अपने हाथों की
इन लकीरों को
में तकदीर समझ कर
मुट्ठियाँ बंद कर
जिंदगी के इन्तिज़ार में
बेठा रहा
और जिंदगी थी
के बस
प्लेटफोर्म से
ट्रेन निकलती है जेसे
ऐसे धीरे धीरे खिसकती रही .............
और यूँ ही तकदीर के इन्तिज़ार में
सिसकती रही
शायद इसीलियें तो
लोग कहते हैं
जिंदगी तकदीर नहीं तदबीर है .................अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
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और यूँ ही तकदीर के इन्तिज़ार में
सिसकती रही
शायद इसीलियें तो
लोग कहते हैं
जिंदगी तकदीर नहीं तदबीर है ...
sunder prastuti.
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