दहेज मांगने वाले गधे और कुत्ते से भी बदतर हैं

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  • Monday, May 21, 2012
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  • DR. ANWER JAMAL
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  • गधा और कुत्ता दो जानवरों का नाम है। इन्हें गाली के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है।
    गधे का अर्थ बेवक़ूफ़ लिया जाता है और कुत्ते का अर्थ लालची लिया जाता है।
    गधे और कुत्ते, दोनों की ज़िंदगी इस बात की गवाह है कि वे दहेज कभी नहीं मांगते।
    दहेज एक बुरी रस्म है। जिसने इसकी शुरूआत की उसने एक बड़ी बेवक़ूफ़ी की और जिसने भी सबसे पहले दहेज मांगा, उसने लालच की वजह से ही ऐसा किया। आज भी यह रस्म जारी है। एक ऐसी रस्म, जिसने लड़कियों के जीवन का नर्क बना दिया और लड़कों को आत्म सम्मान से ख़ाली एक बिकाऊ माल।
    यही बिकाऊ दूल्हे वास्तव में गधे और कुत्ते से बदतर हैं। इनके कारण ही बहुत सी बहुएं जला दी जाती हैं और बहुत से कन्या भ्रूण मां के पेट में ही मार दिए जाते हैं।
    ये केवल दहेज मांगने की ही मुल्ज़िम नहीं हैं बल्कि बहुत हत्याओं में भी प्रत्यक्ष और परोक्ष इनका हाथ होता है।
    20 मई 2012 को आमिर ख़ान के टी. वी. प्रोग्राम ‘सत्यमेव जयते‘ का इश्यू दहेज ही था। उन्होंने दहेज के मुददे को अच्छे ढंग से उठाया। उन्होंने कई अच्छे संदेश दिए।
    अभिनय प्रतिभा का सार्थक इस्तेमाल यही है।

    13 comments:

    दिनेशराय द्विवेदी said...

    अनवर भाई,
    आमिर ने जो भी तीनों मुद्दे सत्यमेव जयते में दिखाए हैं, उनसे सहमति है। लेकिन यह तो टीवी पर बहुत बरसों से दिखाया जा रहा है। लोगों पर उस का कोई असर नहीं होता। लोग शो देखते हैं, भावुक हो कर ताली पीटते हैं, आँसू बहाते हैं और कसमें खाते हैं। समाज वहीं का वहीं रह जाता है। टीवी वाले पैसा बना कर निकल लेते हैं।
    यहाँ भी वही होने वाला है।
    कोई भी मुद्दा जब तक समाज में सामूहिक रूप से सतत न उठाया जाए तब तक उस का यही अंत होता है।
    जरूरत है ऐसे आन्दोलनों की जो समाज में उठें और समाज को इन बुराइयों से मुक्त कराने तक अविराम चलते रहें।
    यह भी सोचने की बात है कि इस समाज में ये सब बुराइयाँ आज भी क्यों मौजूद हैं? क्यों कि जो व्यवस्था परिवर्तन होना चाहिए था वह रोक दिया गया। भारत के आजाद होने तक सामन्ती आर्थिक संबंध प्रमुख थे और पूंजीवाद गौण। पूंजीवाद बच्चा था। उस के दो शत्रु एक साथ खड़े हो गए थे. एक तो सामन्तवाद जिसे समाप्त करने की जिम्मेदारी पूंजीवाद की थी। दूसरी मेहनतकश जनता अर्थात किसान, मजदूर और नौकर पेशा लोग। ये पूंजीवाद को खत्म कर देना चाहते थे। पूंजीवाद ने सामंतवाद से हाथ मिला लिया, क्यों कि वह पूंजीवाद को नष्ट नहीं कर सकता था। दोनों मिल कर अब मोर्चा ले रहे हैं। ये सामाजिक बुराइयां,सम्प्रदायवाद, जातिवाद किसान, मजदूर और नौकर पेशा लोगों को एक नहीं होने देते। इस कारण इन सब चीजों को सत्ता का संरक्षण मिलता है।

    इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए पूंजीवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से बनी वर्तमान फर्जी जनतांत्रिक सत्ता पर हमला बोलना होगा,उसे नष्ट करना होगा उस के स्थान पर वास्तविक जनतंत्र स्थापित करना होगा, मेहनतकश जनता का जनतंत्र।
    लेकिन यह सब आमिर नहीं करेंगे। क्यों कि वे भी उसी सत्ता के एक औजार मात्र हैं।

    विभा रानी श्रीवास्तव said...

    *20 मई 2012 को आमिर ख़ान के टी. वी. प्रोग्राम ‘सत्यमेव जयते‘ का इश्यू दहेज ही था। उन्होंने दहेज के मुददे को अच्छे ढंग से उठाया।*

    सहमत हूँ आपसे .... !!

