बेबसी चारो तरफ फैली रही.
जिंदगी फिर भी सफ़र करती रही.
अब इसे खुलकर बिखरने दे जरा
रौशनी सदियों तलक सिमटी रही.
रात के अंतिम पहर पे देर तक
सुब्ह की पहली किरन हंसती रही.
कौम और मज़हब के अंगारों तले
आदमीयत खाक में मिलती रही.
सर्द था पानी समंदर का मगर
तिश्नगी बेआबरू होती रही.
बंद आंखों में कई पैकर खुले
उसके चेहरे की झलक मिलती रही.
दोपहर की धूप से मैं क्या कहूँ
चार दिन की चांदनी कैसी रही.
देखकर गौतम निगाहों को मेरी
रौशनी जलती रही, बुझती रही.
5 comments:
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।">चर्चा
कौम और मज़हब के अंगारों तले
आदमीयत खाक में मिलती रही.
काबिले -तरफ नज्म प्रभावशाली है ,बधाईयाँ जी
bahut zordar likhe hain.....
समाज के चेहरे को उघाडती रचना.
कौम और मज़हब के अंगारों तले
आदमीयत खाक में मिलती रही.
सटीक!
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