मोतियाबिंद अंधेपन की एक बड़ी वजह है, लेकिन समय रहते अगर इसका इलाज करा लिया जाए, तो मरीज पहले की तरह न सिर्फ देख सकता है, बल्कि कुछ खास स्थितियों में उसे चश्मे से भी निजात मिल सकती है। क्या है मोतियाबिंद? क्या इसे दवाओं से रोका जा सकता है? अगर नहीं, तो फिर इसका इलाज क्या है? एक्सपर्ट्स से बात करके मोतियाबिंद के बारे में ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब दे रहे हैं प्रभात गौड़ :
क्या है मोतियाबिंद
मोतियाबिंद का पूरा मिकेनिजम समझने के लिए हमें आंख की संरचना समझने की जरूरत है। हमारी आंख की पुतली के पीछे एक लेंस होता है। पुतली पर पड़ने वाली लाइट को यह लेंस फोकस करता है और रेटिना पर ऑब्जेक्ट की साफ इमेज बनाता है। रेटिना से यह इमेज नर्व्स तक और वहां से दिमाग तक पहुंचती है। आंख की पुतली के पीछे मौजूद यह लेंस पूरी तरह से साफ होता है, ताकि इससे लाइट आसानी से पास हो सके। कभी-कभी इस लेंस पर कुछ धुंधलापन (क्लाउडिंग) आ जाता है, जिसकी वजह से इससे पास होने वाली लाइट ब्लॉक होने लगती है। इसका नतीजा यह होता है कि पूरी लाइट पास होने पर जो ऑब्जेक्ट इंसान को बिल्कुल साफ दिखाई देता था, अब कम लाइट पास होने की वजह से वही ऑब्जेक्ट धुंधला नजर आने लगता है। लेंस पर होनेवाले इसी धुंधलेपन या क्लाउडिंग की स्थिति को कैटरैक्ट या मोतियाबिंद कहा जाता है। यह क्लाउडिंग धीरे-धीरे बढ़ती जाती है और मरीज की नजर पहले से ज्यादा धुंधली होती जाती है।
उम्र बढ़ने के साथ लगभग सभी लोगों में मोतियाबिंद हो जाता है। आमतौर पर 55 साल से ज्यादा उम्र के लोगों में यह बीमारी होती है, लेकिन कई बार यह युवाओं में भी हो सकता है और बच्चों में भी। कुछ बच्चों में यह जन्म से ही होता है और कुछ में बाद में डिवेलप हो जाता है। यह एक आंख में भी हो सकता है और दोनों में भी। हो सकता है, यह पूरे लेंस को ही प्रभावित कर दे और यह भी हो सकता है कि लेंस के कुछ हिस्से को ही प्रभावित करे। वैसे, मोतियाबिंद धीरे-धीरे डिवेलप होता है और इसमें किसी तरह का दर्द नहीं होता।
वजह
बढ़ती उम्र
आंख में लगी कोई चोट
स्टेरॉइड वाली दवाओं के ज्यादा सेवन से
अल्ट्रावॉयलेट लाइट के सामने ज्यादा एक्सपोजर (मसलन वेल्डिंग के वक्त आनेवाली लाइट आदि)
स्मोकिंग और डायबीटीज
लक्षण
धुंधला नजर आना
धीरे-धीरे नजर कमजोर होते जाना
रंगों को ठीक से न देख पाना
रात में हेडलाइट्स ज्यादा तेज नजर आना (इससे ड्राइविंग में दिक्कत)
सूरज की रोशनी को देखने में दिक्कत आना या चकाचौंध लगना
चश्मे के नंबर में बार-बार बदलाव होना।
बचना मुश्किल है इस मर्ज से
मोतियाबिंद की सबसे आम वजह है बढ़ती उम्र। जैसे उम्र बढ़ने को रोका नहीं जा सकता, वैसे ही मोतियाबिंद को रोक पाना भी मुमकिन नहीं। आमतौर पर यह 55 साल की उम्र में होता है। टीवी देखने से बचना, कम पढ़ना और आंखों का कम इस्तेमाल करना जैसी बातों से मोतियाबिंद नहीं रुकता। ऐसी कोई दवा नहीं बनी है, जिससे मोतियाबिंद को होने से रोका जा सके या फिर उसे ठीक किया जा सके।
क्या है इलाज
मोतियाबिंद का एकमात्र इलाज ऑपरेशन है और मोतियाबिंद होने के बाद जितनी जल्दी हो सके, ऑपरेशन करा लेना चाहिए। मोतियाबिंद के ऑपरेशन के दौरान सर्जन आंख की पुतली के पीछे मौजूद धुंधले पड़ चुके नैचरल लेंस को हटा देते हैं और उसकी जगह नया आर्टिफिशल लेंस लगा देते हैं। आटिर्फिशल लेंस को इंट्रा-ऑक्यूलर लेंस कहा जाता है। ऑपरेशन की आजकल तीन तकनीक हैं। पहली तरीका परंपरागत है, जिसे एक्स्ट्रा कैप्सुलर कैटरैक्ट एक्स्ट्रैक्शन यानी ईसीसीई कहा जाता है। यह काफी पहले किया जाता था। दूसरा तरीका है स्मॉल इंसिजन कैटरैक्ट सर्जरी (एसआईसीएस)। इसे भी अब कम ही इस्तेमाल किया जाता है। लेटेस्ट तरीका है, माइक्रोइंसिजन कैटरैक्ट सर्जरी यानी फैकोइमल्सिफिकेशन। इसे फैको सर्जरी भी कहते हैं। मोतियाबिंद के ऑपरेशन में आजकल इसी तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है।
एक्स्ट्रा कैप्सुलर कैटरैक्ट एक्स्ट्रैक्शन ( ECCE )
कॉर्निया में 10-12 मिमी का कट लगाया जाता है।
नैचरल लेंस को एक पीस में बाहर निकाला जाता है।
टांके लगाने की जरूरत होती।
