दो गीत सिर्फ आपके लियें ........

Posted on
  • Wednesday, February 16, 2011
  • by
  • आपका अख्तर खान अकेला
  • in
  • दो प्रासंगिक गीत हे महरबानी करके कुच्छ कहिये ..... जरुर ....

    Tuesday, February 15, 2011

    आदरणीय भाईयों आदाब ,
    अभी पिछले दिनों कोटा में एक साहित्यिक सम्मेलन में शमशेर ऐतिहासिक साह्तिय्कार पर परिचर्चा थी इस दोरान कोटा के कवि ठाडा राही की कविता से कार्यकम का आगाज़ हुआ और होना भी था क्योंकि मिस्र की तख्ता पलट क्रांति के बाद कई वर्षों पहले लिखी कविता और गीत प्रासंगिक बन गये यकीन मानिए इस गीत को कोटा के प्रसिद्ध साहित्यकार और चित्रकार जनाब शरद तेलंग ने साज़ के साथ जो आवाज़ दी उस आवाज़ ने इन बेजान अल्फाजों को ज़िंदा कर दिया और भारतेंदु समिति कोटा के साहित्यिक होल में बेठे सभी आगंतुकों को देश के हालातों पर सोचने के लियें मजबूर कर दिया इसलियें यह दो गीत हू बहू पेश हें .................................. ।
    जाग जाग री बस्ती
    अब तो जाग जाग री बस्ती ।
    जीवन महंगा हुआ यहाँ पर
    म़ोत हुई हे सस्ती । ।
    श्रमिक क्रषक तो खेत मिलों में
    अपना खून बहाते ,
    चंद लुटेरे जबरन सारा
    माल हजम कर जाते ,
    बंगलों में खुलकर चलती हे
    आदमखोर परस्ती । ।
    जाग जाग री बस्ती .......
    गूंगे बहरे बन जन युग में
    पशुओं जेसे जीते ,
    आक्रोशों को दबा दबा कर
    अपने आंसू पीते
    संघर्षों से क्यूँ डरते हो
    सहते फाका मस्ती । ।
    जाग जाग री बस्ती ............ ।
    काली पूंजी का हे संसद
    शासन से गठबंधन ,
    मेहनत कश जनता जिनको
    लगती हे जानी दुश्मन
    घूम रहे हें बेदर्दों से
    खाकी दस्ते गश्ती । ।
    जाग जाग री बस्ती .....
    तुमें ही हिटलर नदिरशाहों को धूल चटाई
    शोषण के पंजों से
    आधी दुनिया मुक्त कराई
    उठो मुर्दनी क्यूँ छाई हे
    छोडो हिम्मत पस्ती । ।
    जाग जाग री बस्ती ॥
    टूट गये मस्तूल ढेर ये
    फटे हुए पालों को
    जिसके चारों और घिरा हे
    घेरा घड़ियालों का
    खुद पतवार सम्भालो राही
    डूब रही हे कश्ती । ।
    जाग जाग री बस्ती ...
    जमना प्रसाद ठाडा राही ...
    एक दुसरा गीत हे जो भी पेश हें ॥
    यह वक्त की आवाज़ हे मिल के चलो
    यह जिंदगी का राज़ हे मिलके चलो
    मिलके चलो मिलके चलो मिलके चलो रे
    चलो भाई .........
    आओ दिल की रंजिशें मिटा के आ ,
    आओ भेदभाव सब भुला के आ ,
    देश से हो प्रेम जिनको जिंदगी से प्यार
    कदम कदम से और दिल से दिल मिला के आ
    यह भूख क्यूँ यह ज़ुल्म का हे जोर क्यूँ
    यह जंग जंग जंग का हे शोर क्यूँ ?
    हर इक नजर बुझी बुझी हर इक नजर उदास
    बहुत फरेब खाए अब फरेब क्यूँ ।
    जेसे सुर से सुर मिले हों राग के
    जेसे शोले मिल के बढ़े आग के
    जिस तरह चिराग से जले चिराग
    वेसे बढो भेद अपना त्याग के । ।
    दोस्तों यकीन मानिए यह दो गीत जिनके हर अलफ़ाज़ ने मेरे दिल की गहराइयों को छू लिया था और मेने उसी वक्त प्रण किया था के इन दो गीतों से में मेरे साथियों की मुलाक़ात जरुर कराउंगा लेकिन बस वक्त की तंगी इंटरनेट की खराबी ने बेवफा बना दिया ओर में तुरंत खुद से आपके लियें क्या वायदा निभा नहीं सका लेकिन देर से ही सही अब प्रस्तुत हे दोस्तों अगर यह गीत इनके बोल आपको वर्तमान परिस्थितयों में प्रासंगिक और जीवित होने का एहसास दिलाएं और आप के हाथ खुद बा खुद कोई टिप्पणी करने के लियें मजबूर हो जाएँ तो इसके पहले हकदार गीतकार साहित्यकार शरद तेलंग हें और फिर इसका श्रेय भाई दिनेश राय द्विवेदी अनवरत और तीसरा खम्बा के ब्लोगर भाई के साथ महेंद्र नेह जी हें , .... अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

    2 comments:

    Yashwant R. B. Mathur said...

    सर!आपने बहुत अच्छा किया इन गीतों को यहाँ साझा करके.निश्चित रूप से इनकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी.

    DR. ANWER JAMAL said...

    जिस तरह चिराग से जले चिराग
    वैसे बढो भेद अपना त्याग के । ।

    आपकी पेशकश प्रेरणास्पद है .
    अगर आपको ऐतराज़ न हो तो हम चाहते हैं की आपका नाम इस ब्लॉग के कानूनी सलाहकार मंडल में शामिल कर लिया जाये .

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