राजनैतिक संतों की परंपरा

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  • Wednesday, August 24, 2011
  • by
  • devendra gautam
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  • गीता में भी कहा गया है और भारतीय मान्यता है कि जब-जब धर्म की हानि होती है ईश्वर का अवतार होता है. ईश्वर तो नहीं लेकिन हमने देखा है कि भारत में जब-जब सत्ता निरंकुशता की और बढ़ी है और उसके प्रति जनता का आक्रोश बढ़ा है एक राजनैतिक संत का आगमन हुआ है जिसके पीछे पूरा जन-सैलाब उमड़ पड़ा है. महात्मा गांधी से लेकर अन्ना हजारे तक यह सिलसिला चल रहा है. विनोबा भावे, लोकनायक जय प्रकाश नारायण समेत दर्जनों राजनैतिक संत पिछले छः-सात दशक में सामने आ चुके हैं. इनपर आम लोगों की प्रगाढ़ आस्था रहती है लेकिन सत्ता और पद से उन्हें सख्त विरक्ति होती है. अभी तक के अनुभव बताते हैं कि राजनैतिक संतों की यह विरक्ति अंततः उनकी उपलब्धियों पर पानी फेर देती है. महात्मा गांधी के प्रति आम भारतीयों में अपार श्रद्धा थी. उनहोंने आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्त्व किया. सत्याग्रह के अमोघ अस्त्र के जरिये आजादी दिलाई लेकिन सत्ता का नेतृत्त्व ऐसे हाथों में सौंप दिया जो जन-आकांक्षाओं की कसौटी पर खरे नहीं उतरे और समाज को जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बांटकर वोटों का समीकरण बनाने और सत्ता पर काबिज़ रहने की तिकड़मों में व्यस्त हो गए. गद्दी पर बैठने के बाद उन्होंने गांधी को भी अप्रासंगिक मान लिया और उनके नाम का उपयोग सिर्फ अपने कुरूप चेहरे को ढकने के लिए करने लगे. कुछ सुधारवादी संतों के बाद सत्ता को पलट देने वाले संत लोकनायक जयप्रकाश नारायण आये. उन्होंने भी सत्ता की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में सौंप दी जो जन आकांक्षाओं के अनुरूप शासन नहीं दे सके. जिन्होंने अपनी गतिविधियों से जनता को नाराज कर दिया और सत्ता से बहार हो गए. आज भ्रष्टाचार के आरोपियों में उस आन्दोलन से निकले नेताओं की भी अच्छी-खासी तादाद है. अब अन्ना हजारे राजनैतिक संतों की इस श्रृंखला की वर्तमान कड़ी हैं. उनके पीछे पूरा देश उमड़ पड़ा है. जेपी के पीछे तो युवा वर्ग था अन्ना के पीछे बच्चे, बूढ़े, महिलाएं तक उमड़ पड़ी हैं. इतना तय हो चूका है कि उनका आन्दोलन सिर्फ जन-लोकपाल तक सीमित नहीं रहने वाला. यह जन-उभार पूरी व्यवस्था परिवर्तन की निर्णायक जंग का शंखनाद साबित होने जा रही है. सत्ता परिवर्तन होना तय है. एक जनपक्षीय राजनैतिक संस्कृति का आगमन होगा. पूर्व संतों के अनुभवों को देखते हुए अन्ना ने एक सावधानी जरूर बरती है कि अभी तक अपने ईर्द-गिर्द पेशेवर राजनैतिक दलों और नेताओं को नहीं फटकने दिया है. लेकिन सत्ता की बागडोर सौंपने के समय उन्हें बहुत सावधानी बरतनी होगी. गांधी और जेपी की भूल न दुहराई जाये इसका ध्यान रखना होगा.

    -देवेंद्र गौतम

    2 comments:

    Dinesh pareek said...

    आपने सही कहा पर होना तो वही है जो सदियों से होता आया है क्यों की ये भारत की जनता है जिसे कुछ दिखाई नहीं देता बस उसे दिखाना पड़ता है जनता तो वही है जो अन्ना के अनसन से पहले थी क्या ये जनता पहले मर गई थी क्या क्या हुआ था इस जनता को १२५ करोड़ जनता में १ अन्ना ही क्यों निकला १ गाँधी जी क्यों निकले बात वही है की अब कलयुग आज्ञा है अभी तो कुछ हुआ भी नहीं है होना तो बाकि है और होना भी क्या है इस देश में आँखों के अंधे रहते है उस देश की दशा असी होती है फूट डालो राज करो

    मदन शर्मा said...

    देश के कार्य में अति व्यस्त होने के कारण एक लम्बे अंतराल के बाद आप के ब्लाग पे आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ

    सभी लोग शपथ लॅ कि हम कभी भी किसी बेईमान और आपराधिक तत्त्व को ना तो बचायॅगे और ना ही समथँन करॅगे अन्ना हम सब आपके साथ हैं आप संघर्ष करते रहें
    घर का कोई एक कोना सॉफ कर देने मात्र से ही पूरा घर सॉफ नही हो जाता. मतलब ये की केवल खुद को ईमानदार बना लेने से ही पूरे देश से भ्रास्तचार ख़त्म नही हो जाएगा. इसके लिए ज़रूरी ये है की खुद इमानदर बनो और साथ मे दूसरे को बेईमान बनने से रोको. और यह तभी संभव है जब देश के अंदर एक ऐसा मजबूत पारदर्शी सिस्टम हो जो ऐसे लोगो को ग़लत काम करने से रोके. मजबूत लोकपाल बिल इसी का एक विकल्प है.

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