ऑपरेशन के बाद यह तय करने में 10 हफ्ते तक का वक्त लग जाता है कि मरीज के चश्मे का नंबर क्या होगा।
स्मॉल इंसिजन कैटरेक्ट सर्जरी ( SICS )
4-5 मिमी का कट लगाया जाता है।
कैटरैक्ट हाथ से हटाया जाता है और फोल्डेबल इंट्रा-ऑक्युलर लेंस लगा दिया जाता है।
टांके नहीं लगते।
हीलिंग तेज होती है।
माइक्रोइंसिजन कैटरैक्ट सर्जरी (फैकोइमल्सिफिकेशन)
सिर्फ 2 मिमी का कट लगाया जाता है।
अल्ट्रासोनिक वेव्स की मदद से नैचरल लेंस को तोड़ा जाता है और फिर बाहर निकाल दिया जाता है।
खून नहीं निकलता, टांके नहीं आते और दर्द भी नहीं होता।
अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत नहीं है। 15 मिनट में ऑपरेशन हो जाता है।
फैको सर्जरी
मोतियाबिंद के ऑपरेशन की यह लेटेस्ट तकनीक है। इसमें कॉर्निया (आंख की सबसे बाहरी सफेद सतह) पर एक छोटा-सा (सिर्फ 2 मिमी) कट लगाया जाता है। इस कट की मदद से एक छोटी-सी अल्ट्रासोनिक सूई को आंख के अंदर डाल दिया जाता है। इस सूई से अल्ट्रासोनिक वेव्स निकलती हैं, जो खराब हो चुके नेचरल लेंस को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ देती हैं। इसके बाद यह सूई आहिस्ता से इन टुकड़ों को आंख से बाहर खींच लेती है। अब इस लेंस की जगह एक आटिर्फिशल लेंस (इंट्राऑक्युलर लेंस) लगा दिया जाता है। सूई डालने के लिए किया गया 2 मिमी का छेद ऑपरेशन के बाद खुद-ब-खुद भर जाता है और इसमें किसी टांके आदि की जरूरत नहीं होती। पूरे ऑपरेशन में सिर्फ 15 मिनट का वक्त लगता है और मरीज उसी दिन घर जा सकता है।
ऑपरेशन चाहे जिस भी तरीके से किया जा रहा हो, मरीज को ऐनस्थीजिआ दिया जाता है। ऐनस्थीजिआ दो तरह से दिया जा सकता है - लोकल और टॉपिकल। लोकल ऐनस्थीजिआ में आंख की मूवमेंट रुक जाती है और उसमें किसी तरह का कोई दर्द नहीं होता। टॉपिकल ऐनस्थीजिआ देने के लिए आंख में एक ड्राप डाली जाती है। इससे दर्द महसूस नहीं होता, लेकिन आंख का मूवमेंट जारी रहता है। ऐनस्थीजिआ कोई भी दिया जाए लेकिन ऑपरेशन के दौरान मरीज पूरी तरह होश में रहता है। मरीज को कौन-सा एनस्थिसिया दिया जाना है, यह मरीज की आंख की कंडिशन और किस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, जैसी बातों के आधार पर डॉक्टर तय करता है।
कभी-कभी कुछ खास परिस्थितियों में डॉक्टर एक्स्ट्रा कैप्सुलर कैटरैक्ट एक्स्ट्रैक्शन का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। ऐसा तब होता है, जब मरीज सर्जरी कराने में देर कर देता है और उसका लेंस काफी हार्ड हो जाता है। इस मैथड में कॉर्निया में 10 से 12 मिमी का कट लगाया जाता है और नैचरल लेंस साबुत बाहर निकाला जाता है।
फैको सर्जरी के बाद कुछ केसों में मरीज को फौरन दिखना शुरू हो जाता है, जबकि कुछ की नजर सर्जरी के एक या दो दिन बाद ठीक होती है। आमतौर पर दोनों आंख की सर्जरी एक साथ नहीं की जाती। अगर एक आंख की रिकवरी अच्छी है, तो दूसरी आंख का ऑपरेशन अगले दिन भी किया जा सकता है।
सर्जरी के रिस्क
सर्जरी आमतौर पर सफल होती है। यह कोई रिस्की ऑपरेशन नहीं है।
सर्जरी के साइड इफेक्ट्स
सर्जरी कोई भी हो, उसके बाद दर्द, इन्फेक्शन, सूजन और ब्लीडिंग जैसी दिक्कतें हो सकती हैं, लेकिन जहां तक गंभीर साइड इफेक्ट्स की बात है तो बहुत कम मरीजों के साथ ऐसा होता है। इनके लिए आपका सर्जन कुछ दवाएं देता है।
सर्जरी के बाद चश्मा
सर्जरी के बाद मरीजों को दूर का देखने के लिए आमतौर पर चश्मे की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन पास का देखने के लिए चश्मा लगाना पड़ता है। ऑपरेशन के दौरान जो इंट्रा-ऑक्युलर लेंस (आईओएल) आंख में डाला जाता है, उसकी पावर का आकलन कंप्यूटर से किया जाता है और पूरी कोशिश की जाती है कि सर्जरी के बाद नजर ठीक रहे। नैचरल लेंस अलग-अलग दूरियों पर फोकस करने के लिए अपने साइज में बदलाव कर लेता है, लेकिन लेंस चूंकि प्लास्टिक का बना होता है इसलिए इसमें ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता। ऐसे में सर्जरी के बाद आमतौर पर लोगों को नजदीक के लिए चश्मे की जरूरत पड़ ही जाती है।
चश्मे की जरूरत नहीं होगी अगर ...