    विषय-वस्तु पुराना था ..... लेकिन प्रस्तुति धमाकेदार था ...... आशा है .. शायद अब कुछ की आँख खुल जाए ..... बेटियां जलने से बच जाए ..... :D

    Unknown said...

    दिनेशराय द्विवेदी जी से सहमति

    धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

    आमिर खान ने दहेज के मुददे को बहुत अच्छे ढंग से उठाया है उनका ये प्रयास बहुत ही सराहनीय है,यदि देश में १% लोग भी इस पर अमल कर लेते है, तो हजारों लोगों की जिन्दगियाँ तबाह होने से बच जायेगी.
    आमिर खान जी की सार्थक पहल,,,,,,,

    बहुत अच्छी प्रस्तुति,,,,

    RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....

    DR. ANWER JAMAL said...

    @ आदरणीय जनाब दिनेश राय द्विवेदी जी ! आपने लेख को ध्यान से पढ़ा और इस पर विस्तृत टिप्पणी की। इसके लिए आपका शुक्रिया।
    आज, जबकि लोग ब्लॉगिंग को मनोरंजन और कुंठाओं को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, तब भी आप आम लोगों की समस्याओं का हल ढूंढ रहे हैं, यह सचमुच क़ाबिले तारीफ़ बात है।

    बुराई का ख़ात्मा ज़रूर होना चाहिए लेकिन उससे पहले बुराई का निर्धारण किया जाना ज़रूरी है।
    बुराई क्या है ?
    इसकी परिभाषा और इसके लक्षण क्या हैं ?

    जब तक हम पर यह स्पष्ट न हो तब तक हम बुराई को न तो पहचान सकते हैं और न ही उसका ख़ात्मा कर सकते हैं।

    दहेज की रस्म के खि़लाफ़ आमिर ख़ान से पहले भी आवाज़ें उठाई जाती रही हैं। यह सही है और इसी का नतीजा यह रहा कि बिना दहेज विवाह-निकाह करने वाले पहले भी थे। उसी क्रम में अब आमिर ख़ान का आना हुआ है। पहले कही गई बातें बेअसर नहीं रहीं तो अब भी नहीं रहेंगी। आजकल तो नौजवानों के रोल मॉडल यही फ़िल्म एक्टर्स हैं।

    कम लोग यह बात जानते हैं कि दहेज देना एक धार्मिक रस्म है। जब लोग उस विशेष धर्म के अनुसार विवाह करते हैं तो दहेज देना ही पड़ता है, चाहे मात्र एक रूपया ही क्यों न दिया जाए।
    इस तरह दहेज रहित विवाह में भी दहेज अपनी प्रतीकात्मक उपस्थिति बनाए रखता है तो उसके पीछे धार्मिक कारण हैं।

    वास्तविक जनतंत्र स्थापित करने के लिए ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोगों की ज़रूरत है। ऐसे लोगों को सर्वथा अभाव है। हज़ार दो हज़ार लोगों के सहारे सवा अरब आबादी का पूरा सिस्टम नहीं चल सकता।
    आदर्शवादी होना अच्छी बात है लेकिन सच्चाई यही है कि जो कुछ हमारे पास है, हमें उसी से काम चलाना पड़ता है।
    कोई आदमी इसलिए बुरा नहीं हो जाता है कि उसके पास पूंजी है और न ही कोई आदमी इसलिए दूध का धुला हो जाता है कि वह मेहनतकश है।
    इनमें से हरेक इंसान है। एक वर्ग को दूसरे के खि़लाफ़ भड़काने का अंजाम सिर्फ़ ख़ून ख़राबा होगा। लोग इसे क्रांति कहते हैं। क्रांति के बाद शांति कम ही आया करती है।

    पूंजीपतियों के ख़ून ख़राबे के बजाय कोई तरीक़ा ऐसा ढूंढना चाहिए कि उसकी पूंजी का एक हिस्सा उनके काम आ सके जिनके पास बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने जितना भी पैसा नहीं है।
    इंसान के दिलों में दया, प्रेम और सहयोग का जज़्बा बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।
    इंसान की अहमियत बढ़े और पैसे की अहमियत सिर्फ़ सेवा तक रह जाए।

    पांचों उंगलियों का रूप और आकार अलग अलग होता है। हरेक का अपना अपना काम है। जो भी उनमें से किसी एक को काटता है या सबके रूप और आकार एक से करता है। वह हाथ की संरचना को बिगाड़ता है।

