अच्छी नारी को सुल्टा नहीं कहा जाता तो फिर बुरी नारी को कुल्टा क्यों कहा जाता है ?
इस बात को हम आज तक नहीं जान पाए लेकिन यह बात ज़रूर जानते हैं कि बालों के समूह को लट कहते हैं और यह भी सच है कि मर्द के लिए लट बोला जाता है तो औरत के लिए भी लट और लटें ही बोला जाता है। ऐसा नहीं है कि मर्द के लिए तो लट बोला जाए और औरत के लिए लटा और लटाएं बोला जाता हो।
पुराने ज़माने में अगर कोई औरत कुल्टा पाई जाती थी तो समाज के चौधरी साहब उसकी लटाएं काट दिया करते थे यानि कि उसकी चोटी काट दिया करते थे ताकि उसे दूर से देखते ही सब जान जाएं कि यह औरत कुल्टा है और उससे सदा दूर ही रहें।
इसी महान व्यवस्था का नतीजा यह हुआ कि परंपरागत यौन रोगों के अलावा एड्स जैसे किसी सर्वथा नए यौन रोग दुनिया में चाहे कहीं भी पैदा हुए लेकिन भारत पर ऐसा एक भी इल्ज़ाम नहीं आने पाया।
कुछ कुल्टा औरतों की चोटियां गईं , सो गईं। थोड़ा बहुत मानवाधिकारों का हनन हुआ सो हुआ लेकिन मानव बच गया , मानवता बच गई।
ज़माना बदला तो यह रस्म भी बदल गई।
अब समाज के किसी चौधरी और पंचायत की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। जो औरत कुल्टा होती है, आज वह अपनी चोटी ख़ुद ही काट लेती है।
पहले औरत चाहती थी कि उसका कुल्टापन छिपा रहे ताकि उसकी इज़्ज़त बची रहे लेकिन आज कुल्टा चाहती है कि लोग उसके कुल्टापन को जान लें क्योंकि आज कुल्टापन उसकी तरक्क़ी में सहायक है न कि रूकावट।
... लेकिन यह कोई कंपलसरी रूल नहीं है कि जिसके बाल कटे हों वह कुल्टा ही हो। बहुत सी औरतें अच्छी और शरीफ़ होती हैं लेकिन अपने बाल काट लेती हैं, बस ऐसे ही, एक नए लुक की ख़ातिर।
...और यह भी ज़रूरी नहीं है कि जिसके सिर पर चोटी लहरा रही हो वह शरीफ़ ही हो, लंबी चोटी वाली औरत कुल्टा भी हो सकती है।
आजकल बड़ा कन्फ़्यूझन है, पहले ऐसा नहीं था।
हमने तो यही पाया है कि मर्दों की ही तरह औरतों में भी अच्छी और बुरी दोनों तरह की ख़सलत पाई जाती है और कौन अच्छी और कौन बुरी है, इसका फ़ैसला आजकल किसी के बाल देखकर बिल्कुल भी न किया जाए।
आपका क्या ख़याल है ?
इस बात को हम आज तक नहीं जान पाए लेकिन यह बात ज़रूर जानते हैं कि बालों के समूह को लट कहते हैं और यह भी सच है कि मर्द के लिए लट बोला जाता है तो औरत के लिए भी लट और लटें ही बोला जाता है। ऐसा नहीं है कि मर्द के लिए तो लट बोला जाए और औरत के लिए लटा और लटाएं बोला जाता हो।
पुराने ज़माने में अगर कोई औरत कुल्टा पाई जाती थी तो समाज के चौधरी साहब उसकी लटाएं काट दिया करते थे यानि कि उसकी चोटी काट दिया करते थे ताकि उसे दूर से देखते ही सब जान जाएं कि यह औरत कुल्टा है और उससे सदा दूर ही रहें।
इसी महान व्यवस्था का नतीजा यह हुआ कि परंपरागत यौन रोगों के अलावा एड्स जैसे किसी सर्वथा नए यौन रोग दुनिया में चाहे कहीं भी पैदा हुए लेकिन भारत पर ऐसा एक भी इल्ज़ाम नहीं आने पाया।
कुछ कुल्टा औरतों की चोटियां गईं , सो गईं। थोड़ा बहुत मानवाधिकारों का हनन हुआ सो हुआ लेकिन मानव बच गया , मानवता बच गई।
ज़माना बदला तो यह रस्म भी बदल गई।
अब समाज के किसी चौधरी और पंचायत की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। जो औरत कुल्टा होती है, आज वह अपनी चोटी ख़ुद ही काट लेती है।
पहले औरत चाहती थी कि उसका कुल्टापन छिपा रहे ताकि उसकी इज़्ज़त बची रहे लेकिन आज कुल्टा चाहती है कि लोग उसके कुल्टापन को जान लें क्योंकि आज कुल्टापन उसकी तरक्क़ी में सहायक है न कि रूकावट।
... लेकिन यह कोई कंपलसरी रूल नहीं है कि जिसके बाल कटे हों वह कुल्टा ही हो। बहुत सी औरतें अच्छी और शरीफ़ होती हैं लेकिन अपने बाल काट लेती हैं, बस ऐसे ही, एक नए लुक की ख़ातिर।
...और यह भी ज़रूरी नहीं है कि जिसके सिर पर चोटी लहरा रही हो वह शरीफ़ ही हो, लंबी चोटी वाली औरत कुल्टा भी हो सकती है।
आजकल बड़ा कन्फ़्यूझन है, पहले ऐसा नहीं था।
हमने तो यही पाया है कि मर्दों की ही तरह औरतों में भी अच्छी और बुरी दोनों तरह की ख़सलत पाई जाती है और कौन अच्छी और कौन बुरी है, इसका फ़ैसला आजकल किसी के बाल देखकर बिल्कुल भी न किया जाए।
आपका क्या ख़याल है ?
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