सर्जरी के दौरान आजकल कुछ ऐसे अकॉमडेटिंग आईओएल का भी यूज किया जा रहा है, जिसे लगवाने के बाद न सिर्फ मोतियाबिंद, बल्कि चश्मे से भी छुटकारा मिल जाता है। ऐसा ही एक लेंस है क्रिस्टालेंस, जो बिल्कुल नैचरल लेंस के जैसा होता है। इसके इस्तेमाल से मरीज को चश्मे से भी निजात मिल जाती है। एफडीए (यूएस फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन) अप्रूव्ड इन लेंसों की मदद से मरीज की पास, बीच और दूर तीनों तरह की नजर ठीक हो जाती है। ऐसे में बेहतर यही है कि साधारण लेंस के बजाय अकॉमडेटिंग लेंस यूज किया जाए। अगर पहले कभी आपने मोतियाबिंद का ऑपरेशन नहीं कराया है और सेहत संबंधी कोई बड़ी समस्या नहीं है तो सर्जरी कराते वक्त इन लेंसों का इस्तेमाल कर सकते हैं। बाकी सलाह आपके सर्जन देंगे।
सर्जरी के बाद केयर
मोतियाबिंद का ऑपरेशन होने के दो घंटे के भीतर मरीज घर जा सकता है।
आंखों में डालने के लिए डॉक्टर दवा देते हैं, जिसे सर्जरी की शाम से डालना शुरू किया जा सकता है। दवा डालने से पहले हाथों को साबुन से धो लेना चाहिए।
खानपान संबंधी कोई बंधन नहीं होता।
आंखों को हाथ से या रुमाल से रगड़ना नहीं है। टिश्यू पेपर से साफ करके टिश्यू पेपर फेंक दें। मकसद यह है कि आंखें किसी भी तरह के इन्फेक्शन से बची रहें।
सर्जरी के दो दिन बाद आप रूटीन के कामों पर लौट सकते हैं। मसलन टीवी देखना, पढ़ना, लिखना, घूमना-फिरना आदि।
बच्चों में भी हो सकता है
ऐसा नहीं है कि मोतियाबिंद सिर्फ उम्र बढ़ने के साथ ही हो सकता है। नवजात बच्चों की आंखों में भी कई बार मोतियाबिंद हो सकता है और युवाओं को भी यह अपनी गिरफ्त में ले सकता है। बच्चों में होने वाला कुछ मोतियाबिंद जन्म के वक्त ही मौजूद होता है। इसे कॉन्जेनिटल कैटरैक्ट कहा जाता है। कुछ बच्चों में जन्म के कुछ महीनों के बाद भी यह डिवेलप हो जाता है। अगर मोतियाबिंद है तो बच्चे की आंख के बीच में या पुतली पर एक सफेद धब्बा दिखाई देगा। घर में इसे पहचान पाना मुश्किल होता है। आमतौर पर जन्म के वक्त बाल रोग विशेषज्ञ इस लक्षण को पहचान लेते हैं। वैसे, जन्म के समय मोतियाबिंद का होना बहुत रेयर है। यहां ध्यान देने की बात यह है कि बड़ों में अगर मोतियाबिंद की सर्जरी में देर कर दी जाए तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन बच्चों के मामले में सर्जरी कराने में बिल्कुल देर नहीं करनी चाहिए क्योंंकि इससे हमेशा के लिए आंख की रोशनी भी जा सकती है। फिर इस उम्र में बच्चा कई तरह की चीजें सीखता है। नजर कमजोर होने के चलते उसके विकास पर भी बुरा असर पड़ सकता है।
योग
यौगिक एक्सरसाइजों के बल पर मोतियाबिंद को पूरी तरह ठीक किया जा सकता है या नहीं, इसके कोई सबूत नहीं हैं, लेकिन हां, कुछ प्राणायाम अगर लगातार किए जाएं, तो ऐसा मुमकिन है कि मोतियाबिंद होने की नौबत ही न आए। नीचे दिए गए प्राणायाम और क्रियाओं को इसी क्रम में रोजाना किया जाए तो आंखों को सेहतमंद रखा जा सकता है।
- कपालभाति
- अनुलोम-विलोम प्राणायाम
- भस्त्रिका प्राणायाम
- आंखों की सूक्ष्म क्रियाएं
होम्योपथी
अगर मोतियाबिंद शुरुआती स्टेज में है तो होम्योपथी से इसका इलाज हो सकता है, लेकिन अगर यह बढ़ चुका है तो बेहतर यही है कि सर्जरी करा ली जाए। शुरुआती स्टेज में मोतियाबिंद होने पर नीचे दी गई दवाओं में से कोई एक लें। दवा की चार गोली दिन में तीन बार लेनी हैं और ऐसा तीन महीने तक करना है। गोली 30 नंबर में बनवाएं।
- कैलकेरिया फ्लोरिका30 Calcarea Fluorica30
- कैलकेरिया कार्ब 30 . Calcarea Carb. 30
- सेलिशिया30 Silicea 30
- जिंकम सल्फ. Zincum Sulph. x®
अगर किसी मरीज का मोतियाबिंद बढ़ (एडवांस्ड स्टेज) गया है और किसी खास वजह से वह ऑपरेशन करा पाने की स्थिति में नहीं है, तो वह इस दवा को ले सकता है।
- कोनियम30 Conium 30
कई बार मोतियाबिंद की सर्जरी करा लेने के बाद कुछ दिक्कतें और साइड इफेक्ट्स आ सकते हैं। मसलन : सूजन आ जाना, लेंस का ठीक से फिट न होना या सही से हीलिंग न होना। ऐसे में ये दवाएं इस्तेमाल करें :
