ज्ञानतंत्र की रहस्यबोध कथाएं
वैसे तो उनका नाम तुषार था लेकिन श्री श्री गजदन्त प्रवेश पीड़क देव जी महाराज ने उसका अनुवाद करके उसे सरल कर दिया था। वह उन्हें ओला कहकर बुलाते थे। ओला बाबू ग़ज़ब के पियक्कड़थे। जब वे पी लेते थे तो बाज़ारे हुस्न की तरफ़ उनके क़दम ख़ुद ब ख़ुद उठ जाते थे। घर पर भी उनकी गर्लफ़्रेंड सेलेकर ब्वायफ़्रेन्ड तक सभी हस्बे ख्वाहिश आते जाते रहते थ। जिस समय तेज़ तूफ़ानी बरसात में उनकी पत्नी शीतल घर पर प्रसव पीड़ा से कराह रही थी। उस समय भी वे बाज़ारे हुस्न की किसी सिगड़ी पर अपना दिल सेक रहेथे। बहरहाल उनके घर दो जुड़वा बच्चे हुए। बच्चे जनते हुए शीतल तन्हाई मेंही मर गई। तूफ़ान थमा तो कोई पड़ोसन उसके पति की शिकायत लेकर आई कि शीतल का पति उसके पति को अपनी सोहबत में रखकर ख़राब कर रहा है लेकिन वहां उसे जुड़वा बच्चे रोते हुए मिले। मुहल्ले के पंडित जी ने एक का नाम धर्म रख दिया और दूसरे का विवेक। पड़ोसी कभी नहीं जान पाए कि इन में पहले कौन पैदा हुआ, धर्म या विवेक?
बेमां के बच्चे पड़ोसियों और रिश्तेदारों की देखरेख में बड़े हुए। इसलिए वे ओला बाबूके बुरे असर से बच गए। धर्म और विवेक स्कूल जाने लायक़ हुए तो ताऊ, चाचा और मामा फूफा ने, सबने उन्हें बोर्डिंग स्कूल में दाखि़ल करवा दिया। साल में एक दो बार ही वे दोनोंअपने घर आ पाते। इसलिए वे ओला बाबू की सोहबत से बच बचाकर बड़े होते चले गए।
पढ़ाई पूरी करके वे दोनों घर लौटे तोओला बाबू की जान आफ़त में आ गई। अब अगर वे शराब पीतेया कोई और ऐब करते तो धर्म और विवेक दोनों उन्हें टोकते। इस टोका टोकी के चलतेओला बाबू के गर्लर्फ़ेन्ड और ब्वाॅयफ़्रेंन्ड ने तो उनके घर आना ही छोड़ दिया था। ओला बाबू की अक्ल शराब पीकर खोखली हो चुकी थी। वे उनके पास विचार करने लायक़ अक्ल न बची थी। उनके दोस्त भी उनकी ही तरह खोखले हो चुकेथे। फिर भी उन्होंनेअपना मसला अपने दोस्तों के सामने रखा।
ओला बाबू बोले-मैंने तय कर लिया है कि मैं अपने दोनों बच्चों को, धर्म को और विवेक को त्याग दूंगा।
जग्गी ने पूछा-लेकिन क्यों?
