सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?
क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.
खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.
-----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
Posted on Thursday, March 8, 2012 by devendra gautam in
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4 comments:
बहुत सुंदर प्रस्तुति,अच्छी अभिव्यक्ति....
होली की बहुत२ बधाई शुभकामनाए...
RECENT POST...काव्यान्जलि
...रंग रंगीली होली आई,
बहुत बढ़िया,,,,,,,,,,
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
लाजवाब...
har pangti lazabab.....
बहुत खूब देवेन्द्र जी... :)
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