसार ईरान के पक्ष में मत न देकर उसने नाहक ईरान को खिन्न किया है। यह सुझाना बेमानी है कि उसने ऐसा अपने विवेक से या राष्ट्रहित में किया है, क्योंकि ईरान पाकिस्तान के एटमी कार्यक्रम को मदद देता रहा है। सच तो यह है कि इस खतरनाक तस्करी में हमारा अव्वल नंबर का आर्थिक साझीदार चीन और खुद अमेरिका भागीदार रहे हैं। रही बात इसलामी कट्टरपंथ और दहशतगर्दी की, तो इसके लिए अमेरिका का मित्र सऊदी अरब जिम्मेदार है। उसी ने आक्रामक वहाबी इसलाम के उस अवतार का निर्यात किया है, जो हमारी जान का जंजाल बना है।

    जहां तक ईरान का प्रश्न है, वहां इसलाम का स्वरूप सदियों से उदार, समन्वयात्मक और आध्यात्मिक-रहस्यवादी रहा है। हमारी संस्कृति को समृद्ध बनाने वाले तमाम सूफी ईरान से ही भारत आए थे। भाषा, भोजन, वेश-भूषा, भवन निर्माण जाने कहां-कहां ईरान के दर्शन अनायास भारत में होते हैं। हमारे लिए अपने राष्ट्रहित की हिफाजत के लिए अमेरिकी चश्मे से तत्काल निजात पाना बेहद जरूरी है।
    - पुष्पेश पंत
    अमर उजाला, हिंदी दैनिक अंक 12 जनवरी 2012 से साभार 

    1 comments:

    sangita said...

    sarthak jankari hae .

    Read Qur'an in Hindi

    Read Qur'an in Hindi
    Translation

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