इंटरनेट पर एक लेख नज़र से गुज़रा जिसमें कहा गया था कि हमारा विवाह संस्कार है। यह मुसलमानों के निकाह से उत्तम है क्योंकि वह एक क़रार होता है। उन्होंने यह अपील भी की थी कि हिन्दू विवाह को एक संस्कार ही माना जाए। इस विषय को जानने के लिए हमने वैदिक इतिहास में विवाह और स्त्री की स्थिति पर नज़र डाली तो वहां कोई एक निश्चित बात न मिली। इसी दौरान राजा ययाति की कन्या माधवी के विवाह संस्कार पर भी नज़र पड़ी।
संक्षेप में यह कथा ऑनलाइन भारतकोष के अनुसार इस प्रकार है कि गालव ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के शिष्य थे। विश्वामित्र ने अपने शिष्य गालव से 800 ऐसे घोड़े मांगे जिनका रंग चन्द्रमा के समान सफ़ेद हो और उनके कान एक ओर से काले हों। गालव निर्धन थे। वह घोड़े जुटाने के लिए राजा ययाति के पास गया। ययाति के पास ऐसे घोड़े नहीं थे जैसे कि विश्वामित्र ने मांगे थे। ययाति ने गालव को अपनी कन्या माधवी दान में दे दी। गालव माधवी को लेकर सबसे पहले अयोध्या के राजा हर्यश्च के पास गया। उसने माधवी से वसुमना नामक राजकुमार प्राप्त किया और गालव को शुल्क के रूप में 200 घोड़े दिए। इसके बाद गालव माधवी को एक एक करके काशी के अधिपति दिवोदास के पास गया। उसने माधवी से प्रतर्दन नामक पुत्र प्राप्त किया और उसके शुल्क में गालव को 200 घोड़े दे दिए। उसके गाद गालव माधवी को लेकर भोजनगर के राजा उशीनार के पास गया। उसने भी माधवी से शिवि नामक पुत्र प्राप्त किया और उसने भी गालव को शुल्क के रूप में 200 घोड़े दिए। इसके बाद गालव और भी जगह गया और हरेक जगह से 200 घोड़े ले लेकर उसने 1000 घोड़े इकठ्ठा कर लिए। वितस्ता नदी पार करते समय उनमें से 400 घोड़े नदी में बह गए। गालव ने बचे हुए 600 घोड़े और माधवी को अपने गुरू विश्वामित्र को दे दिया। उन्होंने भी माधवी से एक बच्चा पैदा किया। उन्होंने गालव को माधवी लौटा दी और ख़ुद जंगल चले गए। गालव गुरूदक्षिणा के भार से मुक्त हो चुका था। उसने राजा ययाति को उसकी कन्या माधवी वापस दे दी और ख़ुद भी वन को प्रस्थान किया।
मशहूर लेखक भीष्म साहनी ने माधवी की कथा पर एक उपन्यास भी लिखा है जिसे राजकमल प्रकाशन से मंगाया जा सकता है।
माधवी की कथा के माध्यम से तत्कालीन वैदिक समाज में विवाह संस्कार की विविधताओं का अच्छा परिचय मिलता है।
किसी की भावनाएं आहत न हों, इसलिए हम अपना कोई नज़रिया पेश नहीं कर रहे हैं। अपना नज़रिया आप ख़ुद तय करें कि आप अपनी बहन-बेटियों का संस्कार करना पसंद करेंगे या कि क़रार ?
2 comments:
आभार-
यह कथा सत्य है या मिलावट इस पर जाने की आवश्यकता नहीं है....पूर्व एवं प्रारम्भिक वैदिक युग में विवाह नाम की संस्था थी ही नहीं... ...स्त्रियाँ एकदम स्वतंत्र थीं, उनकी इच्छा सर्वोपरि थी एवं कन्याएं आदि इसी प्रकार दी जाती थीं ..अन्य भी तमाम उदाहरण हैं, स्वयं सरस्वती, गंगा आदि भी स्वयं की इच्छा से अथवा जिसके साथ हैं उसकी इच्छा से किसी के भी पास जाती रहीं हैं...
--- तदुपरांत बाद में विवाह नामक संस्था प्रारम्भ हुई एवं यह एक संस्कार बना...तदपि कठोर नियम की अपेक्षा आठ प्रकार के विवाहों को स्वीकृति थी....आज यह एक आवश्यक संस्कार है...
---- इस्लाम तो इसके लाखों वर्ष बाद आया एवं अत्यंत नया-नया धर्म-संस्कृति है.. क्या तुलना....
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