    रूप, योग्यता और धन किसी के पास कम और किसी के पास ज़्यादा हो सकता है क्योंकि इसके लिए बहुत सी चीज़ें ज़िम्मेदार हैं।
    इसके बावजूद कोई भी आदमी ग़रीब न रहे, कोई भूखा न सोए और कोई भी दवा के अभाव में न मरे।
    ऐसा इंतेज़ाम बिना किसी अमीर का ख़ून बहाए संभव है।
    ...लेकिन इसके लिए भी एक संगठित आंदोलन की ज़रूरत है और ढेर सारे बेलालच और समर्पित कार्यकर्ताओं की भी।
    सारी तान यहीं आकर टूट जाती है।
    जब हम यह नहीं जुटा पाते, तब हम व्यक्तिगत प्रयास करते हैं।
    आमिर ख़ान का प्रयास भी ऐसा ही है। अच्छी बात कहने वाला किसी भी वर्ग से हो, उसकी बात को सराहा जाना चाहिए।

    राजन said...

    @कोई आदमी इसलिए बुरा नहीं हो जाता है कि उसके पास पूंजी है और न ही कोई आदमी इसलिए दूध का धुला हो जाता है कि वह मेहनतकश है।इनमें से हरेक इंसान है। एकवर्ग को दूसरे के खि़लाफ़ भड़काने का अंजाम सिर्फ़ ख़ून ख़राबा होगा
    आपकी यह बात बहुत अच्छी लगी.सहमत.

    रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

    दहेज का दूसरा रूप के कारण आज दहेज के कानून का दूरुपयोग भी बहुत हो रहा है. दहेज विरोधी होने के कारण मैंने एक पैसा भी दहेज नहीं लिया था और आज दहेज मांगने के झूठे आरोपों में 30 दिन की जेल में रहकर आ चूका हूँ. दहेज को लेकर सिक्के का दूसरा पहलु भी देखने की आवश्कता है.

    रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

    आज कुछ लड़कियाँ और उसके परिजन धारा 498A और 406 को लेकर इसका दुरूपयोग कर रही है. हमारे देश के अन्धिकाश भोगविलास की वस्तुओं के लालच में और डरपोक पुलिस अधिकारी व जज इनका कुछ नहीं बिगाड पाते हैं क्योंकि यह हमारे देश के सफेदपोश नेताओं के गुलाम बनकर रह गए हैं. इनका जमीर मर चुका है. यह अपने कार्य के नैतिक फर्ज भूलकर सिर्फ सैलरी लेने वाले जोकर बनकर रह गए हैं. असली पीड़ित लड़कियाँ तो न्याय प्राप्त करने के लिए दर-दर ठोकर खा रही हैं.

    रवि कुमार, रावतभाटा said...

    दिनेशराय द्विवेदी जी कई जरूरी बातें कह गये हैं जो कि मुद्दों से सहमति परंतु सही पद्धतियों की आवश्यकता को रेखांकित करती है...

    आमीर खान अपने कार्यक्रम में भी कई बार इस बात को वज़न देते हैं कि मामला कोर्ट में है यानि कि व्यवस्था अपना काम कर रही है...वे व्यवस्था से कोई पंगा नहीं लेना चाहते...इसका मतलब यह होता है कि सामाजिक परिस्थितियां वैसी ही बनाई रखी जाएं जिनसे कि ये बुराइयां पैदा होती हैं...और लोगों को व्यक्तिगत प्रयासों पर या रामभरोसे छोड दिया जाए...
    इससे यह जाहिर होता है कि सूरत बदलने से अधिक उनका मकसद सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना है...और जाहिर है यह उनको जो हासिल करना है उसके उद्देश्य से संचालित है...अपनी छवि...कमाई...श्रेष्ठताबोध...
    समाज में कुछ हलचल वाकई में हो जाए तो यह बाइप्रोडक्ट की तरह...उसका भी इस्तेमाल अपने प्रचार के लिए...

    अधिक उम्मीद बेमानी है...या शायद यूं कि उम्मीद ही बेमानी है...
    ये अलग बात है कि उम्मीद करने से...किसी को भी कोई रोक नहीं सकता...जिसे करना है करता रहे...उसका अधिकार क्षेत्र है...

    यह सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ही है...जो इंसानों को गधे-कुत्ते की हद तक के हालातों में फंसाए हुए है...इसी में आमूल-चूल परिवर्तन की दरकार है...

    अनवर साहेब भी यही कह रहे हैं...घुमाफिराकर...कि सारी तान यहीं आकर टूट जाती है...
    यानि कि सिर्फ़ आदर्शों के दम पर...परिवर्तन नहीं हुआ करते...
    उसके लिए यथार्थ प्रयासों और पद्धतियों की आवश्यकता है...