- स्टैफिसैग्रिया30 Staphysagria x®
- आनिर्का30 Arnica x®
अगर मोतियाबिंद 30-35 साल के आसपास आ जाए यानी प्रीमैच्योर कैटरेक्ट है तो ये दवाएं ले सकते हैं :
- लाइकोपोडियम30 Lycopodium x®
- अर्जंटम नाइट्रिकम30 Argentum Nitricum x®
होम्योपैथी में बिना अल्कोहल वाली सिनेरेरिया मैरिटिमा भी मोतियाबिंद की अच्छी दवा है। अगर मोतियाबिंद है तो इसे डालने से वह ठीक होता है, अगर नहीं है तो इसे डालने से मोतियाबिंद होने की आशंका खत्म हो जाती है।
कैसे करें सेवन : दोनों आंखों में एक एक बूंद दिन में चार बार डालें। ऐसा दो महीने तक करें। फिर डॉक्टर को दिखाएं।
नोट : कोई भी दवा डॉक्टर की सलाह के बिना न लें।
आयुर्वेद
आयुवेर्द के मुताबिक मोतियाबिंद वात रोग है। जब आंख पर वायु का दबाव बढ़ता है तो मोतियाबिंद होता है। अगर मोतियाबिंद शुरुआती स्टेज में है तो उसे आयुवेर्द के जरिए ठीक किया जा सकता है। इसकी वजहों में शामिल हैं : ज्यादा उपवास करना, सिरका जैसी खट्टी चीजों का ज्यादा इस्तेमाल, बिना सिर ढके तेज धूप में घूमना आदि।
बचाव : बचाव के लिए सुबह जागने के बाद मुंह में ठंडा पानी भरकर आंखों पर पानी के छपाके मारें।
1 चम्मच त्रिफला चूर्ण, आधा चम्मच देसी घी और 1 चम्मच शहद को मिला लें। इसे रोज सुबह खाली पेट लेना है। जिन लोगों को मोतियाबिंद नहीं भी है, वे भी इसे लें। इससे मोतियाबिंद के साथ-साथ आंखों की कई दूसरी बीमारियों से बचाव होता है।
गाजर, संतरे, दूध और घी का भरपूर इस्तेमाल करें।
इलाज : जिन लोगों को मोतियाबिंद की शुरुआत हो चुकी है, उन्हें आरोग्यवद्धिर्नी वटी, पुनर्नवादि मंडूर और सप्तामृत लौह जैसी दवाएं दी जाती हैं, लेकिन इन दवाओं को बिना वैद्य की सलाह के नहीं लेना चाहिए।
इसके अलावा एक बूंद प्याज का रस और एक बूंद शहद मिला लें। इसे काजल की तरह आंख में रोजाना लगाएं। आंखों से पानी निकलेगा और समस्या दूर होगी।
1 चम्मच घी, दो काली मिर्च और थोड़ी-सी मिश्री मिलाकर दिन में तीन बार लें।
मिथ
1. मोतियाबिंद का ऑपरेशन लेसर से भी होता है।
मोतियाबिंद को लेसर से ठीक नहीं किया जा सकता। फैको तरीके से की गई सर्जरी को ही कुछ लोग लेसर सर्जरी कह देते हैं। हां, बहुत कम मामलों में जब मोतियाबिंद लौट आता है, तो उसे ठीक करने के लिए लेसर का इस्तेमाल किया जाता है।
2. दवाओं से ठीक हो सकता है मोतियाबिंद।
मोतियाबिंद किसी भी दवा से, अच्छे खानपान से, विटामिनों की खुराक से या एक्सरसाइज करने से ठीक नहीं होता। दवाओं से इसके बढ़ने की स्पीड को भी कम नहीं किया जा सकता और न ही इसे होने से रोका जा सकता है। इलाज का एकमात्र तरीका ऑपरेशन ही है।
3. पूरी तरह पक जाने पर ही ऑपरेशन कराना चाहिए।
ऑपरेशन कराने के लिए मोतियाबिंद का पकना जरूरी नहीं है। शुरुआती दौर में भी मोतियाबिंद का ऑपरेशन कराया जा सकता है, बल्कि ज्यादा अच्छा तो यही है कि इसे जल्दी ही करा लेना चाहिए क्योंकि बाद की स्टेज में ऑपरेशन थोड़ा मुश्किल हो जाता है।
4. सर्जरी सर्दियों में ही करानी चाहिए, बरसात और गमिर्यों से बचना चाहिए।
मोतियाबिंद की सर्जरी किसी भी सीजन में कराई जा सकती है। गमिर्यों या बरसात में कराने से सर्जरी के रिजल्ट पर कोई असर नहीं होता। हां, सर्जरी के बाद इन्फेक्शन से बचना जरूरी है और उसका मौसम से कोई लेना-देना नहीं है।
5. ज्यादा पढ़ने या आंखों का ज्यादा यूज करने से होता है मोतियाबिंद
आंखों पर पड़ने वाला ज्यादा स्टेन या आंखों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल मोतियाबिंद की वजह नहीं होता। यह उम्र से संबंधित बीमारी है और उम्र के साथ-साथ ज्यादातर लोगों में हो जाती है। इसे रोका नहीं जा सकता।
6. ऑपरेशन के बाद भी मोतियाबिंद लौट सकता है।
एक बार सर्जरी करा लेने के बाद मोतियाबिंद दोबारा नहीं लौटता क्योंकि पूरा-का-पूरा खराब लेंस बाहर निकाल दिया जाता है। बहुत कम लोगांे में नया लेंस भी एक साल बाद धुंधला (क्लाउडी) हो जाता है, जिसे एक मामूली-से ऑपरेशन से ठीक कर दिया जाता है।
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. महिपाल सचदेव, चेयरमैन, सेंटर फॉर साइट
