अरे भई साधो......: आणविक सृष्टि बनाम रासायनिक सृष्टि

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  • Tuesday, November 15, 2011
  • by
  • devendra gautam
  • in
  • जीवन की उत्पत्ति के संदर्भ में कई अवधारणाएं प्रचलित रही हैं. भौतिक भी और आध्यात्मिक भी. भौतिकवाद की अवधारणा मुख्य रूप से डार्विन के विकासवाद पर टिकी है जिसमे पानी के बुलबुले में रासायनिक तत्वों के समन्वय से एककोशीय जीव अमीबा और फिर उससे तमाम जलचरों, उभयचरों, थलचरों और नभचरों की एक लंबी प्रक्रिया के तहत उत्पत्ति और विकास की बात कही गयी है. एक हद तक कोशा (सेल) विभाजन के बाद नर-मादा के अस्तित्व में आने और मैथुनी सृष्टि की बात कही गयी है. यह अवधारणा काफी वैज्ञानिक और विश्वसनीय भी लगती है.
    इधर अध्यात्म की दुनिया में नज़र दौडाएं तो विभिन्न धर्मों में जीवन की उत्पत्ति की अवधारणाएं प्रस्तुत की गयी हैं लेकिन सबका सार यह है कि इस सृष्टि और उसमें जीवन की उत्पत्ति एक महाशून्य से हुई है. दुर्गा सप्तसती के प्राधानिकं रहस्यम के मुताबिक त्रिगुणमयी महालक्ष्मी ही पूरी सृष्टि का आदि कारण हैं. वे दृश्य (साकार) और अदृश्य (निराकार) रूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त कर स्थित हैं. उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को शून्य देखकर तमोगुण से चतुर्भुजी महाकाली और सत्वगुण से महासरस्वती को प्रकट किया.इसके बाद उन्हें नर और मादा के जोड़े उत्पन्न करने को कहा. खुद भी एक जोड़ा उत्पन्न किया जिससे ब्रह्मा, विष्णु, शिव नर और लक्ष्मी, सरस्वती और गौरी मादा के रूप में प्रकट हुए. यहां से मैथुनी सृष्टि की शुरुआत हुई. मैथुनी सृष्टि को हम रासायनिक सृष्टि भी कह सकते हैं.
    इससे यह परिलक्षित होता है कि मैथुनी सृष्टि के पहले महाशून्य से अमैथुनी सृष्टि हुई थी. महाशुन्य यानी कॉस्मिक रेज. कॉस्मिक रेज से ही परमाणुओं की उत्पत्ति मानी जाती है. या फिर अणुओं तो तोड़ते जाने के बाद अंत में कॉस्मिक रेज या एब्सोल्यूट एनर्जी शेष बचता है. इस एब्सोल्यूट एनर्जी से ही परमाणुओं की उत्पत्ति होती है. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि मैथुनी सृष्टि के पहले आणविक सृष्टि हुई थी या दोनों सृष्टियाँ कुछ समय तक समान रूप से जारी रही थीं. आणविक सृष्टि से उत्पन्न हुए लोग अपने शरीर के परमाणुओं को इच्छानुसार संगठित या विघटित कर सकते थे. वे मनचाहा आकार या स्वरूप धारण कर सकते थे. उनका व्यक्तित्व भी तीन गुणों सत्व, रज और तम से संचालित होता था लेकिन वे आणविक होने के कारण शक्तिशाली और जीवन मरण के चक्र से परे अर्थात अमर थे. इस वर्ग के जीवों को ही हिन्दू धर्म में देवता और एनी धर्मों में फ़रिश्ता या देवदूत माना गया और सर्वव्यापी बताया गया. तमाम जीवधारी रासायनिक सृष्टि से आणविक सृष्टि में परिणत होने के प्रयास में लगे रहते हैं. यह साधना के जरिये अपनी चेतना को सूक्ष्मतम अवस्था में पहुंचाने के जरिये ही संभव है. तमाम पूजा पद्धतियां इसका मार्ग ही प्रशस्त करती हैं.

    -----देवेंद्र गौतम

    1 comments:

    Anita said...

    बहुत रोचक और जानकारी भरी पोस्ट!

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