    जब तक यह नहीं है...खयाली पुलाव हैं...व्यक्तिगत प्रयास हैं...आमीर हैं...हम सब हैं...
    और जारी रहता यही व्यापार है...

    DR. ANWER JAMAL said...

    @ रमेश कुमार जैन जी ! जब यह धारणा आम हो जाए कि मरने के बाद कुछ होना नहीं है तो फिर इस ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिए आदमी कुछ भी कर सकता है क्योंकि वह जानता है कि दुनिया में सज़ा कम ही मिलती है और यह कमज़ोरों को ज़्यादा मिलती है।

    देखिए हमारी ताज़ा पोस्ट, जो इसी विषय पर है-
    http://ahsaskiparten.blogspot.in/2012/05/evil.html

    DR. ANWER JAMAL said...

    @ रवि कुमार जी ! आमिर ख़ान ने यह उम्मीद जताई है कि देश की अदालतें अपना काम सही तौर पर अंजाम देंगी। उनका ऐसा कहना यही बताता है कि वे क़ानून की इज्ज़त करते हैं। क़ानून का दायरा अलग है और उनका दायरा अलग है। ज़ाहिर है कि यही बात सही और व्यवहारिक है।
    अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ां, भगत सिंह आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस जैसे लोगों ने आमूल चूल परिवर्तन की जो भी बातें कहीं, वे व्यवहारिक नहीं थीं। जैसे भारत के निर्माण के लिए उन्होंने क़ुर्बानियां दीं, वैसा भारत आज तक नहीं बना और जैसा वह चाहते नहीं थे, वैसा भारत आज एक हक़ीक़त है। उनकी क़ुर्बानियां बेकार गईं। ऐसा हम शिष्टाचारवश नहीं कह सकते।
    बात उतनी ही कहनी चाहिए, जिसे पूरा किया जा सके।
    आज़ादी की तीसरी लड़ाई का दावा करने वाले अण्णा हजारे की आज क्या हालत हो गई है ?, सब जानते हैं और यह भी कि अगर लोकपाल बिल उनकी मर्ज़ी का भी बन जाए तब भी देश से भ्रष्टाचार मिटने वाला नहीं है। उनके साथियों के चरित्र ख़ुद संदिग्ध हैं।
    ईमानदार कार्यकर्ता कहां से आएं ?
    ईमानदारी की कमी आज एक बड़ी समस्या है।
    अच्छी सोच को कैसे उभारा जाए ?
    लोगों का चरित्र कैसे बदला जाए ?
    यह एक बड़ा सवाल है।

    समाज में समस्या है और लोग उसका हल चाहते हैं। उनकी समस्या को लेकर कुछ लोग खड़े होते हैं और वे पूंजीपतियों को डराते हैं कि ग़रीब लोग बहुत ग़ुस्से में हैं।
    पूंजीपति उनसे हाथ मिला लेते हैं। ग़रीबों के हक़ के लिए लड़ने वाले पूंजीपतियों की ढाल बन जाते हैं और ग़रीबों के संघर्ष की दिशा बदल देते हैं। ग़रीब लोग उनके नेतृत्व में बरसों नारे लगाते रहते हैं लेकिन कोई सामाजिक क्रांति नहीं आती।
    आखि़र कोई भी सामाजिक क्रांति क्यों नहीं आती ?
    इसीलिए नहीं आती क्योंकि ग़रीबों के नेता अपना जीवन बेहतर बनाने में जुटे हुए हैं। ग़रीबों के आक्रोश से डराकर वे सरकार और पूंजीपतियों से वसूली करते रहते हैं। इन नेताओं के झोंपड़े महलों में बदल जाते हैं। अगर इन्होंने सचमुच क्रांति की होती तो इनकी जान कब की चली गई होती।
    कोई क्यों मरे जबकि ज़िंदगी की हसीन बहारें उसके इस्तक़बाल के लिए तैयार खड़ी हों ?

    इन दो सवालों को हल कर लिया जाए तो बुराई का ख़ात्मा किया जा सकता है।
    1. बुराई क्या है ?
    2. दूसरों का जीवन बेहतर बनाने के लिए कोई अपना जीवन क्यों गवांए और अपने बीवी बच्चों को दर दर का भिखारी क्यों बनाए ?

    देखिए हमारी ताज़ा पोस्ट, जो इसी विषय पर है-
    http://ahsaskiparten.blogspot.in/2012/05/evil.html

    yashoda Agrawal said...

    शनिवार 26/05/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी.आपके सुझावों का स्वागत है. धन्यवाद!

    कुमार राधारमण said...

    ऐसे कार्यक्रमों का लोकप्रिय होना शुभ संकेत है। जागरूकता फैले,तभी हम ऐसे कलंकों से मुक्त हो सकेंगे।

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