पटाखे और पर्यावरण

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  • Monday, October 24, 2011
  • by
  • DR. ANWER JAMAL
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  • इस दिवाली भी यह सवाल खड़ा होगा कि क्या पटाखे चलाए जाएं या पर्यावरण का खयाल करके सिर्फ दीये जलाकर दिवाली मनाई जाए। पिछले कई बरसों से यह एक आंदोलन-सा खड़ा हो गया है कि पटाखों से तौबा की जाए और हवा को प्रदूषित होने से बचाया जाए। कई लोगों ने इस अभियान के असर में पटाखे चलाना कम भी कर दिया है, दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं, जो एक दिवाली में दस-दस हजार या इससे भी ज्यादा की एक लड़ी फूंक देते हैं। यह विवाद पटाखे चलाने वालों और पटाखे विरोधी लोगों के बीच ही नहीं है, दुनिया में तमाम वैज्ञानिक और नीति निर्माता भी इस बहस में उलझे हैं कि क्या इंसान ने वातावरण को सचमुच इतना बदल डाला है। कुछ लोग ग्लोबल वार्मिग को ही मानने को तैयार नहीं हैं, कुछ लोग हैं, जो ग्लोबल वार्मिग को तो स्वीकार करते हैं, लेकिन यह मानते हैं कि इसके पीछे ग्रीनहाउस गैसों की कोई भूमिका नहीं है, पृथ्वी पर गरम और सर्द मौसम के चक्र पहले भी आते रहे हैं। अभी अमेरिका में वैज्ञानिकों की एक टीम ने यह साबित कर दिया है कि ग्लोबल वार्मिग एक सच्चाई है, धरती का औसत तापमान बढ़ा है। इन वैज्ञानिकों में इस वर्ष के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता सॉल पेरीमटर भी शामिल हैं। इन वैज्ञानिकों ने दुनिया के 15 ठिकानों से लगभग 200 बरस के एक अरब से भी ज्यादा तापमान के रिकॉर्ड जुटाए और उनका विश्लेषण किया। यह अब तक का सबसे बड़ा विश्लेषण था, उन्होंने पाया कि पिछले तकरीबन 60 बरस में धरती का तापमान औसतन एक डिग्री सेल्शियस बढ़ गया है। संभवत: इसके बाद यह मान लिया जाना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिग एक यथार्थ है। शायद इसका अर्थ यह    भी है कि पटाखे चलाने से यथासंभव परहेज करना अच्छा होगा।
    लेकिन अब भी इस बात में भरोसा न करने वालों ने हार नहीं मानी है। उन लोगों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिग अपने आप में सच हो सकती है, लेकिन यह कैसे मान लिया जाए कि इसके पीछे इंसानों का हाथ है। उनका कहना है कि जब औद्योगिकीकरण नहीं हुआ था, तब भी गरम और सर्द मौसम के चक्र आते ही थे। कई हिमयुगों के बारे में हम जानते हैं, वैसे ही गरम मौसम के दौर भी आए हैं। कई ऐसी जगहें अब बर्फ से ढकी हैं, जो कभी हरी-भरी थीं, जैसे ग्रीनलैंड का नाम ही बताता है कि वहां कभी हरियाली होती थी। ध्रुवों पर जमीन के नीचे तेल का होना इस बात का सुबूत है कि वहां कभी जीव और वनस्पति होते थे, तभी तो वहां फॉसिल ईंधन बना। वे लोग यह भी तर्क देते हैं कि जीवों के सांस लेने से जितनी कार्बन डाईऑक्साइड हवा में जाती है, ईंधन जलाने से उसके मुकाबले काफी कम कार्बन डाईऑक्साइड बनती है, इसलिए कोयला और पेट्रोल जलाने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि दावे के साथ हम यह नहीं कह सकते कि ग्रीनहाउस गैसों का ग्लोबल वार्मिग में कोई योगदान नहीं है। पटाखे जलाने से ग्लोबल वार्मिग अगर न भी होती हो, तब भी हमारे आसपास जो सांस के या दिल के मरीज होते हैं, उन्हें तो तकलीफ होती ही है। बीमार और बूढ़े लोगों को दिक्कत होती है। पशु और खासकर पक्षी उससे तकलीफ पाते हैं। पहले पटाखे कम चलते थे, तब पटाखे चलाने का अर्थ खुशी मनाना होता था, पैसे का प्रदर्शन नहीं। हमारी हवा साफ रहे, शोर कम हो और पटाखों से होने वाली दुर्घटनाएं भी न हों तो अच्छा है। जैसे फॉसिल ईंधन का इस्तेमाल बंद नहीं हो सकता, लेकिन कम किया जाए तो उसके कई फायदे हैं, वैसे ही पटाखे अगर चलाने ही हों तो कम चलाए जाएं, इसी में समझदारी है।
    Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/subeditorial/article1-story-57-116-197407.हटमल
    साभार : दैनिक हिंदुस्तान २४ अक्टूबर २०११ 

    2 comments:

    रश्मि प्रभा... said...

    main bas pooja per phuljhadi jalati hun aur mere bachche bhi, no patakhe

    shyam gupta said...

    ----रश्मि प्रभा जी--..फुलझड़ी से अधिक प्रदूषण होता है...पटाखों की अपेक्षा ..
    ---वैसे यह एक गलत धारणा है कि आतिशबाजी से प्रदूषण होता है ....आतिशबाजी युगों से होरही है और प्रदूषण नहीं होता था ....आतिशबाजी के प्रकाश, धुंए , ऊष्मा व ध्वनि और रसायनों से ( जो वातावरण के लिए एंटी-सेप्टिक का कार्य करते हैं ) से वातावरण से कीट-पतंगे ( जो इस मौसम में अधिक होते हैं), सूक्ष्म जीव , बेक्टीरिया-आदि नष्ट होते हैं| मौसम के संधि-स्थल पर मौसम के अनियमित व्यवहार( कभी गरम-कभी नरम ) को सम करते हैं |
    ---- सब लोग बिना कुछ जाने घिसी-पिटी कहानियों को दोहराते रहते हैं ..क्योंकि यह भारतीयों का पावन पर्व है ...
    ----सांस के रोगी की सांस तो सदा ही इस मौसम के संधि-स्थल पर अधिक सक्रिय हो जाती है |

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