डॉ. नोशिर श्रॉफ, मेडिकल डायरेक्टर, श्रॉफ आई सेंटर
डॉ. सुशील वत्स, मेंबर, इगेक्युटिव कमिटी (दिल्ली होम्योपैथी रिसर्च काउंसिल)
डॉ. सुरक्षित गोस्वामी, जाने-माने योग गुरु
डॉ. एल. के. त्रिपाठी, वरिष्ठ आयुर्वेदिक चिकित्सक
Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/6880403.cms
क्या है मोतियाबिंद
मोतियाबिंद का पूरा मिकेनिजम समझने के लिए हमें आंख की संरचना समझने की जरूरत है। हमारी आंख की पुतली के पीछे एक लेंस होता है। पुतली पर पड़ने वाली लाइट को यह लेंस फोकस करता है और रेटिना पर ऑब्जेक्ट की साफ इमेज बनाता है। रेटिना से यह इमेज नर्व्स तक और वहां से दिमाग तक पहुंचती है। आंख की पुतली के पीछे मौजूद यह लेंस पूरी तरह से साफ होता है, ताकि इससे लाइट आसानी से पास हो सके। कभी-कभी इस लेंस पर कुछ धुंधलापन (क्लाउडिंग) आ जाता है, जिसकी वजह से इससे पास होने वाली लाइट ब्लॉक होने लगती है। इसका नतीजा यह होता है कि पूरी लाइट पास होने पर जो ऑब्जेक्ट इंसान को बिल्कुल साफ दिखाई देता था, अब कम लाइट पास होने की वजह से वही ऑब्जेक्ट धुंधला नजर आने लगता है। लेंस पर होनेवाले इसी धुंधलेपन या क्लाउडिंग की स्थिति को कैटरैक्ट या मोतियाबिंद कहा जाता है। यह क्लाउडिंग धीरे-धीरे बढ़ती जाती है और मरीज की नजर पहले से ज्यादा धुंधली होती जाती है।
उम्र बढ़ने के साथ लगभग सभी लोगों में मोतियाबिंद हो जाता है। आमतौर पर 55 साल से ज्यादा उम्र के लोगों में यह बीमारी होती है, लेकिन कई बार यह युवाओं में भी हो सकता है और बच्चों में भी। कुछ बच्चों में यह जन्म से ही होता है और कुछ में बाद में डिवेलप हो जाता है। यह एक आंख में भी हो सकता है और दोनों में भी। हो सकता है, यह पूरे लेंस को ही प्रभावित कर दे और यह भी हो सकता है कि लेंस के कुछ हिस्से को ही प्रभावित करे। वैसे, मोतियाबिंद धीरे-धीरे डिवेलप होता है और इसमें किसी तरह का दर्द नहीं होता।
वजह
बढ़ती उम्र
आंख में लगी कोई चोट
स्टेरॉइड वाली दवाओं के ज्यादा सेवन से
अल्ट्रावॉयलेट लाइट के सामने ज्यादा एक्सपोजर (मसलन वेल्डिंग के वक्त आनेवाली लाइट आदि)
स्मोकिंग और डायबीटीज
लक्षण
धुंधला नजर आना
धीरे-धीरे नजर कमजोर होते जाना
रंगों को ठीक से न देख पाना
रात में हेडलाइट्स ज्यादा तेज नजर आना (इससे ड्राइविंग में दिक्कत)
सूरज की रोशनी को देखने में दिक्कत आना या चकाचौंध लगना
चश्मे के नंबर में बार-बार बदलाव होना।
बचना मुश्किल है इस मर्ज से
मोतियाबिंद की सबसे आम वजह है बढ़ती उम्र। जैसे उम्र बढ़ने को रोका नहीं जा सकता, वैसे ही मोतियाबिंद को रोक पाना भी मुमकिन नहीं। आमतौर पर यह 55 साल की उम्र में होता है। टीवी देखने से बचना, कम पढ़ना और आंखों का कम इस्तेमाल करना जैसी बातों से मोतियाबिंद नहीं रुकता। ऐसी कोई दवा नहीं बनी है, जिससे मोतियाबिंद को होने से रोका जा सके या फिर उसे ठीक किया जा सके।
क्या है इलाज
मोतियाबिंद का एकमात्र इलाज ऑपरेशन है और मोतियाबिंद होने के बाद जितनी जल्दी हो सके, ऑपरेशन करा लेना चाहिए। मोतियाबिंद के ऑपरेशन के दौरान सर्जन आंख की पुतली के पीछे मौजूद धुंधले पड़ चुके नैचरल लेंस को हटा देते हैं और उसकी जगह नया आर्टिफिशल लेंस लगा देते हैं। आटिर्फिशल लेंस को इंट्रा-ऑक्यूलर लेंस कहा जाता है। ऑपरेशन की आजकल तीन तकनीक हैं। पहली तरीका परंपरागत है, जिसे एक्स्ट्रा कैप्सुलर कैटरैक्ट एक्स्ट्रैक्शन यानी ईसीसीई कहा जाता है। यह काफी पहले किया जाता था। दूसरा तरीका है स्मॉल इंसिजन कैटरैक्ट सर्जरी (एसआईसीएस)। इसे भी अब कम ही इस्तेमाल किया जाता है। लेटेस्ट तरीका है, माइक्रोइंसिजन कैटरैक्ट सर्जरी यानी फैकोइमल्सिफिकेशन। इसे फैको सर्जरी भी कहते हैं। मोतियाबिंद के ऑपरेशन में आजकल इसी तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है।
एक्स्ट्रा कैप्सुलर कैटरैक्ट एक्स्ट्रैक्शन ( ECCE )
कॉर्निया में 10-12 मिमी का कट लगाया जाता है।
नैचरल लेंस को एक पीस में बाहर निकाला जाता है।
टांके लगाने की जरूरत होती।
