मुखालिफ हवाओं को हमवार कर दे.
भवंर में फंसा हूं मुझे पार कर दे.
जिसे जिंदगी ने कहीं का न छोड़ा
उसे जिंदगी का तलबगार कर दे.
कई बार लौटा हूं उसकी गली से
कहीं मुझसे मिलने से इनकार कर दे!
कभी दोस्ती की रवायत निभाए
कभी वो पलटकर पलटवार कर दे.
कोई मेरी छत के करे चार टुकड़े
कोई मेरे आंगन में दीवार कर दे.
मैं क्या उसको समझूं, मैं क्या उसको जानूं
मेरा हक भी जो मुझको थक-हार कर दे.
वो है या नहीं है, नहीं है कि है
यही सोच मुझको न बीमार कर दे.
----देवेंद्र गौतम
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2 comments:
कई बार लौटा हूं उसकी गली से
कहीं मुझसे मिलने से इनकार कर दे!
वाह,,,, बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,बेहतरीन रचना,,,,,
MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: विचार,,,,
वो है या नहीं है, नहीं है कि है यही सोच मुझको न बीमार कर दे.
वाह,,,, बहुत सुंदर ....
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