नर हो या नारी, वह स्वकेंद्रित होता है। वह अपने अनुभवों से सीखता है और हर चीज़ को अपने उन्हीं अनुभवों की रौशनी में देखता है जो कि उसके अवचेतन मन में बैठ चुके होते हैं। जो अपने अवचेतन मन की वृत्तियों का विश्लेषण करके उसके नकारात्मक पक्ष से खुद को मुक्त कर लेते हैं, वे सत्पुरूष और सूफ़ी-संत कहलाते हैं। वास्तव में समाज के सच्चे सुधारक भी यही होते हैं। अपना जायज़ा लेने का, निष्पक्ष होकर उसपर विचार करने और लेने का और फिर समाज को सुधारने के लिए सद्-विचारों के प्रसार का काम आसान नहीं होता। अक्सर लोग दौलत-शोहरत और इज़्ज़त को ही सब कुछ मानते हैं। इन चीज़ों को पाने का नाम कामयाबी और इन चीज़ों को न पा सकने का नाम नाकामी समझा जाता है। ऐसे लोगों की नज़र में अपना जायज़ा लेना, खुद को और समाज को सुधारने की कोशिश करना सरासर घाटे का सौदा है। इस कोशिश में दौलत-शोहरत और इज़्ज़त तो मिलती नहीं है, उल्टे पहले से जो कुछ कमा रखा होता है। वह भी सब चला जाता है और समाज की अक्सरियत दुश्मन अलग से हो जाती है। एक सुधारक के रहन-सहन का स्टैंडर्ड इतना नीचे पहुंच जाता है कि न तो वह अपने बच्चों को शहर के सबसे महंगे स्कूल में पढ़ा सकता है और न ही शहर के सबसे ज़्यादा तालीमयाफ़्ता लड़के से अपनी लड़की ही ब्याह पाता है। सुधारक अपने लिए भी ग़रीबी को दावत देता है और अपने बच्चों के लिए भी चाहे वह उसूलपसंद जीवन साथी भले ही ढूंढ ले लेकिन प्रायः होते वे ग़रीब ही हैं।
ग़रीबी कष्ट लाती है, दुख देती है और इंसान सदा से जिस चीज़ से डरता आया है, वह एकमात्र दुख ही तो है। जो दुख उठाने के लिए तैयार नहीं है, वह न तो कभी खुद ही सुधर सकता है और न ही कभी अपने समाज को सुधारने के लिए ही कुछ कर सकता है।
आज समाज में हर तरफ़ बिगाड़ आम है। आम लोग इस बिगाड़ का ठीकरा अपने समाज के ख़ास लोगों पर फोड़कर यह समझते हैं कि अगर हमारे नेता, पूंजीपति और नौकरशाह सुधर जाएं तो फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। वे चाहते हैं कि दूसरे सुधर जाएं और हमारे नेता, पूंजीपति और नौकरशाह खुद भी देश की जनता से यही उम्मीद पाले बैठे हैं कि जनता सुधर जाए तो देश सुधर जाए और सुधरने से हरेक डरता है क्योंकि सभी इस बात को जानते हैं कि सुधरने की कोशिश ग़रीबी, दुख और ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं देगी।
तब कोई भी आदमी खुद को आखि़र क्यों सुधारे ?
ग़रीबी कष्ट लाती है, दुख देती है और इंसान सदा से जिस चीज़ से डरता आया है, वह एकमात्र दुख ही तो है। जो दुख उठाने के लिए तैयार नहीं है, वह न तो कभी खुद ही सुधर सकता है और न ही कभी अपने समाज को सुधारने के लिए ही कुछ कर सकता है।
आज समाज में हर तरफ़ बिगाड़ आम है। आम लोग इस बिगाड़ का ठीकरा अपने समाज के ख़ास लोगों पर फोड़कर यह समझते हैं कि अगर हमारे नेता, पूंजीपति और नौकरशाह सुधर जाएं तो फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। वे चाहते हैं कि दूसरे सुधर जाएं और हमारे नेता, पूंजीपति और नौकरशाह खुद भी देश की जनता से यही उम्मीद पाले बैठे हैं कि जनता सुधर जाए तो देश सुधर जाए और सुधरने से हरेक डरता है क्योंकि सभी इस बात को जानते हैं कि सुधरने की कोशिश ग़रीबी, दुख और ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं देगी।
तब कोई भी आदमी खुद को आखि़र क्यों सुधारे ?
3 comments:
agar apne dharm granthon me apne bigde swaroop ke hashra padhega aur ye sochega ki uska bhi ek din aisa hashra ho sakta hai aur vah koi anokha nahi hai ki uske sath vah sab nahi hoga jo auron ke sath ho raha hai to shayad khud ko sudharne ki soch sakta hai.par kya karen aisa koi sochta hi nahi har ek apne ko vishesh prani sochta hai.
@ शालिनी जी ! आप किन धर्मग्रंथों की बात कर रही हैं ?
इन्हीं धर्मग्रंथों में लिखा है कि औरत वेद नहीं पढ़ सकती और विधवा हो जाए तो दोबारा विवाह नहीं कर सकती , वह मनहूस है , शादी ब्याह के मौके पर उसे शामिल मत करो , अगर एक विधवा पति के साथ सती होने से बची रह जाए तो उसके मानवाधिकार छीनकर उसकी आत्मा और मन को हर पल जलाने वालों को धर्म और पुण्य की प्राप्ति होती है ।
जबकि पुरुष के लिए ऐसा कोई विधान नहीं है । पाँचों पांडव एक नारी के साथ नहीं बल्कि उसके नारीत्व के साथ नित्य बलात्कार करते रहे और किसी गुरु और किसी अवतार ने उन्हें इस नीच कर्म से न रोका ?
बल्कि युधिष्ठिर तो धर्मराज कहलाते रहे जबकि आज के युग को जिसे कलियुग कहकर नाहक़ बदनाम किया गया है , इस कलियुग के पापी भी उस धर्मराज से अच्छे हैं ।
वे नारी के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करते ।
मैं तो इन बातों को झूठी और मिलावटी मानता हूँ लेकिन शंकराचार्य आदि धर्मगुरु मुझसे सहमत नहीं हैं । इन्हीं के कारण भारत में आज भी कई जगहों पर एक औरत को कई भाइयों की ज्वाइंट पत्नी के रूप में रहना पड़ रहा है।
क्या वाकई इन्हें धर्म और अधर्म की समझ है ?
ये धर्म की शिक्षा देते हैं या अधर्म की ?
औरत की अग्नि परीक्षा लेने और गर्भवती अवस्था में निकाल दिए जाने को धर्म भी आपको इन्हीं ग्रंथों में लिखा हुआ मिलेगा ।
अब सोचने की बात यह है कि जब धर्म और धर्मग्रंथ तक बिगड़ चुके हों , आश्रम तक बिगड़ चुके हों और धर्मगुरु रेप और मर्डर में जेल भेजे जा रहे हों तो फिर आदमी खुद को कैसे और क्यों सुधारे ?
विरोध गर शब्दों का हो तो परिवर्तन सुधार संभव नहीं, पर जिन बातों के विरोध में हम भीतर से दृढ़ होते हैं , उससे परिवेशिये सुधार परिवर्तन हो ना हो पर कुछ कदम साथ होते हैं और ये कदम अर्थहीन नहीं होते ...
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