ऑपरेशन के बाद यह तय करने में 10 हफ्ते तक का वक्त लग जाता है कि मरीज के चश्मे का नंबर क्या होगा।
स्मॉल इंसिजन कैटरेक्ट सर्जरी ( SICS )
4-5 मिमी का कट लगाया जाता है।
कैटरैक्ट हाथ से हटाया जाता है और फोल्डेबल इंट्रा-ऑक्युलर लेंस लगा दिया जाता है।
टांके नहीं लगते।
हीलिंग तेज होती है।
माइक्रोइंसिजन कैटरैक्ट सर्जरी (फैकोइमल्सिफिकेशन)
सिर्फ 2 मिमी का कट लगाया जाता है।
अल्ट्रासोनिक वेव्स की मदद से नैचरल लेंस को तोड़ा जाता है और फिर बाहर निकाल दिया जाता है।
खून नहीं निकलता, टांके नहीं आते और दर्द भी नहीं होता।
अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत नहीं है। 15 मिनट में ऑपरेशन हो जाता है।
फैको सर्जरी
मोतियाबिंद के ऑपरेशन की यह लेटेस्ट तकनीक है। इसमें कॉर्निया (आंख की सबसे बाहरी सफेद सतह) पर एक छोटा-सा (सिर्फ 2 मिमी) कट लगाया जाता है। इस कट की मदद से एक छोटी-सी अल्ट्रासोनिक सूई को आंख के अंदर डाल दिया जाता है। इस सूई से अल्ट्रासोनिक वेव्स निकलती हैं, जो खराब हो चुके नेचरल लेंस को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ देती हैं। इसके बाद यह सूई आहिस्ता से इन टुकड़ों को आंख से बाहर खींच लेती है। अब इस लेंस की जगह एक आटिर्फिशल लेंस (इंट्राऑक्युलर लेंस) लगा दिया जाता है। सूई डालने के लिए किया गया 2 मिमी का छेद ऑपरेशन के बाद खुद-ब-खुद भर जाता है और इसमें किसी टांके आदि की जरूरत नहीं होती। पूरे ऑपरेशन में सिर्फ 15 मिनट का वक्त लगता है और मरीज उसी दिन घर जा सकता है।
ऑपरेशन चाहे जिस भी तरीके से किया जा रहा हो, मरीज को ऐनस्थीजिआ दिया जाता है। ऐनस्थीजिआ दो तरह से दिया जा सकता है - लोकल और टॉपिकल। लोकल ऐनस्थीजिआ में आंख की मूवमेंट रुक जाती है और उसमें किसी तरह का कोई दर्द नहीं होता। टॉपिकल ऐनस्थीजिआ देने के लिए आंख में एक ड्राप डाली जाती है। इससे दर्द महसूस नहीं होता, लेकिन आंख का मूवमेंट जारी रहता है। ऐनस्थीजिआ कोई भी दिया जाए लेकिन ऑपरेशन के दौरान मरीज पूरी तरह होश में रहता है। मरीज को कौन-सा एनस्थिसिया दिया जाना है, यह मरीज की आंख की कंडिशन और किस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, जैसी बातों के आधार पर डॉक्टर तय करता है।
कभी-कभी कुछ खास परिस्थितियों में डॉक्टर एक्स्ट्रा कैप्सुलर कैटरैक्ट एक्स्ट्रैक्शन का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। ऐसा तब होता है, जब मरीज सर्जरी कराने में देर कर देता है और उसका लेंस काफी हार्ड हो जाता है। इस मैथड में कॉर्निया में 10 से 12 मिमी का कट लगाया जाता है और नैचरल लेंस साबुत बाहर निकाला जाता है।
फैको सर्जरी के बाद कुछ केसों में मरीज को फौरन दिखना शुरू हो जाता है, जबकि कुछ की नजर सर्जरी के एक या दो दिन बाद ठीक होती है। आमतौर पर दोनों आंख की सर्जरी एक साथ नहीं की जाती। अगर एक आंख की रिकवरी अच्छी है, तो दूसरी आंख का ऑपरेशन अगले दिन भी किया जा सकता है।
सर्जरी के रिस्क
सर्जरी आमतौर पर सफल होती है। यह कोई रिस्की ऑपरेशन नहीं है।
सर्जरी के साइड इफेक्ट्स
सर्जरी कोई भी हो, उसके बाद दर्द, इन्फेक्शन, सूजन और ब्लीडिंग जैसी दिक्कतें हो सकती हैं, लेकिन जहां तक गंभीर साइड इफेक्ट्स की बात है तो बहुत कम मरीजों के साथ ऐसा होता है। इनके लिए आपका सर्जन कुछ दवाएं देता है।
सर्जरी के बाद चश्मा
सर्जरी के बाद मरीजों को दूर का देखने के लिए आमतौर पर चश्मे की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन पास का देखने के लिए चश्मा लगाना पड़ता है। ऑपरेशन के दौरान जो इंट्रा-ऑक्युलर लेंस (आईओएल) आंख में डाला जाता है, उसकी पावर का आकलन कंप्यूटर से किया जाता है और पूरी कोशिश की जाती है कि सर्जरी के बाद नजर ठीक रहे। नैचरल लेंस अलग-अलग दूरियों पर फोकस करने के लिए अपने साइज में बदलाव कर लेता है, लेकिन लेंस चूंकि प्लास्टिक का बना होता है इसलिए इसमें ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता। ऐसे में सर्जरी के बाद आमतौर पर लोगों को नजदीक के लिए चश्मे की जरूरत पड़ ही जाती है।
चश्मे की जरूरत नहीं होगी अगर ...