ओला बाबू-दोनों बहुत टोका टाकी करते हैं। यह सब मुझे पसंद नहीं है। मां मर गई लेकिन दो मुस्टंडे मेरी जान को छोड़ गई।
केशव-यह ठीक नहीं है।
शरद-हां, यह ठीक नहीं है।
ओला बाबू-यह ठीक नहीं हैतो फिर ठीक तुम बता दो।
देखोठीक तो तुम्हारी रज्जो ही बता सकती है। तुम उसी से पता कर लो।
ओला बाबू बाज़ारे हुस्न पहुंचे। रज्जो ने पूरी बात सुनी। वह दो चार बार धर्म और विवेक से मिल भी चुकी थी। उसने कहा कि दोनों को छोड़ना वाक़ई ठीक नहीं है। बुढ़ापे के लिए एक लाठी तो साथ रखनी ही चाहिए। तुम धर्म को विदा करोऔर विवेक को अपना लो।
...लेकिन टोका टोकी तो विवेक भी करता है-ओला बोला।
अब करता है। धर्म से जुदा होकर नहीं करेगा।-रज्जो बोली।
क्या मतलब?-ओला ने कॉस्मिक लेवल की हैरानी ज़ाहिर की।
देखो, धर्म सोचता है सही-ग़लत की बुनियाद पर और विवेक सोचता है नफ़े-नुक्सान की बुनियाद पर। धर्म साथ में होता है विवेक पर धर्म हावी रहता है। वह नफ़ा नुक्सान सही-ग़लत की बुनियाद पर तय करता है। आपको मनमानी करनी है तो धर्म कोविदा कर दोगे तो फिर विवेक सही-ग़लत की बुनियाद पर नहीं सोचेगा। वह सोचेगा नफ़े-नुक्सान की बुनियाद पर। विवेक को लगेगा कि अगर वह आपकोआपकी लतों पर टोकेगा तो फिर आप उसे भी विदा कर देंगे। लिहाज़ा वह आपको नहीं टोकेगा और तुम्हारी मनमानी चलती रहेगी। धर्म से कटते ही विवेक का सोचने का अंदाज़ बदल जाता है। यह हम से ज़्यादा कौन जान सकता है।-रज्जो ने अपने तजुर्बे को दलील के तौर पर पेश किया।
ओला बाबू ने अपने घर से धर्म को विदा कर दिया। विवेक अब भी उनके साथ है लेकिन विवेक के साथ कोई नहीं है। विवेक ने धर्म से जुदा नहीं होना चाहा लेकिन उसके अरमानों पर तुषारापात हो चुका है।
ओला बाबू अब इस समस्या को हल करने के विशेषज्ञ के रूप में मशहूर हो चुके हैं। दूर दराज़ से लोग उनके वचन सुनने के लिए आने लगे हैं। सबके घर में धर्म और विवेक के रूप में कोई न कोई मौजूद है। वह सबको यही सलाह देते हैं कि धर्म को विदा करो, विवेक को अपना लो।
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कहानी कैसी लगी?
4 comments:
बिना विवेक के इंसान इंसान नहीं कहलाता है ..
बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति ...
त्रुटि पूर्ण कथा है.........
---"धर्म सोचता है सही-ग़लत की बुनियाद पर और विवेक सोचता है नफ़े-नुक्सान की बुनियाद पर। धर्म साथ में होता है विवेक पर धर्म हावी रहता है। वह नफ़ा नुक्सान सही-ग़लत की बुनियाद पर तय करता है।"...
---- यह तथ्य ही त्रुटिपूर्ण है लेखक को धर्म एवं विवेक का अर्थ नहीं पता...... धर्म बाहरी वस्तु है जीवन व्यवहार की ...जबकि विवेक आतंरिक ज्ञान है वस्तुस्थिति को यथातथ्य विवेचित करने का ..... विवेक होने पर ही तो व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चल पड़ता है |......अविवेकी धर्म मार्ग को नहीं समझ सकता.....विवेक को साथ रखने पर ओला बाबू धर्म के मार्ग पर स्वयं चलने लगेंगे, और गलत-सलत परामर्श नहीं देपायेंगे......
सुन्दर बोध कथा। पानी का गुण है शीतलता ,पानी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता ,वही उसका धर्म है। जो सनातन है सत्य है कभी नहीं बदलता न कम होता है न ज्यादा वह धर्म है विवेक बदल सकता है समाज गत है। लाभ गत है। जो सनातन है वह सबके लिए हैं। सार्वत्रिक है। विवेक सबका अपना होता है।
पक्षपातपूर्ण कहानी , कहानी तब बेहतर होती जब इसके पात्रों के नाम दीन , ईमान , अली , अनवर आदि होते ...
कहानी लिखने के पहले सोचिये कि क्या कहानी आपके दिल के भीतर से आ रही है या कुछ सोचकर विषय विशेष पर बात बनाई जा रही है , क्या विवेक का इस्तेमाल धर्म के ऊपर की इजाजत है आपके यहाँ :) , एक कहावत है पर उपदेश कुशल बहुतेरे ..
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