सर्जरी के दौरान आजकल कुछ ऐसे अकॉमडेटिंग आईओएल का भी यूज किया जा रहा है, जिसे लगवाने के बाद न सिर्फ मोतियाबिंद, बल्कि चश्मे से भी छुटकारा मिल जाता है। ऐसा ही एक लेंस है क्रिस्टालेंस, जो बिल्कुल नैचरल लेंस के जैसा होता है। इसके इस्तेमाल से मरीज को चश्मे से भी निजात मिल जाती है। एफडीए (यूएस फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन) अप्रूव्ड इन लेंसों की मदद से मरीज की पास, बीच और दूर तीनों तरह की नजर ठीक हो जाती है। ऐसे में बेहतर यही है कि साधारण लेंस के बजाय अकॉमडेटिंग लेंस यूज किया जाए। अगर पहले कभी आपने मोतियाबिंद का ऑपरेशन नहीं कराया है और सेहत संबंधी कोई बड़ी समस्या नहीं है तो सर्जरी कराते वक्त इन लेंसों का इस्तेमाल कर सकते हैं। बाकी सलाह आपके सर्जन देंगे।
सर्जरी के बाद केयर
मोतियाबिंद का ऑपरेशन होने के दो घंटे के भीतर मरीज घर जा सकता है।
आंखों में डालने के लिए डॉक्टर दवा देते हैं, जिसे सर्जरी की शाम से डालना शुरू किया जा सकता है। दवा डालने से पहले हाथों को साबुन से धो लेना चाहिए।
खानपान संबंधी कोई बंधन नहीं होता।
आंखों को हाथ से या रुमाल से रगड़ना नहीं है। टिश्यू पेपर से साफ करके टिश्यू पेपर फेंक दें। मकसद यह है कि आंखें किसी भी तरह के इन्फेक्शन से बची रहें।
सर्जरी के दो दिन बाद आप रूटीन के कामों पर लौट सकते हैं। मसलन टीवी देखना, पढ़ना, लिखना, घूमना-फिरना आदि।
बच्चों में भी हो सकता है
ऐसा नहीं है कि मोतियाबिंद सिर्फ उम्र बढ़ने के साथ ही हो सकता है। नवजात बच्चों की आंखों में भी कई बार मोतियाबिंद हो सकता है और युवाओं को भी यह अपनी गिरफ्त में ले सकता है। बच्चों में होने वाला कुछ मोतियाबिंद जन्म के वक्त ही मौजूद होता है। इसे कॉन्जेनिटल कैटरैक्ट कहा जाता है। कुछ बच्चों में जन्म के कुछ महीनों के बाद भी यह डिवेलप हो जाता है। अगर मोतियाबिंद है तो बच्चे की आंख के बीच में या पुतली पर एक सफेद धब्बा दिखाई देगा। घर में इसे पहचान पाना मुश्किल होता है। आमतौर पर जन्म के वक्त बाल रोग विशेषज्ञ इस लक्षण को पहचान लेते हैं। वैसे, जन्म के समय मोतियाबिंद का होना बहुत रेयर है। यहां ध्यान देने की बात यह है कि बड़ों में अगर मोतियाबिंद की सर्जरी में देर कर दी जाए तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन बच्चों के मामले में सर्जरी कराने में बिल्कुल देर नहीं करनी चाहिए क्योंंकि इससे हमेशा के लिए आंख की रोशनी भी जा सकती है। फिर इस उम्र में बच्चा कई तरह की चीजें सीखता है। नजर कमजोर होने के चलते उसके विकास पर भी बुरा असर पड़ सकता है।
योग
यौगिक एक्सरसाइजों के बल पर मोतियाबिंद को पूरी तरह ठीक किया जा सकता है या नहीं, इसके कोई सबूत नहीं हैं, लेकिन हां, कुछ प्राणायाम अगर लगातार किए जाएं, तो ऐसा मुमकिन है कि मोतियाबिंद होने की नौबत ही न आए। नीचे दिए गए प्राणायाम और क्रियाओं को इसी क्रम में रोजाना किया जाए तो आंखों को सेहतमंद रखा जा सकता है।
- कपालभाति
- अनुलोम-विलोम प्राणायाम
- भस्त्रिका प्राणायाम
- आंखों की सूक्ष्म क्रियाएं
होम्योपथी
अगर मोतियाबिंद शुरुआती स्टेज में है तो होम्योपथी से इसका इलाज हो सकता है, लेकिन अगर यह बढ़ चुका है तो बेहतर यही है कि सर्जरी करा ली जाए। शुरुआती स्टेज में मोतियाबिंद होने पर नीचे दी गई दवाओं में से कोई एक लें। दवा की चार गोली दिन में तीन बार लेनी हैं और ऐसा तीन महीने तक करना है। गोली 30 नंबर में बनवाएं।
- कैलकेरिया फ्लोरिका30 Calcarea Fluorica30
- कैलकेरिया कार्ब 30 . Calcarea Carb. 30
- सेलिशिया30 Silicea 30
- जिंकम सल्फ. Zincum Sulph. x®
अगर किसी मरीज का मोतियाबिंद बढ़ (एडवांस्ड स्टेज) गया है और किसी खास वजह से वह ऑपरेशन करा पाने की स्थिति में नहीं है, तो वह इस दवा को ले सकता है।
- कोनियम30 Conium 30
कई बार मोतियाबिंद की सर्जरी करा लेने के बाद कुछ दिक्कतें और साइड इफेक्ट्स आ सकते हैं। मसलन : सूजन आ जाना, लेंस का ठीक से फिट न होना या सही से हीलिंग न होना। ऐसे में ये दवाएं इस्तेमाल करें :
- स्टैफिसैग्रिया30 Staphysagria x®
- आनिर्का30 Arnica x®
अगर मोतियाबिंद 30-35 साल के आसपास आ जाए यानी प्रीमैच्योर कैटरेक्ट है तो ये दवाएं ले सकते हैं :
- लाइकोपोडियम30 Lycopodium x®
- अर्जंटम नाइट्रिकम30 Argentum Nitricum x®
होम्योपैथी में बिना अल्कोहल वाली सिनेरेरिया मैरिटिमा भी मोतियाबिंद की अच्छी दवा है। अगर मोतियाबिंद है तो इसे डालने से वह ठीक होता है, अगर नहीं है तो इसे डालने से मोतियाबिंद होने की आशंका खत्म हो जाती है।
कैसे करें सेवन : दोनों आंखों में एक एक बूंद दिन में चार बार डालें। ऐसा दो महीने तक करें। फिर डॉक्टर को दिखाएं।
नोट : कोई भी दवा डॉक्टर की सलाह के बिना न लें।
आयुर्वेद
आयुवेर्द के मुताबिक मोतियाबिंद वात रोग है। जब आंख पर वायु का दबाव बढ़ता है तो मोतियाबिंद होता है। अगर मोतियाबिंद शुरुआती स्टेज में है तो उसे आयुवेर्द के जरिए ठीक किया जा सकता है। इसकी वजहों में शामिल हैं : ज्यादा उपवास करना, सिरका जैसी खट्टी चीजों का ज्यादा इस्तेमाल, बिना सिर ढके तेज धूप में घूमना आदि।
बचाव : बचाव के लिए सुबह जागने के बाद मुंह में ठंडा पानी भरकर आंखों पर पानी के छपाके मारें।
1 चम्मच त्रिफला चूर्ण, आधा चम्मच देसी घी और 1 चम्मच शहद को मिला लें। इसे रोज सुबह खाली पेट लेना है। जिन लोगों को मोतियाबिंद नहीं भी है, वे भी इसे लें। इससे मोतियाबिंद के साथ-साथ आंखों की कई दूसरी बीमारियों से बचाव होता है।
गाजर, संतरे, दूध और घी का भरपूर इस्तेमाल करें।
इलाज : जिन लोगों को मोतियाबिंद की शुरुआत हो चुकी है, उन्हें आरोग्यवद्धिर्नी वटी, पुनर्नवादि मंडूर और सप्तामृत लौह जैसी दवाएं दी जाती हैं, लेकिन इन दवाओं को बिना वैद्य की सलाह के नहीं लेना चाहिए।
इसके अलावा एक बूंद प्याज का रस और एक बूंद शहद मिला लें। इसे काजल की तरह आंख में रोजाना लगाएं। आंखों से पानी निकलेगा और समस्या दूर होगी।
1 चम्मच घी, दो काली मिर्च और थोड़ी-सी मिश्री मिलाकर दिन में तीन बार लें।
मिथ
1. मोतियाबिंद का ऑपरेशन लेसर से भी होता है।
मोतियाबिंद को लेसर से ठीक नहीं किया जा सकता। फैको तरीके से की गई सर्जरी को ही कुछ लोग लेसर सर्जरी कह देते हैं। हां, बहुत कम मामलों में जब मोतियाबिंद लौट आता है, तो उसे ठीक करने के लिए लेसर का इस्तेमाल किया जाता है।
2. दवाओं से ठीक हो सकता है मोतियाबिंद।
मोतियाबिंद किसी भी दवा से, अच्छे खानपान से, विटामिनों की खुराक से या एक्सरसाइज करने से ठीक नहीं होता। दवाओं से इसके बढ़ने की स्पीड को भी कम नहीं किया जा सकता और न ही इसे होने से रोका जा सकता है। इलाज का एकमात्र तरीका ऑपरेशन ही है।
3. पूरी तरह पक जाने पर ही ऑपरेशन कराना चाहिए।
ऑपरेशन कराने के लिए मोतियाबिंद का पकना जरूरी नहीं है। शुरुआती दौर में भी मोतियाबिंद का ऑपरेशन कराया जा सकता है, बल्कि ज्यादा अच्छा तो यही है कि इसे जल्दी ही करा लेना चाहिए क्योंकि बाद की स्टेज में ऑपरेशन थोड़ा मुश्किल हो जाता है।
4. सर्जरी सर्दियों में ही करानी चाहिए, बरसात और गमिर्यों से बचना चाहिए।
मोतियाबिंद की सर्जरी किसी भी सीजन में कराई जा सकती है। गमिर्यों या बरसात में कराने से सर्जरी के रिजल्ट पर कोई असर नहीं होता। हां, सर्जरी के बाद इन्फेक्शन से बचना जरूरी है और उसका मौसम से कोई लेना-देना नहीं है।
5. ज्यादा पढ़ने या आंखों का ज्यादा यूज करने से होता है मोतियाबिंद
आंखों पर पड़ने वाला ज्यादा स्टेन या आंखों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल मोतियाबिंद की वजह नहीं होता। यह उम्र से संबंधित बीमारी है और उम्र के साथ-साथ ज्यादातर लोगों में हो जाती है। इसे रोका नहीं जा सकता।
6. ऑपरेशन के बाद भी मोतियाबिंद लौट सकता है।
एक बार सर्जरी करा लेने के बाद मोतियाबिंद दोबारा नहीं लौटता क्योंकि पूरा-का-पूरा खराब लेंस बाहर निकाल दिया जाता है। बहुत कम लोगांे में नया लेंस भी एक साल बाद धुंधला (क्लाउडी) हो जाता है, जिसे एक मामूली-से ऑपरेशन से ठीक कर दिया जाता है।
एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. महिपाल सचदेव, चेयरमैन, सेंटर फॉर साइट
डॉ. नोशिर श्रॉफ, मेडिकल डायरेक्टर, श्रॉफ आई सेंटर
डॉ. सुशील वत्स, मेंबर, इगेक्युटिव कमिटी (दिल्ली होम्योपैथी रिसर्च काउंसिल)
डॉ. सुरक्षित गोस्वामी, जाने-माने योग गुरु
डॉ. एल. के. त्रिपाठी, वरिष्ठ आयुर्वेदिक चिकित्सक
Source : http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/6880403.cms
2 comments:
सम्पूर्ण पोस्ट है...
कोई जानकारी छूटी नहीं..
बहुत बहुत शुक्रिया...
यह तो कमाल की उपयोगी जनकारी है।
पूरा पैकेज ही है, सब विधाओं का।
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